खुरपका मुंहपका रोग खुर वाले पशुओं विशेषकर गाय-भैंस, भेड़, बकरी ऊंट व सूकर में पाया जाने वाला छुआछूत का रोग है इसे एपथस फीवर भी कहते हैं। यह बीमारी हमारे देश में हर स्थान में व्याप्त है। इस बीमारी को भारत के विभिन्न स्थानों पर स्थानीय नामों से जाना जाता है जैसे कि मुंहपका, खुरपका, चपका, खुरहा आदि। यह बहुत तेजी से फैलने वाला संक्रामक रोग है।
विदेशी व संकर नस्ल की गायों में इस बीमारी के प्रति सबसे अधिक संवेदनशीलता मानी जाती है तथा इनमें मृत्यु दर भी अधिक होती है। इस रोग से ग्रस्त पशु ठीक होकर भी अत्यंत कमजोर हो जाते हैं। दुधारू पशुओं का उत्पादन बहुत कम हो जाता है तथा बैल काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते। शरीर पर बालों का कवर खुरदुरा वह खुर कमजोर होकर फटने लगते हैं। जिससे चलने में दिक्कत आने लगती है। यह बीमारी कुछ समय में एक झुंड या पूरे गांव के अधिकतर पशुओं को संक्रमित कर देती है। इस रोग से पशुधन उत्पादन में भारी कमी आती है। साथ ही देश से पशु उत्पादों के निर्यात पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस बीमारी से अपने भारत में प्रतिवर्ष लगभग 20000 करोड़ों रुपए का प्रत्यक्ष नुकसान होता है।
इस बीमारी में मुंह, जीभ, थनों एवं पैर पर छाले पड़ जाते हैं। इस रोग में पशु को तेज बुखार, भूख में कमी एवं दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाती है। इस रोग में मृत्यु दर लगभग 5 से 10% होती है परंतु प्रभावित संक्रमण की दर 90 से 100% तक होती है।
कारण
यह एक विषाणु जनित रोग है। यह सबसे छोटे विषाणु के रूप में जाना जाता है। इसके कुल 7 टाइप हैं टाइप ओ ए सी एशिया वन सेट वन सेट टू सेट 3। अपने देश में यह रोग मुख्यतः ओ ए तथा एशिया वन टाइप से होता है वर्तमान समय में टाइप सी लगभग विलुप्त हो चुका है।
नम वातावरण पशु की आंतरिक कमजोरी पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्रों में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक है।
संक्रमण का तरीका
यह रोग बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने से पानी, घास ,दाना दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से तथा लोगों के आवागमन से फैलता है अर्थात संपर्क, दूषित चारा, दूषित हवा तथा संक्रमित चारागाह से यह रोग ,रोगी पशुओं से स्वस्थ पशुओं में फैलता है।
लक्षण
रोग के लक्षण सामान्यता 2 से 8 दिन बाद प्रकट होते हैं परंतु यह 2 से 3 सप्ताह के बाद तक प्रकट हो सकते हैं । इस रोग की मुख्य तया दो अवस्थाएं होती हैं।
1. वायरीमिक अवस्था
इसमें पशुओं में तेज बुखार 104 से 106 डिग्री फॉरेनहाइट एवं मुंह से लार गिरने के साथ इस रोग की शुरुआत होती है, बेचैनी, सुस्ती ,भोजन व पानी में अरुचि तथा दुग्ध उत्पादन कम हो जाना मुख्य लक्षण है।
रोग के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलो मैं बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। यह खुले में घास चारा तथा फर्श पर 4 महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मी के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। विषाणु जीभ, मुंह आंत, खुरों के बीच की जगह थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण उत्पन्न कर देते हैं।
2. वेसिकल अवस्था
बुखार उतरने के बाद मुंह तथा खुर पर छाले बन जाते हैं। जबड़ों के चलाने से यह छाले फूट कर घाव बन जाते हैं जिसके कारण रोगी पशु को दर्द होता है और वह खाने पीने में असमर्थ हो जाता है। मुंह से लार टपकती है तथा जीभ मुंह से बाहर निकल आती है। खुर पर छाले होने के कारण पशु लंगड़ा कर चलने लगता है। गर्भवती मादा पशु में इस रोग के कारण गर्भपात हो सकता है।
परीक्षण
रोग के लक्षण तथा प्रयोगशाला जांच के द्वारा इस रोग का परीक्षण किया जाता है।
उपचार
इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, परंतु बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार पशु चिकित्सक की सलाह के साथ निम्न प्रकार किया जा सकता है।
