डेयरी व्यवसाय को प्रभावित करने वाले कारक एवं निवारण

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पशुपालन कृषि का एक अभिन्न अंग है जिसे पशुपालकों की आमदनी बढ़ाने का सबसे आशाजनक क्षेत्र माना जाता है। माँस, अण्डे, दूध, फर, चमड़ा और ऊन जैसे श्रम और वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए पशुधन को कृषि क्षेत्र के अंतर्गत पाले गये पालतु पशुओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुधन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लगभग 20.5 मिलियन लोग अपनी आजीविका के लिए पशुधन पर निर्भर हैं। छोटे ग्रामीण परिवारों की आय में पशुधन का योगदान 16 प्रतिशत है, जबकि सभी ग्रामीण परिवारों का औसत लगभग 14 प्रतिशत है। पशुधन ग्रामीण समुदाय के दो-तिहाई लोगों को आजीविका प्रदान करता है। यह भारत में लगभग 8.8 प्रतिशत आबादी को रोजगार भी प्रदान करता है। हालांकि, भारत में विशाल पशुधन संसाधन हैं फिर भी प्रति पशु दुग्ध उत्पादन और प्रति व्यक्ति दुग्ध उपलब्धता कम है। प्रति पशु औसत दुग्ध उत्पादन को विश्व स्तर पर लाने के लिए पशुपालन क्षेत्र में आने वाली प्रमुख समस्याओं का समाधान करना अति आवश्यक है जिनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है:

1. उत्तम नस्ल के पशुओं का चयन

डेयरी फार्म की सफलता उत्तम नस्ल के पशुओं पर निर्भर करती है। अत: दुधारू पशु का चयन बड़े सोच विचार से होना चाहिए। हमारे देश में साहीवाल, लाल सिन्धी, थारपारकर, गिर तथा हरियाना आदि गायों तथा मुर्राह, नीली रावी, भदावरी, मेहसाना तथा सूरती आ​दि भैंसों की उत्तम नस्लें हैं जिनका दूध उत्पादन प्रति पशु प्रति ब्यांत 1500–3000 लीटर है। यदि इनका चयन एवं पालन-पोषण ठीक प्रकार से किया जाये तो इनकी उत्पादन क्षमता को 15–20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त संकर नस्ल की गायें भी अच्छे दुधारू पशु हैं।

दुधारू मादा का चयन

पशु किसी भी बीमारी से ग्रस्त न हो। पशु किसी अच्छे सुसंगठित डेयरी फार्म से ही खरीदने चाहिए ताकि उन पशुओं का वंश का उत्पादन, प्रजनन, वद्धि तथा स्वास्थ्य संबंधित रिकॉर्ड मिल सके।

पशु की नस्ल उम्र

  • पशु का चयन करते समय सबसे पहले दुधारू पशु की नस्ल पर ध्यान देना चाहिए।
  • दुधारू पशु एक या दो बार के ब्यांत का ही खरीदना चाहिए।
  • दुधारू पशु कम उम्र का खरीदना चाहिए।

पशु की सेहत

  • दुधारू पशु पहली ही नजर में स्वस्थ व चुस्त ​दिखाई देना चाहिए।
  • पशु के ऊपर ज्यादा चर्बी न हो क्योंकि ज्यादा चर्बी होने से या चमड़ी मोटी होने पर पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता ज्यादा नहीं होती। उसमें प्रजनन की समस्या रहती है।
  • दुधारू पशु सिर की तरफ से पतला व पीछे से चौड़ा दिखाई दे ताकि शरीर तिकोने जैसा लगे।
  • छाती चौड़ी हो व हड्डियां ​दिखाई नहीं देनी चाहिए।
  • गर्दन पतली व लम्बी हो।
  • पशु के पैर सीधे तथा चाल में लंगड़ापन नहीं होना चाहिए।
  • पुट्ठे चौड़े व मजबूत होने चाहिए।
  • कुल्हे से पुट्ठे की हड्डियों के बीच की दूरी जितनी ज्यादा होगी तो उस पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता भी उतनी ही अच्छी होगी।
  • हमेशा पतली चमड़ी वाला पशु ही खरीदना चाहिए। चमड़ी चिकनी, चमकदार व लचीली व चर्म रोग रहित होनी चाहिए।
  • आँखें चमकीली व साफ होनी चाहिए।
  • कान चौकन्ने व उनसे स्राव नहीं निकलना चाहिए।
  • थूथने गोल, काले व ठण्डे होने चाहिए।
  • मुँह से लार व नथूने से स्राव नहीं बहना चाहिए।
  • पशु सामान्य स्वभाव से खाता हो व आराम से जुगाली करता हो तो वह पशु स्वस्थ समझा जाता है।

