दुधारू पशुओं में गर्भावस्था के दौरान होने वाली समस्याएं एवं निदान

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मानव जीवन में दूध की महत्वपूर्ण भूमिका हैं क्योकि “दूध एक सम्पूर्ण आहार है” इसकी प्रतिपूर्ति हेतु गायों और भैसों का स्वस्थ्य होना नितांत आवश्यक हैं। गर्भावस्था के दौरान होने वाली कुछ समस्याएं जैसे गर्भपात, गर्भाशय की ऐंठन (टोर्सन), गर्भाशय ग्रीवा एवं योनि भ्रंश, बच्चे का सूख जाना (फीटल ममिफिकेसन), बच्चे का सड़ना (फीटल मेसरेसन), हाइड्रो एमनियोन एवं हाइड्रो एलनटोइस आदि प्रमुख हैं जोकि सफल डेरी व्यवसाय एवं इस दूध प्रतिपूर्ति में बाधक सिद्ध हो सकती हैं। इस परिपेक्ष के आधार पर पशुपालकों को इन समस्याओं एवं निदानों से अवगत होना अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, जो इस प्रकार हैं-

गर्भपात

मादा पशु के गर्भाशय से गर्भावस्था (गाय 9 माह 9 दिन एवं भैस 10 माह 10 दिन) पूर्ण करने से पूर्व ही जीवित अथवा मृत बच्चें को जन्म देना गर्भपात कहलाता हैं। पशु का ट्राईकोमोनियासिस, विब्रियासिस (कम्पाइलोबैक्टीरियासिस), आई.बी.आर., ब्रुसेलोसिस, लेप्टोस्पायरोसिस, लिस्टेरियोसिस, एस्पर्जिलोसिस आदि किसी भी बीमारी से संक्रमित होना, पोषक तत्वों की कमी, गर्भकाल के दौरान गलत दवाओं का उपयोग, किसी अन्य पशु, व्याक्ति अथवा वस्तु के द्वारा आघात पहुचना, किसी ऊँची-नीची जगह, चिकनी गीली फर्स पर फिसलकर गिरना तथा उष्मागत तनाव (तापघात) आदि प्रमुख कारण सम्भव हैं।

गर्भाशय की ऐंठन (टोर्सन)

गर्भित पशु में गर्भाशय का अपनी लम्बवत धुरी मे घूम जाने को गर्भाशय की ऐंठन कहते है। यह समस्या गर्भावस्था के दौरान कभी भी हो सकती है, परन्तु अंतिम 2 माह में इसकी संभवना अधिक होती है जो कठिन प्रसव की समस्या को जन्म देती हैं। यह समस्या गायों की तुलना मे भैसों मे ज्यादा देखने को मिलती हैं  इसका एक कारण भैसों का तालाब/कीचड़ में लोटना भी हैं। इस समस्या के होने पर पशु में चारा ना खाना, जुगाली ना करना, बुखार होना, पेट में दर्द होना, बार-बार उठना बैठना, जमीन पर लोटना, पेट पर लात मारना, प्रसव के लिए जोर लगाना तथा बैचेनी आदि लक्षण देखने को मिलते हैं। गाय व भैंस के गर्भाशय में दो हॉर्न होते हैं, परन्तु  बच्चा एक ही हॉर्न में पलता हैं, दूसरे की अपेक्षा यह हॉर्न भारी एवं अस्थिर हो जाता है। बच्चे का अधिक भार होना, बच्चे का गर्भाशय मे अधिक हलचल का होना, गर्भाशय मे पानी  कम होना, दूसरे पशु का अचानक धक्का मारना, गर्भाशय की परत का सिथिल पड़ना, पशु का प्रसव के समय बार बार उठना बैठना, गर्भावस्था के अंतिम महीनों में पशु को लम्बी यात्रा करना, पशु के बार-बार उठने बैठने से और पशु के अचानक गिरने, पशुओं के भोजन में पोषक तत्वों की कमी आदि इस समस्या के मुख्य कारण हैं। टोर्सन अत्यधिक पीड़ादायक समस्या हैं, समय पर उचित इलाज ना मिलने से पशु की मृत्यु भी हो सकती हैं।

