मुहँपका-खुरपका रोग अत्यद्यिक शीग्र फैलने वाला वह विषाणु जनित संक्रामक रोग है जो कि जुगाली करने वाले पशुओं में होता है। इस कारक विषाणु के 7 प्रकार तथा अनेको उपचार है मुहँपका-खुरपका रोग के कई अन्य सहायक कारक भी है, जैसे नम-वातावरण, पशु की आन्तरिक कमजोरी, पशुओं का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन, लोगो का आवागमन, आसपास के क्षेत्रों में रोग का प्रकोप होना, इत्यादि रोग ग्रस्त पशु रोग वाहक भी होते है तथा 5-6 माह तक अपनी लार इत्यादि द्वारा रोगो के विषाणु का प्रसार करते हैं।
इस रोग का संचरण वायु, जल, दूषित आहार, सीधे संपर्क, पशुशाला में काम करने वाले मनुष्यों, दूषित कपडो़, मालवाहक, जलयानों या छुतही सामाग्री द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त इस रोग का विषाणु पक्षियों के पैर में चिपक जाता है, जो उडकर एक स्थान से दूसरे विदेशी नस्ल के गोपशुओं में इस रोग की अस्वस्थता तथा मृत्युदर देशी पशुओं की अपेक्षा अधिक होती है।
लक्षण
पशु को 40-410 सेण्टीग्रेड तक का ज्वर हो जाता है। पशु खाना पीना तथा जुगाली करना बन्द कर देता है। मुहँ से लार बहने लगती है और होठो से चपचपाहट की आवाज होती है। मुहँ के अन्दर जीभ, मसुढ़ों, होठो, तालु तथा होठों के संधि स्थल इत्यादि स्थानों पर छाले पड़ जाते हैं। छाले पड़ने के समय ही मुहँ से घागे की भाति पतली लार बहती है, जो टूट-टूट कर पृथ्वी पर गिरती है। कुछ दिनों के पश्चात पैरो में भी घाव उत्पन्न हो जाते है तथा पशु लंगडाने लगता है। रोगी पशु बार-बार अपने पैर पृथ्वी पर झटकता है। पशु बिल्कुल सुस्त होकर, नीचे गर्दन करके खड़ा रहता है। दुधारू पशुओं में दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। कभी-कभी थन एंव अयन पर भी छाले पड़ जाते है जिससे थनैला रोग होने की सम्भावना बन जाती है।
उपचार
- रोग ग्रसित पशु के मुहँ के छालों की लाल दवा (पोटाश), फिटकरी, सुहागा इत्यादि के घोलों से धोना चाहिए। मुहँ के छाले धोने के उपरान्त घाव पर 1 भाग सुहागा, 4 भाग शहद व क्षीरा का लेप लगाना चाहिए। खुर के घावों को नीम की पत्तियां डालकर उबला पानी, या 1 प्रतिशत तूतिया द्रव से धोने चाहिए। इन घावों पर फिनाइल और सरसों के तेल को 1:5 के अनुपात में मिलाकर लगाना चाहिए तथा पट्टी बाँध देनी चाहिए।
- खुर के घावों पर एन्टीसैपटिक पाउडर भी डाले जा सकता है। बाजार में उपलब्ध टापीक्योर नामक छिडकाव भी इन खुर के घावो के लिए अत्यन्त कारगर रहता है।
- रोगी पशु को साफ सुथरे, कच्चे फर्श वाले स्थान पर नखना चाहिए। रोगकाल में रोगी पशुओं को कोमल तथा सरलता से पचने वाला आहर देना चाहिए। घावों को शीग्र अच्छा करने के लिए पशु को एन्टीबायाटिक इंजेक्शन लगाना चाहिए।
- बचाव रोग से बचाव हेतु पाली वैलेन्ट वैक्सीन लगवानी चाहिए। साथ ही साफ सफाई का पूरा ध्यान देना चाहिए। रोगी पशु को स्वस्थ पशु से अलग कर, उसे बाहर नही घूमने देना चाहिए।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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