थन लेवटी

  • थन लंबे व बराबर दूरी पर होने चाहिए।
  • चारों थन एक समान व एक दूसरे से बराबर दूरी पर होने चाहिए तथा बहुत अधिक झूलते हुए नहीं होने चाहिए।
  • थन छूने पर मुलायम व स्पंज जैसे होने चाहिए, जिनमें कोई गांठ नहीं होनी चाहिए।
  • थन छोटा, मोटा व लेवटी सख्त हों। उस पर हाथ लगाने से य​दि पशु को दर्द हो तो समझना चाहिए कि उस पशु को थनैला रोग है।
  • थन की सतह पर तथा उसके सामने दूध वाली नसें स्पष्ट ​दिखाई देनी चाहिएं।
  • थन का जुड़ाव पीछे की तरफ काफी ऊपर से जुड़ा हो तथा आगे की तरफ ज्यादा फैलाव हो।
  • थन व लेवटी में घाव अथवा फटन नहीं होने चाहिए।
  • पशु खरीदने से पहले कम से कम तीन बार लगातार दूध निकालकर देखें क्योकि पशु बेचने वाले कई बार एक समय का दूध छोड़ देते हैं जिससे एक समय का दूध निकालने से उसकी मात्रा बढ़ जाती है। दूध साफ, यानी उसमें रक्त आ​दि नहीं होना चाहिए। जिन पशुओं में थनैला रोग हो तो उन पशुओं को नहीं खरीदना चाहिए।

योनी द्वार

  • योनी द्वार साफ व पूंछ साफ-सूथरी होनी चाहिए। य​दि योनी द्वार साफ व पूंछ साफ नहीं होंगें तो पशु की बच्चादानी में संक्रमण हो सकता है, ऐसे पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता भी कम हो जाती है व गर्भधारण करने में समस्या आती है। अत: ऐसे पशु नहीं खरीदने चाहिए।

साँड का चयन

साँड को समूह का आधा भाग माना जाता है लेकिन गांवों में रखे जाने वाले सांडों व झोटों का चयन उनके आनुवंशिक दूध उत्पादन क्षमता के आधार पर नहीं किया जाता और न ही उनका कोई रिकार्ड होता है। दूसरा झोटों या सांडों का कई-कई सालों तक गर्भाधान के लिए प्रयोग किया जाता है। जिसके कारण अन्त: प्रजनन की समस्या बढ़ जाने के कारण आने वाली पीढ़ियों में रोगरोधी शक्ति कम हो जाती है। इस तरह से पशुओं के दूध उत्पादन में कमी आने के साथ-साथ प्रजनन संबंधी व्याधियां भी बढ़ जाती हैं। फलस्वरूप पशुपालकों को आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है। पशुपालन में साँड की अहम् भूमिका है अत: साँड का चयन आनुवंशिक गुणवत्ता के आधार पर करना जरूरी है। अन्यथा भविष्य की पीढि़यों में दूध उत्पादन पर कुप्रभाव पड़ेगा।

  • साँड अच्छी व शुद्ध नस्ल का होना चाहिए।
  • उसकी उम्र तीन-साढ़े तीन साल की हो।
  • उसकी माँ ज्यादा दूध देने वाली हो।
  • उसमें कोई आनुवंषिक दोश न हो।
  • वह किसी बीमारी से ग्रस्त न हो।
  • उसकी पीठ सीधी हो, कद ऊंचा हो, पैर सीधे हों, गर्दन व कूल्हे मोटे हों।
  • अण्डकोश पुष्ट व दोनों बराबर आकार के हों, मुतान खिंचा हो और उसमें फुर्तीलापन हो।
  • ज्यादा चर्बी वाला न हो।
और देखें :  पशुओं के ब्याने के समय और उसके तुरंत बाद की सावधानियां