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गर्भाशय ग्रीवा एवं योनि भ्रंश

मादा पशु के योनि मार्ग से योनि एवं गर्भाशय ग्रीवा का खिचकर बाहर आ जाना गर्भाशय ग्रीवा एवं योनि भ्रंश कहलाता हैं। प्रारम्भिक दशा में केवल पशु के बैठने पर ही योनि दिखाई देती हैं इसका इलाज ना होने की दशा में पशु के खड़े होने पर भी योनि दिखाई देती रहती हैं तत्पश्चात योनि के साथ-साथ गर्भाशय ग्रीवा भी बाहर निकल जाती हैं जो गोबर व मिट्टी आदि से गंदी हो जाती है साथ ही इस पर घाव इत्यादि भी हो जाते हैं। यह समस्या गर्भावस्था के 5-6 माह पर भी देखने को मिलती हैं, परन्तु अंतिम 2-3 माह में संभा वना अधिक प्रबल होती हैं। प्रथम बार गर्भित पशुओं की तुलना में कई बार बच्चे दे चुके पशुओं में यह समस्या अधिक पाई जाती है जिसके फलस्वरूप प्रसव के बाद बच्चेदानी का संक्रमण, जेर का अटकना, गर्भाशय एवं गर्भाशय ग्रीवा-योनि भ्रंश तथा दूध उत्पादन मे कमी इत्यादि होने का खतरा बढ़ जाता है। इस समस्या के संभावित कारण एस्ट्रोजेन हार्मोन का उच्च स्तर, कैल्शियम का निम्न स्तर, अंतर-पेट के दबाव में वृद्धि, वसा का अत्यधिक जमाव, खनिज तत्वों की कमी, वंशानुगत प्रवृति, भोजन में सूखे चारे की अधिक मात्रा तथा पेशाब की थैली मे सूजन आदि हैं।

बच्चे का सूख जाना (फीटल ममिफिकेसन)

गर्भाशय के अन्दर बच्चे का मरकर बिना सड़े सूखकर गर्भाशय की दीवार से चिपक जाना फीटल ममिफिकेसन कहते हैं। इसमे बच्चें की मृत्यु 3-8 माह के लगभग गर्भनाल की ऐंठन/दबने तथा संक्रामक बीमारियों  (कम्पाइलोबैक्टीरियासिस, लेप्टोस्पायरोसिस, बी.वी.डी. आदि) के संक्रमण के कारण भी हो सकती हैं, परन्तु बच्चें का गर्भपात नहीं हो पाता हैं क्योकि बच्चेदानी का मुहं पूर्ण रुप से बंद रहता हैं। गर्भकाल पूर्ण होने के बाद भी स्वत: बच्चा बाहर नहीं निकल पाता हैं। अनुभवी एवं प्रशिक्षित पशुचिकित्सक से मादा पशु के गुदा द्वार से परीक्षण करने पर कठोर सूखे बच्चें को स्पर्श करके इसका पता लगाया जा सकता हैं। इससे पशु की प्रजनन क्षमता ज्यादा प्रभावित नहीं होती हैं।         

बच्चे का सड़ना (फीटल मेसरेसन)

गर्भाशय के अन्दर बच्चे का मरकर सड़ना तथा हड्डियो का प्रथक हो जाना फीटल मेसरेसन कहलाता हैं। यह समस्या बच्चें की मृत्यु 4 माह के बाद कभी भी होने से होती है, परन्तु बच्चें का गर्भपात नहीं हो पाता हैं। बच्चेदानी का मुहं थोड़ा खुला रहता है जिससे संक्रामक सूक्ष्मजीव प्रवेश कर जाते है और सड़न पैदा करते हैं जिसके फलस्वरूप  योनि मार्ग से लाल रंग का बदबूदार द्रव्य का स्राव भी देखने को मिल सकता हैं। यह समस्या पशुओं की प्रजनन क्षमता को अत्याधिक प्रभावित करती हैं।

