भारतवर्ष में वातावरण का तापमान अनोखा है जहाँ उष्णकटिबंधीय दक्षिण भारत में अच्छी वर्षा होती है तो उत्तरी भारत के पहाड़ी क्षेत्र बर्फ की चादर में लिपटे रहते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी भारत वर्ष के ज्यादातर महीनों में गर्मी की चपेट में रहता है। इस प्रकार देखा जाए तो भारतवर्ष में मौसम पशुधन को साल में कई बार प्रभावित करता है। अत्यधिक गर्मी के कारण तापघात की स्थिति निर्मित होती है। प्रतिवर्ष मार्च से जून के महीने के दौरान भारत के अधिकांश भागों में उच्च वातावर्णीय तापमान होने के कारण मानव एवं पशुधन उष्मीय तनाव से प्रभावित होते हैं। उष्मीय तनाव (सनबर्न, सन स्ट्रोक, हीट स्ट्रोक) को सामान्य भाषा में तापघात या लू लगना भी कहते हैं।
जब पर्यायवरणीय तापमान उदासीन/सुविधा क्षेत्र (थर्मोन्यूट्रल जोन) से कम या ज्यादा हो जाता है, तब दुधारू पशु सर्दी या गर्मी का अनुभव करने लगता है। उष्मीय तनाव के दौरान दुधारू पशु शरीर का तापमान बनाये रखने के लिए ऊर्जा का उपयोग करते हैं जिस कारण दुधारू पशु को दुग्ध उतपादन के लिए कम ऊर्जा ही मिल पाती है। उदासीन तापमान वातावरण के तापमान की वह सीमा है जिसमें शरीर अपने तापमान को बनाए रखता है व शरीर में गर्मी उत्पादन इसका आधार है। उदासीन तापमान की सीमा को निम्न से उच्च महत्त्वपूर्ण स्थिति के बीच श्रेणीबद्ध किया जाता है।
- निम्न महत्त्वपूर्ण तापमान (लोअर क्रिटिकल टेम्पेरेचर) वातावरण का वह तापमान है जिसमें पशु अपने शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए चपापचय (मेटाबोलिक) ऊर्जा को बढ़ाता है।
- इसके विपरीत उच्च महत्त्वपूर्ण तापमान (अपर लोअर क्रिटिकल टेम्पेरेचर) वातावरण का वह तापमान है जिसमें पशु अपने शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए शरीर से वाष्पीकरण बढ़ाने के लिए शरीर में उष्मा पैदा करता है, जिससे शारीरिक तापमान बढ़ जाता है। यह तापमान वह बिंदु है जिस पर प्रभावित पशुओं में उष्मीय तनाव का प्रभाव शुरू होता है (Chase 2006)।
तापमान–आर्द्रता सूचकांक
तापमान–आर्द्रता सूचकांक उष्मीय जलवायु की परिस्थितियों का एक संकेतक के रूप में किया जा सकता है। इसको सापेक्ष आर्द्रता (रिलेटिव ह्यूमिडिटी) और वातावरण के तापमान की सहायता से निम्न सूत्र के अनुसार एक विशेष दिन के लिए जांचा जा सकता है (McDowell et al. 1976।
तापमान–आर्द्रता सूचकांक = 0.72(W+D)+40.6
W – तापमापी के गीले बल्ब का तापमान (डिग्री सेल्सियस में)
D – तापमापी के शुष्क बल्ब का तापमान (डिग्री सेल्सियस में)
फारेनहाइट से सेल्सियस (°F − 32) × 5/9 = °C
सेल्सियस से फारेनहाइट (°C × 9/5) + 32 = °F |
≤70°F | आरामदायक |
70–78°F | तनावपूर्ण | |
≥78°F | अत्यधिक तापघात | |
स्त्रोत: NRC 1971 |
बढ़ते तापमान के साथ जैसे ही सापेक्ष आर्द्रता बढ़ती है, तो पशु के शरीर में उष्मा को कम करना मुश्किल हो जाती है। तापमान–आर्द्रता सूचकांक का मान 70°F (या इससे कम) पशुओं के लिए आरामदायक माना जाता है। यदि यह मान 75°F – 78°F होता है तो तनावपूर्ण माना जाता है। यदि इसका मान 78°F से ज्यादा होता है तो पशुओं को अत्यधिक तनाव होता है (Yadav et al. 2019)।
तापमान–आर्द्रता सूचकांक (THI) का गायों एवं भैसों में अंतर
तापमान–आर्द्रता सूचकांक | तनाव का स्तर | गायों में लक्षण | भैसों में लक्षण |
<72 | नहीं | सबसे अच्छी उत्पादक और प्रजनन क्षमता। | सबसे अच्छी उत्पादक और प्रजनन क्षमता। |
72-78 | हल्का | छाया की तलाश, श्वसन दर में वृद्धि और रक्त वाहिकाओं का फैलाव | मलाशय के तापमान और श्वसन दर में वृद्धि। |
79-88 | मध्यम | श्वसन दर और लार के स्राव में वृद्धि। आहारीय सेवन में कमी और पानी की खपत में बढ़ोतरी। शरीर का तापमान बढ़ जाता है और प्रजनन क्षमता प्रभावित होते हैं। | श्वसन दर में काफी वृद्धि। आहार के शुष्क पदार्थ के सेवन में कमी और हरा चारा एवं दाना मिश्रण के अनुपात में कमी। पानी का सेवन काफी बढ़ जाता है। |
89-98 | गंभीर | श्वसन दर और अत्यधिक लार उत्पादन में तेजी से वृद्धि। प्रजनन क्षमता में काफी कमी हो जाती है। | बहुत ज्यादा हांफना और बेचैनी होना, प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव के साथ-साथ मूत्र उत्सर्जन में कमी। |