विशेष: आधुनिक दौर में कृत्रिम गर्भाधान हर गाँव में बहुत ही सस्ती दर पर आसानी से उपलब्ध है। अत: पशुपालकों को साँड पालने की आवश्यकता नहीं है। इससे उनका खर्च बचने के साथ-साथ उत्तम नस्ल के पशु पैदा होते हैं। 21वीं सदी में तो डेयरी पशुओं में लिंग वर्गीकृत वीर्य से मादा पैदा होने लिए भी आसान मूल्य पर कृत्रिम गर्भाधान उपलब्ध है।

2. पशुआहार प्रबन्ध

ग्रामीण क्षेत्रों में पहले पंचायत की भूमि चरागाहों के लिए प्रयोग में लाई जाती थी परन्तु यह जमीन हर साल घटती जा रही है। हमारे देश में पशुओं के कम दूध उत्पादन का मुख्य कारण पर्याप्त मात्रा में दाना व चारे का न मिलना है तथा पशुओं की दूध उत्पादन की आनुवंशिक क्षमता भी कम है। बछियों व कटडि़यों को पर्याप्त व सन्तुलित आहार न मिलने के कारण उनकी प्रजनन योग्य शारीरिक भार प्राप्त करने में विलम्ब होने पर उनका अनुपयोगी समय बढ़ जाता है तथा आर्थिक हानि होती है।

हरे चारे की खेती कम होने के कारण पशु आहार में प्रोटीन, खनिज तत्वों व विटामिनों की कमी से पशुओं में पिछा ​दिखाना, गर्मी के लक्षण समय पर न ​दिखाना, गर्भ धारण न करना, कम दूध उत्पादन होना आ​दि समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। इसलिए पशुओं को सारा साल हरा चारा उपलब्ध करवाना चाहिए। क्योंकि हरे चारे से सारे पोषक तत्व सस्ते दरों पर मिल जाते हैं तथा हरा चारा जल्दी हजम हो जाता है। य​दि हम पशुओं को सन्तुलित दाना व चारा उपलब्ध करवा सकें तो 15 से 20 प्रतिशत तक दूध उत्पादन तो मौजूद दुधारू पशुओं का ही बढ़ाया जा सकता है। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर उपलब्ध औषधीय पौधों का ज्ञान भी, पशु आहार के रूप में करने से पशुओं की विभिन्न बीमारियों से लड़ने में अहम् भूमिका निभाने के साथ उत्पादन क्षमता बढ़ाने का कार्य करता है।

3. छंटाई एवं प्रतिस्थापन

अनचाहे एवं अनुत्पादक पशु लागत और लाभ के अनुपात को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। उचित लाभ अर्जित करने के लिए ऐसे पशुओं की समय-समय पर छंटाई और उनके स्थान पर अच्छे दुधारू पशुओं को प्रतिस्थापित करना चाहिए। बाहर से पशुओं को खरीदकर प्रतिस्थापित करना मंहगा होता है। अतः पशुपालक अपने छोटे पशुओं की अच्छी तरह देखभाल करनी चाहिए और उनके उत्पादन पर आने के बाद अनचाहे एवं अनुत्पादक पशुओं के स्थान पर प्रतिस्थापित कर सकते हैं।

4. पशु गृह प्रबन्धन

ग्रामीण क्षेत्रों में पशुघर का निर्माण वैज्ञानिक विधि से नहीं किया जाता तथा अधिकतर पशुघरों में स्थान प्रति पशु कम होता है। यदि पशुघर आरामदायक नहीं होगा तो पशुओं का शारीरिक विकास, दूध उत्पादन तथा प्रजनन शक्ति पर कुप्रभाव पड़ता है। पशु घर में जगह कम होने पर सफाई करने तथा चारा, दाना डालने में कठिनाई होती है। नियमित सफाई न होने के कारण पशुओं के गोबर व पेशाब से उनके चारे व दाने का प्रदूषण होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं जिससे पशुओं में रोगों के जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं।

