पशुओं में होनें वाले संक्रामक रोगों से बचाव

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भारतवर्ष एक कृषि  प्रधान देश है। ग्रामीण क्षेत्र में  पशुओं को परिवार का अभिन्न अंग माना जाता है। यहाँ पर पशु स्वास्थ पर विषेश ध्यान दिया जाता है। अतः स्वस्थ व रोगी पशु की  पहचान अति आवश्यक है।

सामान्यतः स्वस्थ पशु के लक्षण इस प्रकार हैः

  1. चुस्त व प्रसन्नचित दिखायी देता है।
  2. भरपेट चारा खाता है व ठीक से पानी पीता है।
  3. जुगाली करता है।
  4. थुथनी गिली रहती है पर ज्यादा नाक नही बहती है।
  5. आंखे चमकीली एवं कान खड़े रहते हैं।
  6. श्वास गति व तापमान समान होता है।
  7. ठीक से गोबर व मूत्र करता है।
और देखें :  पशुओं के पाचन तंत्र संबंधी रोग

इसके विपरित अस्वस्थ पशु के प्रमुख लक्षण निम्न है:

  1. सुस्त व उदास रहता है।
  2. कम खाता है या चारा उठाना बिल्कुल बन्द ही कर देता है।
  3. जुगाली करना बन्द कर देता है।
  4. थुथनी सूखी रहती है तथा नाक व मुहँ से अत्याधिक लार की तरह द्रव गिरता रहता है।
  5. दूध उत्पादन कम हो जाता है।
  6. गोबर एकदम पानी की तरह अथवा कड़ा होता है।
  7. मूत्र में भी परिवर्तन आ जाता है।
  8. पेट में अधिक गैस उत्पन्न होती है जिससे पेट फल जाता है।
  9. श्वसन क्रिया एवं शरीर का तापमान अस्पताल हो जाता है।

यह सभी लक्षण किसी न किसी रोग के होने का संकेत देते हैं। अतः इनके दिखते ही किसी पशुचिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिए।

रोग का यथासंभव निरोध करना सबसे अधिक प्रभावषाली और सस्ता उपचार है। ‘उपचार से बचाव भला’ कहावत संक्रामक रोगों के विषय में खरी उतरती है।

और देखें :  पशुओं के उपचार के लिए विभिन्न औषधियां बनाने की विधि तथा उनका उपयोग

पशुओं में संक्रामक रोगों से बचाव हेतु  निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिए:

  1. प्रथक्करण- संक्रामक रोग का संदेह होते ही रोगी पशु को स्वस्थ्य पशु से अलग कर देना चाहिए। रोगी पशु को एक अलग जगह बाँध कर उसे स्वस्थ पशुओं के साथ ना ही बाँधना चाहिए और ना ही उनके साथ बाहर घूमने देना चाहिए। रोगी पशु का खाना पीना तथा परिचारक भी स्वस्थ पशु से बिल्कुल ही अलग रखना चाहिए। परिचारकों की कमी की स्थिति में, परिचारक को सर्वप्रथम स्वस्थ पशु के पास जाना चाहिए। वहाँ से लौटने पर परिचारक को अपने हाथ-पैर दवायुक्त पानी से धोना चाहिए तथा अपने कपड़ों को भी अलग रखना चाहिए।
  2. संक्रामक रोग से मरे हुए पशु का शव खुले मैदान, नदी या तालाब में नहीं फेंकना चाहिए और न उसकी खाल ही उतारने देना चाहिए। मरे हुए पशु तथा उससे सम्बन्धित पदार्थ जैसे मल-मूत्र, बिछावन आदि को या तो आग में जला देना चाहिए अथवा 1.5-2.00 मीटर गहरा गड्ढा खोदकर उसके ऊपर व नीचे चूने की 20-30 सेमी की सतह बिछाकर मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए। इस गड्ढे के चारों ओर कांटेदार तार या खाई लगवा देना चाहिए, जिससे स्वस्थ पशु वहाँ चरने के लिए न पहुँच सके।
  3. रोगी पशु के सम्पर्क में आए बर्तनों एवं स्थानों की सफाई भी अति आवश्यक होती है। पशु गृह के फर्श तथा दीवारों को खूब अच्छी तरह पानी से साफ करके वहां फीनाइल अथवा 3 प्रतिशत कास्टिक सोडा का छिड़काव करवाना चाहिए। तत्पष्चात दीवारों को कार्बोलिक अम्ल युक्त चूने के घोल से पुतवा देना चाहिए। रोगी के सम्पर्क में आए हुए वर्तन या जंजीरें आदि को उबलते हुए पानी में खोलाकर जीवाणु रहित करना चाहिए।
  4. टीकाकरण: टीकाकरण इन रोगों से पशुओं को बचाने का कारगर उपाय है। टीका लगने से पशु में रोग से बचने की क्षमता आ जाती है तथा एक निश्चित समय तक पशुओं के रोग से ग्रसित होने का भय नहीं रहता। अतः संक्रामक रोगों के दुष्परिणाम से बचने के लिए टीकाकरण एक सस्ता व सरल उपाय है। इसके लिए पशु सेवकों को एक सुनिश्चित कार्यक्रम तैयार कर लेना चाहिए तथा उस पर नियमित रूप से अमल करना चाहिए।

टीकाकरण के समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए:

  1. टीका खरीदते समय यह सुनिश्चित कर लें कि टीका हमेशा कम तापमान पर रखा गया हो। कम तापमान पर न रखने से इसका असर कम या खत्म ही हो जाता है।
  2. पशु पालकों को भी टीकाकरण हेतु टीका खरीद कर उसे बर्फ से भरे थर्मस में ही रखना चाहिए।
  3. टीकाकरण के समय प्रत्येक पशु के लिए नई सुई का प्रयोग करना चाहिए।
  4. रोगी के सम्पर्क में आए हुए पशुओं को कभी भूलकर भी वैक्सीन का टीका नहीं देना चाहिए अन्यथा बीमारी और जोर पकड़ लेती है।
रोग का नाम लगाने का समय उम्र तथा कार्यविधि
खुरपका, मुहँपका वर्ष में किसी समय अप्रैल व अक्टूबर 4-6 माह में प्रथम टीका, प्रथम टीके के 6 माह बाद दूसरा टीका, 1 वर्ष बाद तीसरा टीका, इसके बाद प्रतिवर्ष
लंगड़ी बुखार मई, जून 6 माह तथा उससे अधिक में प्रथम टीका, इसके बाद प्रतिवर्ष
गलाघोंटू अप्रैल, मई 6 माह तथा उससे अधिक में प्रथम टीका, इसके बाद प्रतिवर्ष
संक्रामक गर्भपात (ब्रूसैला वैक्सीन) वर्ष में किसी भी समय 6 माह तथा उससे अधिक में प्रथम टीका (सांड़ो को 2 वर्ष बाद नहीं)
और देखें :  लम्पी स्किन डिजीज (LSD)- गांठदार त्वचा रोग
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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