>98 | घातक | उष्मीय तनाव चरम पर और पशु की मृत्यु भी हो सकती है। | उष्मीय तनाव चरम पर और पशु की मृत्यु भी हो सकती है। |
स्त्रोत: Armstrong 1994; Dash et al. 2016 |
भारत के अधिकतर क्षेत्रों का तापमान तो 104°F (40°C) से भी ऊपर चला जाता है जिस कारण क्षेत्रों में तापघात से सबसे अधिक पशुधन प्रभावित होता है।
उष्मीय तनाव के शारीरिक प्रभाव
पाचन तन्त्र में एसिड–बेस, हॉर्मोन, आहारीय सेवन में कमी व अन्य कई प्रकार के परिवर्तन आते हैं। तापमान संवेदनशील न्यूरॉन पशु के सारे में शरीर में फैले होते हैं जो हाईपोथैलामस ग्रंथि को संदेश भेजते हैं जो संतुलन बनाने के लिए शारीरिक, सरंचनात्मक व व्यवहारिक बदलाव पशु के शरीर में उत्पन्न करते हैं। उष्मीय तनाव के समय पशु का खाना कम हो जाता है। उसकी गतिविधि कम हो जाती है व वह छाया व ठण्डी हवा की ओर अग्रसर होता है। इस दौरान उसकी श्वास दर बढ़ जाती है व चमड़ी में रक्त प्रवाह व पसीना बढ़ जाता है। इन सभी प्रतिक्रियाओं से पशु की उत्पादन व शारीरिक क्षमता कम हो जाती है।
1. शरीर का तापमान बढ़ना: जैसे ही वातावरण का तापमान बढ़ता है तो पशु अपने शरीर का तापमान कम करने में असमर्थ हो जाता है जिससे उसके साथ शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
2. स्वभाव एवं कम आराम: पशुओं के शरीर का तापमान बढ़ने की स्थिति में उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के साथ–साथ स्वभाव में बेचैनी होने से उनके खानपान में कमी होती है (Brown-Brandl et al. 2006)। तापमान बढ़ने पर पशु खड़े और बेचैन रहते हैं जिससे उनको आराम भी कम मिलता है।
3. लंगड़ापनः पशुओं में लंगड़े होने के कई अन्य कारण जैसे कि आहार में शर्करायुक्त खाद्य सामग्री की अधिकता, जमीन गीली होना, फर्श पशुओं के अनुकूल न होना, खुरों में चोट लगना आदि हो सकते हैं लेकिन व्यवहार परिवर्तन सामान्य रूप से गर्मियों के आखिरी महीनों में होने वाली प्रचंड गर्मी के दौरान पशुओं के चलने–फिरने के स्कोर में बदलाव के साथ जुड़ा हुआ है। ज्यादा समय तक खड़े रहने से उनके खुरों में जख्म बन जाते हैं (Cook et al. 2007) और ऐसे पशु खासतौर से अग्रिम गर्भावस्था के के दौरान ज्यादा समय तक खड़े रह कर ही व्यतीत करते हैं। बैठने के बाद ऐसे पशु अपनी अगली दोनों टांगों को सामने की ओर निकाल कर बैठते हैं। ऐसे पशु पेट भरने के लिए अन्य पशुओं की तुलना में तेजी से चारा खाते हैं (Olechnowicz & Jaskowski 2011)। पशुओं की गति चालन का आंकलन (लोकोमोशन स्कोर) इस प्रकार किया जाता है (Sprecher et al. 1997)
स्कोर 1 – सामान्य : खड़ा होना व चाल सामान्य, पशु आत्म – विश्वासपूर्ण लंबे कदम भरता है।
स्कोर 2 – बहुत हल्का सा लंगड़ापन: पशु सामान्य खड़ा होता है लेकिन जब चलता है तो पीठ थोड़ी मुड़ जाती है। चाल थोड़ी असामान्य होती है।
स्कोर 3 – हल्का सा लंगड़ापन: पशु खड़ा होते व चलते है समय पीठ को झुकाता है। पशु छोटे कदम भरता है।
स्कोर 4 – लंगड़ापन: पशु खड़ा होते व चलते समय पीठ को झुकाता है। चलते समय प्रभावित टांग से दूसरी ओर की टांग के टखने जमीन को छूते हैं।
स्कोर 5 – बहुत ज्यादा लंगड़ापन: पशु खड़ा होते व चलते समय पीठ को बहुत ज्यादा झुकाता है। चलते समय प्रभावित पशु चलने में असमर्थ होता है।
4. आहारीय सेवन में कमी: शरीर का तापमान बढ़ने पर पशु का आहारीय सेवन भी कम होने लगता है।
5. श्वसन दर में वृद्धि: जैसे-जैसे वातावरण का तापमान बढ़ता है तो उसी अनुरूप में शरीर का तापमान भी बढ़ता जिसे नियंत्रित करने के लिए पशु की श्वसन दर 70–80 प्रति मिनट से अधिक हो जाती है और जैसे–जैसे गर्मी बढ़ती है तो वह हाँफना शुरू कर देता है। पशु के हाँफने के संकेत से उष्मीय तनाव के स्तर का पता लगाया जा सकता है। पशु के हाँफने का आंकलन उसकी श्वसन दर प्रति मिनट गिनती करके किया जाता है जिसका स्कोर कभी भी 2 से ज्यादा नहीं होना चाहिए (Mader et al. 2006, रा.डे.वि.बो.)।
श्वसन दर प्रति मिनट | पशु की अवस्था | हाँफने का स्कोर |
40 से कम | सामान्य | 0.0 |
40 – 70 | हल्का हाँकना, लार नहीं गिरती और शरीर में हलचल नहीं होती है। | 1.0 |
70 – 120 | तेजी से हाँफना, लार गिरती है लेकिन पशु का मुँह बंद रहता है। | 2.0 |