उत्तर भारत में पशुओं के लिए मुक्त पशुघर आरामदायक सिर्फ हुआ है। वैज्ञानिकों के आंकड़ों के अनुसार मुक्त घर में पशुओं के वजन में वृ​द्धि तथा दूध उत्पादन अधिक पाया गया। अधिक गर्मी व सर्दी के मौसम में थोड़ा सा परिवर्तन करना पड़ता है। मुक्त पशु घर में पशु इच्छानुसार स्वच्छ पानी पी सकता है। खुरली की उंचाई तथा चौड़ाई उचित होती है जिससे पशुओं को दाना-चारा खाने में कोई परेशानी नहीं होती। फर्श व नाली का ढलान इतना ​दिया जाता है कि गोबर व पेशाब की सफाई आराम से हो जाती है। अधिकतर पशुपालक पशुओं को तालाब में पानी पिलाते हैं जो प्राय: स्वच्छ नहीं होता तथा ऐसा पानी पीने से पशु रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए स्वच्छ पानी का प्रबन्ध पशुघर में ही होना चाहिए ताकि पशु सक्रामक रोगों से बच सकें।

और देखें :  पशुओं में बाह्य परजीवी रोगों का उपचार एवं रोकथाम

5. देखभाल और प्रबंधन

विभिन्न आयु वर्ग के पशुओं के पालन-पोषण के लिए अलग से प्रबंधन एवं आहार की आवश्यकता होती है। पशुओं एवं उनकी देखभाल करने वाले श्रमिकों का स्वास्थ्य निरीक्षण, टीकाकरण और बीमारी के प्रकोप के जोखिम को कम करना आवश्यक है। पशुओं का वैज्ञानिक प्रबंधन अपनाने से पशुओं की पोषण लागत, मृत्यु दर, रोग, परिपक्व आयु, प्रथम प्रसव की उम्र, पीढ़ी अंतराल इत्यादि को कम करने में सहायक होता है तो वहीं दूसरी ओर यह दूध, माँस, अण्डा, चमड़ा, उच्च दुग्ध उत्पादकता, विकास दर और प्रदजनन दर को बढ़ाता है।

6. उत्पाद विपणन और मूल्यवर्द्धन

आमतौर देखा जाता है कि पशुपालक अपने उत्पाद को स्वयं नहीं बेचता है लेकिन उनसे खरीद कर बाजार में बेचने वाला व्यक्ति पशुपालक से अधिक आमदनी कमा लेता है। इसी के साथ पशुपालक उत्पाद का मूल्यवर्द्धन भी नहीं करता है। यदि पशुपालक अपने उत्पाद को स्वय बेचता है तो उसका मुनाफा बढ़ता है और मूल्यवर्द्धन बाजार में बेचता है तो और ज्यादा मुनाफा उसको मिल जाता है।

7. पशु रोग

प्रति वर्ष लाखों पशुओं में संक्रामक रोगों जैसे गलघोटू, मुँहपका-खुरपका तथा लंगड़ी बुखार आ​दि रोगों का प्रकोप हो जाता हैं। इससे करोड़ों रूपये की आर्थिक हानि हो जाती है। मुँह-खुर पका रोग से पशुओं में मृत्युदर तो कम होती है लेकिन पशु ग्रसित होने पर बहुत कमजोर हो जाता है तथा प्रजनन एवं उत्पादन क्षमता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। छोटे बच्चों में पेट में कीड़े तथा निमोनिया से 25 से 30 प्रतिशत बच्चों की 3 माह की आयु तक मृत्यु हो जाती है। इसलिए इस आयु में उनके रख-रखाव पर अधिक ध्यान ​दिया जाना चाहिए।

कभी भी सस्ते के लालच में कमजोर पशु नहीं खरीदना चाहिए। ऐसे पशु टी.बी. व ब्रुसेलोसिस या अन्य भयंकर बीमारीयों से ग्रसित हो सकते हैं। ऐसे कमजोर पशु फार्म शुरू करने पहले ही उसे बन्द करने के कगार पर पहुँचा देते हैं। पशु हमेशा स्वस्थ रिकॉर्ड वाले फार्म से ही खरीदने चाहिए।

