पशुओं से मनुष्यों में होने वाले प्रमुख जूनोटिक रोग एवं उनसे बचाव

4.5
(36)

पशुओं से मनुष्यों में अथवा मनुष्यों से पशुओं में फैलने वाले रोगों को पशु जन्य रोग या जूनोटिक रोग कहते हैं। इस प्रकार के रोग सघन संपर्क, वायु, पशुओं के काटने से, कीटों के काटने आदि से फैलते हैं। यदि किसी प्रकार से इन रोगों के विषाणु का पशुओं से मनुष्य में संक्रमण रोक लिया जाए तो इस प्रकार की जूनोटिक बीमारियों की रोकथाम हो सकती है। पशुओं से मनुष्यों में होने वाले प्रमुख जूनोटिक रोग निम्न हैं:

रेबीज

रोग के लक्षण

तेज बुखार व पशुओं के मुंह से झाग दार लार आना। अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाना। पशु का शीघ्र ही दुर्बल हो जाना।

रोग के संक्रमण का कारण

यह बीमारी मुख्यत: पागल कुत्ते ,सियार ,नेवले एवं बंदर के काटने से लार द्वारा फैलती है। इन पशुओं की लार से रेबडो वायरस, नामक विषाणु से यह रोग फैलता है। यह अत्यंत घातक एवं लाइलाज बीमारी है। मनुष्यों में यह रोग किसी गर्म खून वाले रेबीज प्रभावित पशु के काटने से हो सकता है।

उपचार

इस बीमारी का पूरे विश्व में कोई इलाज नहीं है।

बचाव

रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सा अधिकारी से संपर्क करें। कुत्ता काटने पर 24 घंटे के अंदर रेबीज का टीकाकरण ही एकमात्र बचाव है। कुत्ते को रेबीज का टीका प्रतिवर्ष अवश्य लगवाएं।

जूनोटिक रोग

क्षय रोग/ ट्यूबरकुलोसिस

यह रोग माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस की कई प्रजातियों द्वारा फैलता है।

रोग के लक्षण

लंबे समय तक खांसी एवं सांस लेने में कठिनाई। भूख में कमी व हल्का बुखार (102 से 103 डिग्री फारेनहाइट)। कभी-कभी थनैला रोग की समस्या भी पाई जाती है।

रोग के संक्रमण का कारण

बीमार पशु व अन्य पशुओं का चारा पानी एक साथ होने से। यह बीमारी रोग से ग्रसित पशुओं की स्वास एवं कच्चा दूध सेवन करने से फैलती है।

रोग से बचाव

रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सक से संपर्क करें। बीमार पशुओं से अलग रखना एवं चारा पानी अलग रखना। यह सांस का एक संक्रामक रोग है परंतु इलाज से पूर्णतया ठीक हो जाता है। पशुओं की समय-समय पर टीबी की जांच कराएं। बीमार पशुओं को मेला हाट आदि स्थानों पर न ले जाएं। बीमारी से बचने के लिए दूध हमेशा अच्छी तरह उबालकर प्रयोग करें।

और देखें :  पशुओं में एसपाईरेट्री/ ड्रेंचिंग न्यूमोनिया: कारण एवं निवारण

ब्रूसेलोसिस या संक्रामक गर्भपात

यह पशुओं का एक संक्रामक रोग है जिसमें गाय भैंसों में गर्भपात एवं बांझपन की संभावना होती है। रोगी  पशु के संपर्क में आने या उसका कच्चा दूध पीने से रोग के जीवाणु मनुष्य में उतार-चढ़ाव (अंडूलेटिंग फीवर या माल्टा फीवर ) का रोग उत्पन्न कर सकते हैं।

रोग के लक्षण

तेज बुखार होना। अचानक वजन कम होना। प्रभावित पशुओं में गर्भावस्था के अंतिम त्रैमास में गर्भपात हो जाता है एवं जेर रुक जाती है, जिसके सड़ने से पशु की मृत्यु भी हो सकती है,एवं आगे की ब्यात में गर्भ न रुकना मुख्य समस्या होती है। पशु के जोड़ों में सूजन सी मालूम पड़ती है।