70 – 120 | पशु तेजी से हाँफता है, उसके मुँह से लार गिरती रहती है, उसका मुँह भी खुला रहता है लेकिन उसकी जीभ बाहर नहीं निकलती है। | 2.5 |
120 – 160 | पशु का मुँह खुला रहता है, उसके मुँह से लार गिरती रहती है लेकिन वह जीभ बाहर नहीं निकालता है लेकिन वह गर्दन लंबी तथा सिर ऊपर उठाकर रखता है। | 3.0 |
120 – 160 | पशु का मुँह खुला रहता है, उसके मुँह से लार गिरती रहती है, उसकी जीभ कुछ बाहर निकली रहती है जो कभी–कभी पूरी बाहर निकल जाती है, वह गर्दन लंबी तथा सिर ऊपर उठाकर रखता है। | 3.5 |
160 से ज्यादा | तापघात से पीड़ित पशु का मुँह खुला रहता है, उसकी जीभ लंबे समय तक पूरी बाहर निकली रहती है और उसके मुँह से बहुत अधिक लार बहती रहती है। | 4.0 |
यदि गर्मी के मौसम में पशु की श्वसन दर 70 से 120 और पशु मुँह खोल कर तेजी से हाँफने लगता है जिससे उसके मुँह से लार गिरने लगती है लेकिन उसकी जीभ बाहर नहीं निकलती है तो ऐसी स्थिति में तापघातरोधी प्रबंधन के उपाय शुरू कर देने चाहिए।
6. शारीरिक यथास्थिति: जैसे–जैसे वातावरण का तापमान बढ़ता है तो पशुओं की शारीरिक यथास्थिति में बदलाव आने लगता है। वातावरण के तापमान बढ़ने से तापघात की अलग–अलग अवस्था में अलग–अलग लक्षण दिखायी देते हैं। अतः शारीरिक यथास्थिति अनुसार पशुओं में तापघात के चरणों का आंकलन इस प्रकार भी किया जाता है (Mader et al. 2006):
तापघात के लक्षण | चरणावस्था |
तापघात का कोई लक्षण नहीं। | सामान्य |
श्वसन दर में वृद्धि, बेचैनी, ज्यादा समय तक खड़ा रहना। | प्रथम चरणावस्था |
श्वसन दर में वृद्धि, मुँह से हल्की लार बहना, ज्यादातर पशु खड़े और बेचैन रहते हैं, पीड़ित पशु समूह बनाकर खड़े हो सकते हैं। | द्वितीय चरणावस्था |
श्वसन दर में वृद्धि, मुँह से ज्यादा लार बहना और मुँह में झाग बनना, ज्यादातर पशु खड़े और बेचैन रहते हैं, पीड़ित पशु समूह बनाकर खड़े हो सकते हैं। | तृतीय चरणावस्था |
श्वसन दर में वृद्धि, मुँह खोल कर सांस लेना, मुँह से लार बहना, ज्यादातर पशु खड़े और बेचैन रहते हैं, पशु समूह बनाकर खड़े हो सकते हैं। | चतुर्थ चरणावस्था |
कोख को दबाकर तेज श्वसन दर, मुँह खोल जीभ बाहर निकाल कर सांस लेना, मुँह से अधिक लार बहना, पशु समूह बनाकर खड़े हो सकते हैं। | पंचम चरणावस्था |
मुँह खोल जीभ बाहर निकाल कर सांस लेना, सांस लेने में कठिनाई होती है, और श्वसन दर घट सकती है, कोख को दबाकर तेज श्वसन दर, सिर नीचे करना, मुँह से लार बहना आवश्यक नहीं, पीड़ित पशु का अन्य पशुओं से अलग होना। | षशट्म चरणावस्था |
यदि पशुओं में द्वितीय चरणावस्था के लक्षण दिखायी देते हैं तो तापघातरोधी व्यवस्था की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।
7. चपापचय प्रतिक्रिया (मेटाबोलिक रिस्पोंस): उष्मीय तनाव के कारण पीड़ित पशु का लगभग 30 प्रतिशत आहार लेना कम हो जाता है (Rachet & Mazzia 2008)। उष्मीय तनाव के तहत चपापचय क्रिया कम हो जाती है जो थायरायड हार्मोन स्राव व आंत गतिशिलता में कमी करती है परिणामस्वरूप पेट भरने के समय में वृद्धि हो जाती है। जैसे–जैसे तापमान बढ़ता है (35°C), प्लाज्मा एवं हार्मोन की सान्द्रता व स्राव दर में कमी हो जाती है। विशिष्टतौर पर उष्मीय तनाव से ग्रसित पशुओं में रूमेन पीएच में कमी आ जाती है।
8. इलेक्ट्रोलाइट्स में कमी: उष्मीय तनाव के दौरान शरीर में इलैक्ट्रोलाइट (सोडियम, पोटाशियम व क्लोराइड) एवं बाइकार्बोनेट में मुख्य बदलाव आते हैं। ऐसा श्वसन दर बढ़ने के कारण होता है। यह एसिड–बेस बेलैंस को शिफ्ट कर सकता है जिसके परिणामस्वरूप मेटाबोलिक अल्कलोसिस हो सकता है। पोषक तत्वों के अवशोषण की दक्षता में भी कमी हो सकती है (Chase 2006)। पशु आहार के इलेक्ट्रोलाइट संतुलन पर उष्मीय तनाव का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
- पशु की भूख कम हो जाती है। पशु को बदहजमी हो जाती है व आंतों में स्थिलता आ जाती है।
- दुग्ध उत्पादन में कमी – 35 डिग्री सेल्सियस पर 33 प्रतिशत व 50 डिग्री सेल्सियस पर लगभग 50 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाती है।
- दूध की गुणवत्ता में कमी – वसा व प्रोटीन में गिरावट
- शरीर के भार में कमी