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हाइड्रो एमनियोन एवं हाइड्रो एलनटोइस

गर्भावस्था में बच्चा दो झिल्लियों/थैलियों (एमनियोटिक व एलनटोइक) से घिरा रहता हैं जिसमे द्रव्य भरा होता है जो बच्चे को सुरक्षा तथा प्रसव के समय चिकनाहट प्रदान करता हैं। एमनियोटिक थैली में आधी से अधिक गर्भवस्था पूर्ण करने के पश्चात् सामान्य (लगभग 5 ली.) से अधिक (20-100 ली.) द्रव्य भर जाना हाइड्रो एमनियोन कहलाता हैं। गर्भावस्था के दौरान एलनटोइस थैली में अचानक से 5-20 दिनों मे सामान्य (लगभग 9.5 ली.) से अधिक (80-150 ली.) द्रव्य भर जाना हाइड्रो एलनटोइस कहलाता हैं। इन समस्याओं में पशु का पेट का अकार बड़ा हो जाता हैं तथा पशु का अचानक पानी निकलने से पशु की मृत्यु भी हो सकती हैं। इनका संभावित कारण पोषक तत्वों की कमी, अपरा (प्लेसेंटा) व बच्चे का असामन्य होना हैं।

निदान

  • गर्भावस्था के समय पशु अपनी जरूरत से कम ही खा पाता है क्योंकि गर्भाशय का आकार अधिक होने से पेट पर दबाव पड़ता हैं, इसके लिये पशुओं को कई बार गुणवत्ता परक हरा चारा, सूखा चारा तथा दाने के निश्चित अनुपात के साथ रोजाना 50 ग्राम की दर से खनिज मिश्रण भी खिलाते रहें। खानें मे कोई भी परिवर्तन अचानक से न करें।
  • गर्भित पशु को अन्य पशुओं से अलग कच्ची, बराबर तथा साफ सुथरी जमीन पर रखें जहाँ पर समुचित छाया, सूर्य का प्रकाश, पर्याप्त मात्रा मे साफ और शीतल पीने तथा नहाने का पानी भी उपलब्ध हो। आवश्यता अनुसार पंखों तथा फवहारों का भी प्रबन्ध करें।
  • सर्दी तथा बरसात के दिनों मे चारे के भंडारण की समुचित व्यवस्था रखें, ताकि पशुओं को  पूरे साल भर संक्रमण रहित अच्छा चारा दाना पर्याप्त मात्रा में मिल सके।
  • मादा पशु का गर्भाधान सदैव ही गुणवत्ता परक वीर्य-प्रयोगशाला से उत्त्पादित वीर्य से ही करवायें। गर्भित पशु की नियमित जाँच करवाई जायें तथा संक्रमित पशुओं को स्वास्थ पशुओं से अलग रखा जायें साथ ही उनके मलवें, स्राव, भ्रूण, जेर इत्यादी को हाथों मे दास्तानें पहनकर जमीन मे दफन कर दें।
  • गर्भित पशु को तालाब/कीचड़ में ना जाने दें तथा यातायात से भी बचाएं।
  • जिन पशुओं को गर्भाशय ग्रीवा एवं योनि भ्रंश की समस्या हो तो उनके बाधने के स्थान को पीछे की तरफ से ऊँचा रखें तथा ऐसे पशुओं का उपयोग प्रजनन हेतु बिल्कुल भी ना करे जिनमे यह समस्या पुस्तेनी हों।
  • पंजीकृत पशु चिकित्सक की सलाह के बिना गर्भ ठहरने की दवा, नियमित टीकाकरण व कृमिनाशक एवं अन्य दवाएं कभी भी ना लगवाएं।
  • गर्भवस्था किसी भी पशु के जीवन का सबसे जोखिम भरा समय होता हैं इस दौरान उपरोक्त बताई गई व अन्य किसी भी समस्या के होने पर बिना किसी विलम्ब के अपने नजदीकी पंजीकृत पशु चिकित्सक से परामर्श ले तथा उचित उपचार करवाएं।
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इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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