रोग के संक्रमण का कारण

यह रोग ब्रूसेला एबारटस नामक जीवाणु के द्वारा फैलता है। यह  बीमारी रोग से ग्रसित गर्भित पशुओं से मनुष्यों में फैलती है। बीमार पशु के साथ रहने से।  रोगी पशुओं के स्राव , मूत्र एवं दूध से मनुष्य में फैलती है।

रोग से बचाव

रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सक से संपर्क करें। 4 से 8 माह की बछिया या पड़िया के टीकाकरण से इस बीमारी से बचा जा सकता है। गर्भपात वाले पशुओं से महिलाओं एवं बच्चों को दूर रखें। प्रभावित पशुओं का दूध अच्छी तरह उबालकर प्रयोग करें। गर्भपात के बच्चे, जेर एवं, संपर्क में आई  सभी वस्तुओं को जलाकर  अथवा  गड्ढे में  गाड़ कर  ऊपर से चूना डालकर  दबा देना चाहिए। रोगी पशु के बाड़े को तथा जिस जगह पर गर्भपात  हुआ हो उस स्थान के फर्श को कीटाणुनाशक घोल जैसे फिनाइल से धोकर साफ करना चाहिए।

उपचार

इस रोग का कोई भी असरदार उपचार नहीं है अतः रोकथाम का पूरा ध्यान रखना चाहिए। जीवन में एक बार 4 से 8 माह की बछियों एवं पड़ियो को टीका लगवाएं संक्रामक गर्भपात से आजीवन छुटकारा पाएं।

और देखें :  पशुओं में होनें वाले मोतियाबिन्द एवं अन्धापन रोग और उससे बचाव

ग्लैंडर्स/ फारसी रोग

 यह रोग बरखोलडेरिया मैलियाई, नामक जीवाणु से होता है।

रोग के लक्षण

तेज बुखार वह धसका खांसी, होना और नाक के अंदर छाले और घाव दिखना। नाक से पीला श्राव आना और सांस लेने में तकलीफ होना। पैरों जोड़ो अंडकोष वह सब सबमैक्सिलेरी ग्रंथि में सूजन होना।

रोग के संक्रमण का कारण

बीमार पशु के साथ रहने एवं चारा पानी एक साथ होने से। बीमार पशु के मुंह व नाक से निकलने वाले शराव से। मनुष्यों में इस रोग के जीवाणु प्रभावित पशुओं के नाक के स्राव के संपर्क में आने से फैलते हैं। मनुष्यों में इस रोग से ग्रसित होने पर त्वचा पर घाव एवं घातक निमोनिया हो जाता है।

रोग से बचाव

रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सक से संपर्क करें। बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना एवं चारा पानी भी अलग रखें। अन्य पशु व मनुष्यों में यह बीमारी न फैले इसके लिए बीमार पशु को मानव से अलग रखना। बीमार पशुओं को मेला हॉट आदि स्थानों पर न ले जाएं।

विसंक्रमण

रोग की पुष्टि वाले पशुओं दर्द रहित मृत्यु देना। मृत पशु को 6 फुट गहरे गड्ढे में चूना एवं नमक डालकर दबाना। पशु के बिछावन एवं अन्य संपर्क की वस्तुओं को भी गड्ढे में दबा देना। पशु आवास को फिनायल क्यों ना आज डालकर भी संक्रमित करना। यह बीमारी पशुओं से मनुष्यों में भी फैलती है। पशु एवं  मनुष्य  मैं इस बीमारी का  कोई टीका अथवा इलाज नहीं है।  पशु निगरानी ही एकमात्र बचाव है।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।
और देखें :  सामाजिक जीवन पर कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव, रोकथाम एवं नियंत्रण

यह लेख कितना उपयोगी था?

इस लेख की समीक्षा करने के लिए स्टार पर क्लिक करें!

औसत रेटिंग 4.5 ⭐ (36 Review)

अब तक कोई समीक्षा नहीं! इस लेख की समीक्षा करने वाले पहले व्यक्ति बनें।

हमें खेद है कि यह लेख आपके लिए उपयोगी नहीं थी!

कृपया हमें इस लेख में सुधार करने में मदद करें!

हमें बताएं कि हम इस लेख को कैसे सुधार सकते हैं?

Authors

1 Trackback / Pingback

  1. सालमोनेलोसिस एक पशुजन्य बीमारी: कारण, उपचार एवं नियंत्रण | ई-पशुपालन

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*