- दुग्ध ज्वर बढ़ने की संभावना
- गर्भाश्य–शोथ (मेट्राइटिस), गर्भाशय भ्रंश (प्रोलेप्स) एवं गर्भाश्य संक्रमण में बढ़ोतरी
- दुग्ध ग्रंथि शोफ (अडर इडिमा) व दुग्ध ग्रंथि में संक्रमण का बढ़ना
- सुम शोथ (लेमिनाइटिस) होना
- किटोशिश – रक्त अम्लता का बार–बार होना
- प्रजनन क्षमता कम होना – गर्भाधान सफलता में कमी, भ्रूण मृत्युदर में बढ़ोतरी
- असामयिक प्रसव (प्रिमेच्योर बर्थ)
- विकासशील पशुओं की विकास दर में कमी
- पानी के सेवन में वृद्धि
- पशु आहार में पोषक तत्वों की कमी
9. प्रजनन पर प्रभाव: उच्च उष्मीय तनाव के दौरान दुधारू पशुओं की प्रजनन क्षमता में कमी आ जाती है (Chase 2006)। गर्मियों में दुधारू पशुओं के मद (एस्ट्रस) की अवधि व तीव्रता, गर्भधारण, गर्भाशय व अण्डाशय की क्रियाओं गर्भस्थ शिशु के विकास में कमी हो जाती है। उच्च उष्मीय तनाव के कारण भ्रूण मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी होने से गर्भपात की प्रबल संभावना हो जाती है। नर पशुओं की भी प्रजनन क्षमता में कमी आ जाती है। तापमान–आर्द्रता सूचकांक बढ़ने पर पशुओं में गर्भधारण क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। 0 एवं 85.0 तापमान–आर्द्रता सूचकांक पर क्रमशः 16.4 एवं 20.1 प्रतिशत गर्भधारण क्षमता कम हो जाती है (El-Tarabany & El-Tarabany 2015)। उच्च उष्मीय तनाव के समय गाभिन पशुओं में गर्भाश्य के रक्त प्रवाह में कमी आ जाती है जिससे भ्रूण की विकास वृद्धि रूक जाती है। इस दौरान गर्भ में पल रहे बच्चे की विकास दर जन्मोप्रान्त भी कम रहती है (Tao & Dahl 2013)।
10. दुग्ध उत्पादन पर प्रभाव: तापमान–आर्द्रता सूचकांक बढ़ने पर पशु के शरीर का तापमान भी बढ़ता है जिससे उसकी चारा खाने की क्षमता कम हो जाती है और साथ ही चारे में मौजूद तत्व भी शरीर में कम अवशोषित होते हैं (Baumgard & Rhoads 2007)। यदि तापमान–आर्द्रता सूचकांक मान 72 से अधिक होता है तो दूधारू पशु का दुग्ध उत्पादन उष्मीय तनाव से प्रभावित होता है (Du Preez et al. 1990) और प्रति डिग्री सूचकांक बढ़ने पर 0.2 किलोग्राम दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है (Ravagnolo & Misztal 2000)।
11. विकास दर में कमी: ओसर बछडि़यों (हिफर्ज) में चपापचय के दौरान कम ऊष्मा पैदा होती है। उष्मीय तनाव के समय उनको भूख कम लगती है जिससे खाने में कमी से उनके विकास में भी कमी आ जाती है। इसलिए उच्च तापमान वाले स्थानों पर ओसर बछडि़याँ का पालना महँगा पड़ता है।
12. रोग प्रतिरोधक क्षमता: छोटे बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। उच्च उष्मीय तनाव में ब्याने वाली मादाओं के खीस में रोगप्रतिरोधकता उत्पन्न करने वाले इम्यूनाग्लोब्यूनिल कम होते हैं जिस कारण बच्चों में भी रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती है (Tao & Dahl 2013)।
बाधित ऊर्जा संतुलन (Disrupted Energy Balance)
गौजातीय पशुओं में शरीर के तापमान को बनाए रखने के दो तरीके हैं:
1. शारीरिक ऊष्मा को बचाना: शारीरिक ऊष्मा को वाष्पीकरण के माध्यम से बचाया जाता है जिसमें चमड़ी की ऊपरी सतह में रक्त प्रवाह का बढ़ना, हाँफना, लार का गिरना इत्यादि शामिल हैं। इन गतिविधियों में पशु के रखरखाव के लिए लगभग 20 प्रतिशत ऊर्जा की जरूरत बढ़ जाती है। दुधारू पशुओं में उत्पादित ऊर्जा (Production energy) शारीरिक ऊर्जा (Thermal Energy) को नियन्त्रित करने में इस्तेमाल की जाती है।
2. कम शारीरिक ऊष्मा उत्पन्न करना: पशु की गतिविधियाँ कम हो जाती है व उसके खाने में परिवर्तन हो जाता है जिससे उसके शरीर में कम ऊष्मा पैदा होती है। वास्तव में दुधारू पशु के रूमेन में किण्वण होने से ऊष्मा बढ़ जाती है। पशु का 10 से 30 प्रतिशत तक आहारीय सूखा पदार्थ कम हो जाता है। इसके अलावा रूमेन की गतिशीलता, जिससे ऊष्मा भी पैदा होती है, कम हो जाती है। पशु दिन के समय कम व रात को ठण्डे समय में ज्यादा, लेकिन ऐसा खाना जिससे कम ऊष्मा पैदा होती है जैसे कि अनाज व प्रोटीन के स्रोत, पसन्द करता है।
तरलीय चपापचय (Watery Metabolism)