8. स्थानीय पशुधन जैव विविधता

सदियों से पशुओं की ऐसी नस्लें विकसित हुई हैं जो स्थानीय स्थितियों के लिए उपयुक्त हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था, संस्कृतियों, ज्ञान प्रणालियों व समाज के अनुसार अनुकूल रहीं हैं। इससे इन नस्लों में जैविक तथा अजैविक प्रतिबलों को सहन करने के विशिष्ट गुण विकसित हुए हैं। ये उन क्षेत्रों में दूध, माँस, अंडे, ऊन आदि का उत्पादन जारी रख सकती हैं जहां निम्न स्तर की आवासीय सुविधा, आहार तथा पशु चिकित्सा संबंधी अपर्याप्त रखरखाव के कारण आयात की गई आधुनिक नस्लें असफल रही हैं। स्थानीय पशुधन से स्थानीय लोग अपनी आजीविका कमाते हैं तथा भावी प्रजनन प्रयासों के लिए इनके द्वारा बहुमूल्य आनुवंशिक संसाधन उपलब्ध हो सकता है। लेकिन ये नस्लें भी अब लुप्त होती जा रही हैं क्योंकि आधुनिक उत्पादक तकनीकों तथा विदेशी नस्लों से प्रतिस्पर्धा के कारण ये नस्लें पिछड़ गई हैं। आधुनिक कृषि के अंतर्गत ऐसी विशेषीकृत नस्लें विकसित की गई हैं जिनमें इष्टतम विशिष्ट उत्पादन संबंधी गुण हैं। उच्च उत्पादनशील नस्लों की यह कम संख्या कुल उत्पादन में अपना हिस्सा बढ़ा रही है, लेकिन इस प्रक्रिया से आनुवंशिक आधार संकरा होता जा रहा है क्योंकि बाजार के दबाव के कारण देसी नस्लों तथा प्रजातियों की उपेक्षा हो रही है। पशु आनुवंशिक संसाधनों में विविधता बहुत जरुरी है ताकि खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा के मामले में मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आनुवंशिक विविधता में न केवल पशु नस्लों का उत्पादन व इसके कार्यशील गुणों को शामिल किया जाता है, बल्कि यह भी देखा जाता है कि विभिन्न पर्यावरणों के प्रति वे स्वयं को किस प्रकार ढाल सकती हैं तथा उनमें इसकी कितनी क्षमता है। इसमें आहार तथा जल की उपलब्धता, जलवायु, नाशकजीवों व रोगों के प्रति अनुकूलता जैसे पहलू भी शामिल हैं। विदेशीमूल एवं संकर नस्ल के पशु स्थानीय जलवायु विशेष के प्रति संवेदनशील होते हैं और नये पर्यावरण में उनको ढालने के लिए उनके बारे विस्तृत ज्ञान न होने कारण उनकी उत्पादन क्षमता पूरी न ले पाने के कारण पशुपालकों को नुकसान होता है। इसी के साथ रोगों के प्रति संवेदनशीलता के कारण उनमें मृत्युदर भी अधिक पायी जाती है जिससे पशुपालकों को असमय ही आर्थिक हानि सहन करनी पड़ती है।

उच्च उत्पादन देने वाली विदेशी दुधारू पशु प्रजातियों के साथ संकरीकरण का कार्य भारत में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए आरंभ किया गया था। इसके अंतर्गत देसी नस्ल की मादाओं का विदेशी नस्लों के नरों/वीर्य का उपयोग करके, संकरण कराया गया। अधिकारिक प्रजनन नीति में केवल अवर्णित गोपशुओं का विदेशी नस्लों के साथ संकरीकरण कराया गया और इसी को मान्यता प्रदान की गई, जिसका उद्देश्य दूध उत्पादन को सुधारना था तथा विदेशी वंशानुगतता की अनुशंसित सीमा को 50 से 75 प्रतिशत के बीच निर्धारित किया गया था। लेकिन अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए पशुपालकों का रूझान शुद्ध विदेशी नस्लों की ओर बढ़ने से उनमें प्रजनन एवं रोगों से संबंधित कई समस्याएं जैसे कि रिपीट ब्रीडिंब बहुत ज्यादा पायी जाती है।

और देखें :  उत्तराखण्ड की तर्ज पर हिमाचल में भी गाय को मिलेगा "राष्ट्रमाता" का दर्जा- विधानसभा में प्रस्ताव पारित

अतः उच्च दुग्धोपादन के लिए स्थानीय पशुओं की चयन विधि और विदेशीमूल के दुधारू पशुओं सहित पशुधन से उचित लाभ लेने के लिए उचित देखभाल का ज्ञान होने के साथ-साथ जैव विविधता बचाये रखना भी अतिआवश्यक है।