- इसमें एंटीसेप्टिक घोल जैसे पोटेशियम परमैंगनेट 1:10000 या कॉपर सल्फेट 1% का घोल या बोरिक एसिड से मुंह तथा खुर के घाव को धोया जाता है तत्पश्चात उन घावों पर ग्लिसरीन लगाई जाती है।
- द्वितीयक जीवाणु के संक्रमण के निराकरण हेतु पेंसिलिन अथवा टेटरासाइक्लिन प्रतिजैविक औषधि का प्रयोग किया जाना लाभकारी है।
- तीव्र बुखार को कम करने के लिए एंटी इन्फ्लेमेटरी एनाल्जेसिक औषधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
- पशु को नरम एवं सुपाच्य भोजन के साथ 7 साफ पानी का उचित प्रबंध करना चाहिए।
रोग से बचाव
- उपचार से बचाव बेहतर है। निकटतम सरकारी पशु चिकित्सा अधिकारी को सूचित करना चाहिए।
- रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।
- दूध निकालने के पहले व्यक्ति को अपने हाथ एवं मुंह साबुन से धोना चाहिए तथा अपना कपड़ा बदलना चाहिए क्योंकि इंसान द्वारा यह बीमारी फैल सकती है।
- बीमारी को फैलने से बचाने के लिए पूरे प्रभावित क्षेत्र को 4% सोडियम कार्बोनेट (400 ग्राम सोडियम कार्बोनेट 10 लीटर पानी में ) या 2% सोडियम हाइड्रोक्साइड से दिन में दो बार धोना चाहिए एवं इस प्रक्रिया को 10 दिन तक दोहराना चाहिए।
- बीमार पशुओं को स्पर्श करने के बाद व्यक्ति को 4% सोडियम कार्बोनेट घोल के साथ खुद के जूते, चप्पल,कपड़े, हाथ आदि धोने चाहिए।
- समाज को यह करना चाहिए कि दूध इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किए गए बर्तन एवं दूध के डिब्बे को 4% सोडियम कार्बोनेट के घोल से सुबह और शाम को धोने के बाद ही उन्हें गांव से अंदर या बाहर भेजना चाहिए।
- संक्रमित गांव के बाहर 10 फीट चौड़ा ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव करना चाहिए। पशु चिकित्सक को चाहिए की प्रारंभिक चरण के प्रकोप में बच्चे पशुओं में संक्रमित गांव वह क्षेत्र के आसपास रोग के आगे प्रसार को रोकने के लिए टीकाकरण (टीकाकरण की शुरुआत स्वस्थ पशुओं में बाहर से अंदर की ओर) करना चाहिए तथा टीकाकरण के दौरान प्रत्येक पशु के लिए अलग-अलग सुई का प्रयोग करें तथा इस दौरान बीमार पशु को नहीं छुए। टीकाकरण के 15 से 21 दिनों के बाद ही पशुओं को गांव में लाना चाहिए।
- इस प्रकोप को शांत होने के बाद इस प्रक्रिया को 1 महीने तक जारी रखना चाहिए।
- रोगी पशु के शव को चूना डालकर जमीन में गाड़ देना चाहिए या जला देना चाहिए।
- स्वस्थ पशुओं का क्षेत्र में आवागमन को प्रतिबंधित कर देना चाहिए तथा रोगी पशुओं को उस क्षेत्र से बाहर जाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए ।
- सभी पशुओं, मनुष्यों को प्रभावित क्षेत्र में जाने से पहले कीटाणुनाशक घोल वाले फूटबाथ से गुजरना चाहिए।
- संक्रमित बर्तन, उपकरण इत्यादि को 4% सोडियम कार्बोनेट से धोना चाहिए।
- सभी पशुओं को एक साथ वैक्सीन टीका लगवाना चाहिए। यह टीका मानसून रितु के प्रारंभ होने से पूर्व अवश्य लगवा लेना चाहिए।
- खुरपका मुंहपका रोग उन्मूलन अभियान के तहत वर्ष में दो बार, प्रत्येक 6 माह के अंतराल पर पशुपालक के द्वार पर टीकाकरण की टीम पहुंचती है। उक्त टीम द्वारा गांव के समस्त पशुओं में खुरपका मुंहपका रोग का टीका अवश्य लगवा देना चाहिए।
प्रतिबंध
- सामूहिक चराई के लिए अपने पशुओं को नहीं भेजें अन्यथा पशुओं में रोग फैल सकता है।
- पशुओं को पानी पीने के लिए अन्य स्रोत जैसे कि तालाब नदियों नहरों से सीधे उपयोग नहीं करना चाहिए। किस से बीमारी फैल सकती है वह पीने के पानी में 2% सोडियम बाय कार्बोनेट गोल मिलाना चाहिए।
- लोगों को गांव के बाहर आने जाने के द्वारा रोग फैल सकता है।
- लोगों को बिना मतलब इधर-उधर नहीं घूमना चाहिए। वे स्वस्थ पशुओं के साथ संपर्क में नहीं जाएं तथा खेतों एवं स्थानों पर जहां पशुओं को रखा जाता है वहां जाने से उन्हें बचना चाहिए।
- प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीद ना करें।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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