दुधारू पशुओं के शरीर में 75–81 प्रतिशत पानी होता है। तापमान सबसे महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है जो दुधारू पशुओं में पानी पीने की मात्रा को नियन्त्रित करता है। उष्मीय तनाव एक साथ दोनों ऊर्जा व जल चपापचय को प्रभावित करता है। उष्मीय तनाव के दौरान पशु ज्यादा पानी पीता है। शरीर से पानी कम होना एक सतत प्रक्रिया है जो लगातार शरीर में घटित होती रहती है व यह प्रक्रिया उष्मीय तनाव के समय अतिरिक्त वाष्पीकरण के कारण बढ़ जाती है।
अम्लता बढ़ने का खतरा
उष्मीय तनाव के समय अम्लता बढने का खतरा रहता है। निम्न कारकों से रूमेन की अम्लता बढ़ती है:
- सूखा पदार्थ ज्यादा व हरा चारा कम खाना
- ज्यादा मात्रा में कार्बोहाईड्रेट जैसे कि अनाज खाने से।
- कम जुगाली करने से।
- रूमेन में लार (जो कि बाइकार्बोनेट का अच्छा स्रोत है) कम जाने से।
- हाँफने से (कार्बन डाईऑक्साईड की शरीर से हानि होती है)
- रूमेन की पीएच कम होने से रेशेदार चारे (fibrous) का पाचन कम हो जाता है।
उष्मीय तनाव का आर्थिक प्रभाव
हालांकि, उष्मीय तनाव से होने वाले आर्थिक नुकसान का सही-सही अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल है लेकिन जैसे ही तापमान–आर्द्रता सूचकांक 72 से ऊपर जाता है तो प्रति डिग्री तापमान–आर्द्रता सूचकांक बढ़ने पर दुग्ध उत्पादन 0.2 किलोग्राम कम हो जाता है। उष्मीय तनाव गायों–भैसों में कम प्रजनन क्षमता के साथ भी जुड़ा हुआ है। शोधों में पाया गया है कि 70 से ऊपर तापमान–आर्द्रता सूचकांक में प्रत्येक इकाई की वृद्धि के लिए गर्भाधान दर 4.6 प्रतिशत कम हो जाती है (Krishnan 2020)। पशुधन में उष्मीय तनाव तनाव के कारण भारी आर्थिक नुकसान होता है। भारत में, गायों और भैंसों में उष्मीय तनाव के कारण प्रति वर्ष 1.8 मिलियन टन दूध का नुकसान होता है, जो लगभग 2661 करोड़ रुपये का है (Upadhay 2010)।
सामान्य शारीरिक तापमान
आदर्श रूप में, पशु का शारीरिक तापमान सुबह जल्दी या देर शाम/रात के समय लिया जाता है जो सामान्यतः 38 से 39 डिग्री सेल्सियस (101.51 डिग्री फारेनहाइट) के बीच होना चाहिए। शरीर का उच्च तापमान (बुखार), तेज श्वसन दर, कंपकपी, दस्त (कभी–कभी), कान, सींग और पैर छूने पर ठण्डे जबकि शरीर बहुत गर्म होना इत्यादि ‘संक्रमण’, ‘तापघात’ या ‘अति–उत्तेजना’ को इंगित करता है। यदि शारीरिक तापमान सामान्य से कम होता है तो इसे अल्प तपावस्था कहते हैं जो आमतौर पर कैल्शियम की कमी, गंभीर संक्रमण, विषाक्तता या अत्यधिक ठण्डे मौमस में देखने को मिलता है।
उष्मीय तनाव के लक्षण
पाचन तन्त्र में एसिड–बेस, हॉर्मोन, खुराक में कमी व अन्य कई प्रकार के परिवर्तन आते हैं। तापमान संवेदनशील तन्त्रिका तन्तु (Neurons) पशु के सारे में शरीर में फैले होते हैं जो हाईपोथैलामस ग्रंथि को संदेश भेजते हैं जो संतुलन बनाने के लिए शारीरिक, सरंचनात्मक व व्यवहारिक बदलाव पशु के शरीर में उत्पन्न करते हैं।
उष्मीय तनाव से प्रभावित पशु के शरीर का तापमान (106 – 107 डिग्री सेल्सियस) बढ़ जाता है और वह बेचैन हो जाता हैं जो किसी भी प्रकार की छाया के नीचे या पानी के स्रोत के पास इक्कट्ठा होना शुरू हो जाते हैं। इसके साथ पशु सुस्त हो जाते हैं, पीड़ित पशु सुस्त होने होने के साथ–साथ उनकी गतिविधि भी कम हो जाती है। आमाश्य व आंतों की गतिशीलता में कमी में होने पर उनके आहारीय सेवन में भी कमी देखने को मिलती है। उच्च शारीरिक तापमान होने पर पशु हाँफने लगता है जिससे उसके मुँह से ज्यादा मात्रा में लार बहने लगती है। इसके साथ ही श्वसन दर बढ़ जाती है और मुँह खुला करके एवं जीभ निकाल कर सांस लेने लगता है। कई बार मुँह से झाग भी निकलने लगती है। ऐसी परिस्थिति में रक्त की अम्लीयता कम होने से पशु की हालात गंभीर हो जाती है।
उष्मीय तनाव से ग्रसित पशु की नाड़ी एवं हृदय गति बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में पशु की अचानक ही मृत्यु भी हो सकती है। आमतौर पर गौपशुओं को पसीना नहीं आता है लेकिन उष्मीय तनाव से प्रभावित पशु की चमड़ी से पसीना आना शुरू हो जाता है। पशुओं के शरीर से पानी की मात्रा कम होने से निर्जलीकरण की स्थिती उत्पन्न हो जाती है। निर्जलीकरण के कारण चमड़ी एवं बालों में सूखापन आ जाता है और आँखें धंस जाती हैं। मूत्र उत्सर्जन की मात्रा कम होता है और उसके नथुने भी सूख जाते हैं। धूप में पशुओं को बांधने से उनकी चमड़ी जल जाती है। अचानक ही उष्मीय तनाव से ग्रसित पशु का दुग्ध उत्पादन बहुत कम हो जाता है।