9. पशु चिकित्सालयों की कमी

विभिन्न राज्यों में पशुपालन विभाग द्वारा खोले गये राजकीय पशु चिकित्सालयों में पशु चिकित्सा के लिए पशु चिकित्सकों की कमी हैं जिसके कारण समय पर पशुओं का इलाज नहीं हो पाता है और महामारी के कारण पशु मर जाते हैं। पशु चिकित्सकों की कमी के कारण पशु प्रजनन (अपग्रेडिंग) के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना भी असंभव सा हो गया है। इस कार्य के लिए राज्य सरकारों को पशु प्रजनन केन्द्रों तथा पशु चिकित्सा केन्द्रों की स्थापना निर्धारित पशु संख्या पर करनी चाहिए। गैर-व्यावसायिक होने के कारण इन सुविधाओं का पर्याप्त उपयोग पशुओं के नस्ल सुधार व उपचार के क्षेत्र में नहीं हो पा रहा है।

पशुओं की संख्या को मध्यनजर रखते हुए पशु रोग निदान प्रयोगशालाओं की संख्या अत्यंत कम है। इनकी संख्या में वृ​द्धि करने की जरूरत है क्योंकि पशुओं के अनेक रोगों की पशु चिकित्सकों को पहचान नहीं हो पाती है। पशु चिकित्सालयों में खून, पेशाब व गोबर की जांच करने की सुविधा भी कम है। सरकार द्वारा राज्यों में इन प्रयोगशालाओं को खोलने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था करनी चाहिए।

10. प्रचार तथा प्रसार का अभाव

देश के देहाती क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषाओं की विविधता है। विश्वविद्यालयों, पशु चिकित्सा महाविद्यालयों, पशु विज्ञान महाविद्यालयों, पशुपालन व डेयरी शोध संस्थानों द्वारा समय-समय पर पशुपालन के विभिन्न क्षेत्रों में जो नई तकनीक विकसित होती है, उनका पूरा लाभ पशुपालकों तक नहीं पहुंच पाता है। इसलिए देश के सभी राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं में पशुपालन से संबंधित साहित्य तैयार करने की जरूरत है।

11. पशु संख्या

हमारे देश में विश्व के 2 प्रतिशत क्षेत्रफल पर दुनिया के लगभग 15 प्रतिशत पशु पाले जाते हैं। अनुपयोगी तथा कम उत्पादन वाले पशुओं की संख्या हमारे देश में अधिक है। अनुपयोगी पशुओं की संख्या ज्यादा होने के कारण उपयोगी पशुओं को आवश्यकतानुसार चारा, दाना तथा अन्य सुविधाओं की कमी हो जाती है। परिणामस्वरूप उनका उत्पादन कम हो जाता है। जनसंख्या का दबाव भूमि पर अधिक होने के कारण पशुओं के लिए हरे चारे व दाने की कमी होती जा रही है। इसलिए पशुपालकों को अनुपयोगी पशु नहीं रखने चाहिये। अशुद्ध नस्ल के सांडों को बधिया करवा देना चाहिए।

12. डेयरी को व्यवसाय के रूप में अपनाना

अधिकतर पशुपालक डेयरी धन्धे को एक व्यवसाय के रूप में न अपनाकर केवल सहायक धन्धे तक सीमित रखते हैं जिसके कारण डेयरी व्यवसाय ग्रामीण क्षेत्रों में विकसित नहीं हो सका है। य​दि पशुपालक डेयरी या दूध उत्पादन कार्य को व्यवसाय के रूप में अपनायें तो बेरोजगारी की समस्या का समाधान स्वत: ही हो सकता हैं। पशुपालन विभाग तथा डेयरी विकास की सभी योजनाओं को उत्पादन से मिलाकर व्यवसायिक आधार पर संचालन करवाने की जरूरत है। नौजवानों को इस ​दिशा में जागरूक करने की भी अत्यन्त आवश्यकता है।

निष्कर्ष

अनादि काल से पशुपालन भारतीय कृषि का एक अभिन्न अंग रहा है। यह अकाल जैसी खराब स्थिति में पशुपालकों के लिए अतिरिक्त सहायता और रीढ़ के रूप में कार्य करता है। पशुधन एकीकृत खेती को अपनाकर किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं। पशुधन पालन में उन्नति के लिए उपकरणों और प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता है। सहायक सरकार की नीति किसानों को पशुधन पालन के लिए आकर्षित कर सकती है। पशुपालकों को भी हर संभव लाभ प्राप्त करने के लिए सभी आवश्यक पहलुओं का पता लगाने की आवश्यकता है।

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