उष्मीय तनाव से ग्रसित पशु में सामान्य कमजोरी देखने को मिलती है। पशु सुस्त हो जाता है और खड़ा होने में परेशानी के कारण वह लकवाग्रस्त हो सकता है। ऐसे पशुओं में दौरे (convulsions) भी पड़ सकते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है।
उष्मीय तनाव को कम करने के उपाय
उष्मीय तनाव को दो प्रकार की प्रबंधन पद्धतियों से सुधारा जा सकता है: शारीरिक सुरक्षा व पशु के आहार में बदलाव
पशु की शारीरिक सुरक्षा
पशुपालक अपने पशुओं को उष्मीय तनाव से बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं:
- प्राकृतिक छाया: वृक्षों की छाया एक उत्कृष्ट प्राकृतिक स्रोत है। छायादार पेड़ गर्मी के मौसम में उष्मीय तनाव से राहत पाने के लिए सबसे अच्छे स्त्रोत हैं (Jones & Stallings 1999)। हालांकि वृक्ष सौर विकिरण के प्रभावी अवरोधक तो नहीं हैं लेकिन वृक्षों की पत्तियों की सतह से नमी के वाष्पीकरण से आसपास के वातावरण में ठण्डक रहती है।
- कृत्रिम छाया: सौर विकिरण उष्मीय तनाव का एक प्रमुख कारक है। सौर विकिरण के बुरे प्रभावों से बचाने के लिए यदि उचित कृत्रिम छाया दुधारू पशुओं को मुहैया करायी जाए तो उनके दुग्ध उत्पादन में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी होती है। कृत्रिम छाया के लिए दो विकल्प हैं – स्थायी व सुवाह्य/अस्थायी (Portable) छाया सरंचनाएं।
- स्थायी कृत्रिम सरंचना: स्थायी कृत्रिम सरंचना (जैसे कि दिशा–निर्धारण, फर्श का क्षेत्रफल, पशुशाला की ऊँचाई, पशुशाला का हवादार होना, छत की बनावट, पशु के खान–पान की सुविधा, अपशिष्ट प्रबंधन आदि) वातावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। गर्म–आर्द्र मौसम में पूर्व–पश्चिम अक्ष की सीध में बनी पशुशाला में पशु बांधने की दिशा में पशुओं को ज्यादा पसंदीदा परिस्थिति है। इसमें भी उत्तर दिशा में पशुओं रखना ज्यादा ठीक है। गर्मी के वातावरण में पशुओं को ज्यादा (दोगुना) स्थान प्रदान करना चाहिए। स्थायी सरंचना के अन्तर्गत प्राकृतिक हवा का आवागमन सरंचना की ऊँचाई व चौड़ाई, छत की ढलान, रिज (ridge) में खुला स्थान आदि प्रभावित करते हैं। धातु की छतों को बाहर से सफेद रंग से रंगना व उनके नीचे अवरोधक लगाकर सौर विकिरणों को कम किया जा सकता है।
- सुवाह्य (अस्थायी) पशुशाला: सुवाह्य (अस्थायी) पशुशाला कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करती हैं क्योंकि इनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसको तैयार करने के लिए कपड़े व हल्की छत का इस्तेमाल किया जाता है।
- परिवेशीय वायु के तापमान को कम करने से ठण्डक प्रदान करना: सूक्ष्म वातावरण की हवा के तापमान को प्रशितक की सहायता से ठण्डा किया जा सकता है लेकिन इस तरह से ठण्डक खर्चीली व अव्यवहारिक होती है। पशुगृह को वाष्पीकरणीय शीतलन प्रणाली की सहायता से ठण्डा किया जा सकता है जिसमें शीतलन पैड व पंखे का उपयोग किया जाता है। यह आर्थिकतौर से व्यवहारिक विधि है।
- पानी की बारीक फुहार पैदा करने का उपकरण (Fine mist injection apparatus): यह पशुगृह को ठण्डा करने की आधुनिक प्रणाली है जिसमें उच्च दबाव से पानी को पशुगृह में उपकरण (पंखे) की सहायता से बारीक फुहार के रूप में छिड़का जाता है। यह विधि शुष्क मौसम में कारगर है। इस प्रणाली में पानी उच्च दबाव के कारण बहुत छोटी–छोटी बारीक बूंदों में पशुगुह में धुंध के रूप में बनकर ठण्डक पैदा करते हैं।
- पानी की सहायता से पशुगृह में कोहरा बनाना (Misters): इससे बनने वाली पानी की बूँदों का आकार धुंध के कणों से थोड़ा बड़ा होता है। यह प्रणाली नमी वाले वातावरण में ज्यादा कारगर नहीं होती। नमी के मौसम में हवा में नमी होने के कारण बूँदों का आकार बड़ा होने से पानी की बूँदें वातावरण में फैलने की बजाय पशुगृह के फर्श पर गिरती हैं व उस जगह व आहार को भी गीला करती हैं जिससे आहार में फफूंद उगने से विषाक्तता का खतरा बढ़ जाता है।
- पशु के कुदरती तन्त्र द्वारा ऊष्मा कम करना: गर्म और उमस भरे मौसम में पशुओं को छाया प्रदान करना, त्वचा को गीला करना और पशुगृह में हवा के बहाव को तेज करना इत्यादि से पशु के शरीर से वाष्पीकरण की सहायता से ऊष्मा को कम किया जा सकता है।
- पानी छिड़काव व पंखा प्रशितलन प्रणाली: इस विधि में पानी की बड़ी बूँदों की सहायता से पशु की त्वचा को गीला किया जाता है जिसमें त्वचा के ऊपर से वाष्पीकरण क्रिया के दौरान पशु को ठण्डक मिलती है। दुधारू पशुओं के ऊपर पानी का छिड़काव व हवा करने से पशु के शरीर का तापमान कम होता है जिससे उसकी खाने की प्रवृति बढ़ती है व दुग्ध उत्पादन भी बढ़ता है। दूध निकालने के बाद पार्लर से बाहर निकलते समय पशुओं के ऊपर पानी का छिड़काव करने से भी गर्मी से बचाया जा सकता है।
पशु के आहार में बदलाव
उच्च वातावरणीय तापमान के समय शरीर से वाष्पीकरणीय गर्मी को पसीने व तेज साँस के माध्यम से कम करने का मुख्य तन्त्र है।
उच्च तापमान पर शरीर में पसीने से पानी की कमी के परिणामस्वरूप प्यास व मूत्र उत्सर्जन से पानी की खपत बढ़ जाती है जिससे शरीर के इलेक्ट्रोलाइट्स की भी भारी हानि होती है। जो पशु छाया के नीचे नहीं होते हैं तो उनके शरीर से पोटाशियम की हानि 500 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। पोटाशियम के सरंक्षण के प्रयास में पशुओं में सोडियम की मूत्र उत्सर्जन दर में वृद्धि हो जाती है।
उच्च तापमान पर पशु हाँफने (वाष्पीकरण द्वारा शरीर को ठण्डा करने की महत्त्वपूर्ण विधि) लगता है। शरीर में से तेजी से कार्बन डाईआक्साइड निकलने से श्वसन क्षारमयता (Respiration alkalosis) होती है। पशु शरीर से मूत्र उत्सर्जन के द्वारा बाईकार्बोनेट निष्कासित कर इसकी क्षतिपूर्ति करता है। लगातार इनके प्रतिस्थापन के लिए पशु के रक्त रसायन शास्त्र का प्रबंधन बहुत महत्त्वपूर्ण है। उष्मीय तनाव, पशु आहार में इलेक्ट्रोलाइट्स की आवश्यकता को बढ़ाता है।
आहार में इलेक्ट्रोलाइट संतुलन विशेष स्थानों जहाँ पर वातावरण का तापमान 24 डिग्री सेन्टीग्रेड से ज्यादा होता है एवं इसकी आवश्यकता तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब वातावरण में सापेक्ष आर्द्रता (Relative Humidity) 50 प्रतिशत से ज्यादा होती है।
आहार में इलेक्ट्रोलाइट संतुलन, पानी व चारे में शरीर के लिए आवश्यक इलेक्ट्रोलाइट मिलाने पर निर्भर करता है। यह आहार इलेक्ट्रोलाइट संतुलन को स्थिर करता है, समस्थिति (होमियोस्टेसिस) को बढ़ाता है, शरीर के तरल अवयवों के ऑस्मोरग्यूलेशन में सहायता करता है, भूख को बढ़ाता है एवं सामान्य शारीरिक विकास को सुनिश्चित करता है।
- पशु आहार: उष्मीय तनाव के समय उत्पन्न होने वाली शारीरिक समस्याओं से निपटने के लिए पशु के आहार में उच्च ऊर्जावान व उच्च गुणवता वाला स्वादिष्ट आहार दिया जाना चाहिए।
- आहार में खमीर (Yeast): गौपशुओं के आहार में रूमेन से संबंधित खमीर (Sacchromyces cereviciae) मिलाना चाहिए जिससे निम्नलिखित फायदे होंगें
- रूमेन अम्लता ठीक होने से अम्लता संबंधित समस्या में कमी होगी।
- आहारीय रेशों का पाचन व रूमेन में नाइट्रोजन उपयोग बढ़ने से आहार की उपयोगिता बढ़ेगी।
- रूमेन में उपयोगी जीवाणुओं में वृद्धि होगी
- आहार में एंटीऑक्सीडेंट: उष्मीय तनाव के समय शरीर में मुक्त कणों (Free radicals) की मात्रा बढ़ जाने से ऑक्सीडेटिव तनाव (Oxidative stress) बढ़ जाता है जिससे पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता व प्रजनन क्रिया प्रभावित होती है। इससे थनैला रोग, प्रजनन दर में कमी, भ्रूण मृत्युदर में बढ़ोत्तरी, समय से पहले बच्चे का पैदा होना, जेर न गिराना आदि समस्याएं बढ़ जाती हैं। विटामिन ई, सी, कैराटीन (विटामिन ए) के अलावा पशु के आहार में सेलेनियम भी मिलाना चाहिए। सेलेनियम ग्लूटाथियोन परऑक्सीडेज एन्जाईम के साथ मिलकर एंटीऑक्सीडेंट का कार्य करता है।
पशुओं को उष्मीय तनाव से बचाने के लिए या तापघात होने पर निम्नलिखित घरेलु नुस्खे भी अपनाये जा सकता है:
- 60 ग्राम जीरा या 250 – 300 ग्राम इमली के फलों के गुद्दे को 250 ग्राम गुड़ में मिलाकर देने से पशु को हाँफने एवं उष्मीय तनाव से बचाने में लाभ मिलता है।
- कमल के आधा किलोग्राम पत्तों को दिन में दो बार, 2–3 दिन तक खिलाने से उष्मीय तनाव से पीड़ित पशु को आराम मिलता है।
- उष्मीय तनाव से बचाने के लिए या होने पर, 5 से 10 ग्राम आंवला पाउडर दोपहर पहले वातावरण का तापमान बढ़ने से पहले (9 – 10 बजे) दिया जा सकता है। इसके स्थान पर 3 – 5 ग्राम विटामिन सी भी दिया जा सकता है।
पशुपालक द्वारा दिये गये प्राथमिक उपचार के बाद यदि पशु की शारीरिक स्थिति में कोई लाभ नहीं मिलता है तो नजदीकी पशुचिकित्सालय से संपर्क कर पशु चिकित्सक से उपचार अवश्य करवाना चाहिए।
गर्मी के मौसम की आवश्यक बातें
- पशु आवास में पशुओं की संख्या अधिक नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक पशु को उसकी आवश्यकतानुसार पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए। सामान्य व्यवस्था में गाय को चार से पांच एवं भैंस को सात से आठ वर्गमीटर खुले स्थान बाड़े के रूप में प्रति पशु उपलब्ध होना चाहिए।
- उष्मीय तनाव से बचाने के लिए पशुओं को धूप में जाने से रोकें और उनको छाया में ही बांधें।
- पशुशाला के आसपास छायादार वृक्ष होने चाहिए। वृक्ष पशुओं को छाया के साथ ही उन्हें गर्म लू से भी बचाते हैं।
- पशुओं को पीने का ठंडा पानी उपलब्ध होना चाहिए। इसके लिए पानी की टंकी पर छाया की व्यवस्था करना अति आवश्यक होता है।
- दिन में 2–3 बार सुबह–दोपहर–शाम को अवश्य नहलाएं। संभव हो तो तालाब में भैंसों को नहलाएं।
- पशुओं को सुतंलित आहार में हरे चारे तथा दाने का अनुपात 60 और 40 का रखना चाहिए। कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाले खाद्य पदार्थ जैसे आटा, रोटी, चावल आदि पशुओं को अधिक मात्रा में खिलाने से बचना चाहिए।
- पशुओं को एक बार में ही दिनभर का चारा खिलाने से बचें, उनको थोड़े–थोड़े अंतराल पर खिलाएं।
- गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में जहरीला रसायन हो सकता है, जो पशुओं के लिए हानिकारक होता है। अतः इस मौसम में खेत में पानी लगाने के बाद ही चारा काटकर खिलाना चाहिए।
- चारे में सूखा आहार कम से कम और हरा रसदार चारा अधिक मात्रा में दें।
- पशुओं को ओ.आर.एस. का घोल भी पिलाया जा सकता है।
- यदि हरे चारे की उपलब्धता कम हो तो उनको अतिरिक्त मात्रा में वीटामिन भी दें।
- गर्मियों के मौसम में पशुओं की नमक आवश्यकता बढ़ जाती है। अतः प्रत्येक व्यस्क गाय–भैंस को 25 – 30 ग्राम नमक भी पानी मिला देना चाहिए।
- बुखार होने की स्थिति में पशु चिकित्सक को अपने पशु को अवश्य दिखायें।
- पशुओं का आवास साफ–सुथरा तथा हवादार होना चाहिए।
- गर्मी के प्रभावित व्यस्क पशुओं को 40-50 ग्राम मीठा सोडा भी देना चाहिए।
- फर्श पक्का तथा फिसलन रहित हो। उसमें मूत्र और पानी की निकासी के लिए ढलान अवश्य होनी चाहिए।
- पशु आवास की छत ऊष्मा रोधी हो, ताकि यह गर्मी में अत्यधिक गर्म न हो। इसके लिए एस्बेस शीट का उपयोग करना चाहिए। अधिक गर्मी होने की स्थिति में छत पर 4 – 5 इंच मोटी घास–फूस की परत या छप्पर डाल देना चाहिए। ये परत ऊष्मा अवशोषक का काम करती हैं। इससे पशु आवास के अंदर का तापमान नहीं बढ़ता है।
- पशु आवास की छत की ऊँचाई कम से कम 10 फीट होनी चाहिए जिससे पशु आवास में हवा का समुचित संचार हो सके।
- पशुशाला की खिड़कियां, दरवाजे तथा अन्य खुली जगहों पर जहां से तेज गर्म हवा आती हो जूट की बोरी या टाट आदि लगाकर पानी का छिड़काव कर देना चाहिए।
- गर्मी शुरू होने से पहले अपने पशुओं को मुँह–खुर पका एवं गलगोटू रोग से बचाव हेतु टीकाकरण अवश्य करवा लेना चाहिए।
भारत में देशी पशुओं की तुलना में विदेशी पशुओं में उच्च उष्मीय तनाव का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है। इसी प्रकार अधिक दूध देने वाले दुधारू पशु भी इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। आमतौर पर गायों खासतौर से देशी गायों को धूप में ही बांध दिया जाता है जो कि पशुओं के प्रति क्रुरता को दर्शाता है। अतः उनको भी उष्मीय तनाव से बचाने के प्रबंध किये जाने आवश्यक हैं। ऐसे पशु जिनके शरीर में ज्यादा वसा होती है, तापघात से ज्यादा प्रभावित होते हैं और उनकी अचानक ही मृत्यु हो जाती है। अतः ऐसे पशुओं की अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता होती है और पशु चिकित्सक की सलाह लेना न भूलें।
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