थनैला रोग एक विश्वब्यापी बीमारी है जो केवल दुधारू पशुओं को ही प्रभावित करती है। यह रोग प्रमुखतः कुप्रबन्धन के कारण होती है। इस रोग में पशु की दूध उत्पादन क्षमता एवं दूध की गुणवत्ता विशेषकर वसा की मात्रा सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में अयन (दुग्ध ग्रन्थियां)/ थन गर्म हो जाता है, तथा उसमें दर्द एवं सूजन होने लगती है। कुछ समय के पश्चात दूध में छेछडे़, खून एवं पस/मवाद आने लगता है। प्राचीन काल से यह बीमारी दूध देने वाले पशुओं एवं उनके पशुपालकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। पशुधन विकास के साथ श्वेत क्रांति की पूर्ण सफलता में अकेले यह बीमारी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। यदि गाय अथवा भैंस एक बार इस बीमारी से प्रभावित हो जाती हैं, उनका दूध उत्पादन उस ब्यांत में लगभग 15 प्रतिशत तक कम हो जाता है। यह बीमारी पहले ब्यांत में 5 प्रतिशत तथा अधिक बार ब्याने वाले पशु में 80 प्रतिशत तक पायी जाती है, अतः प्रभावित पशु का दूध पीने से आदमी को भी कई प्रकार की बीमारियां होने का खतरा रहता है। इस बीमारी से पूरे देश में प्रतिवर्ष लगभग रू. 7165.51 करोड. का नुकसान होता हैं, जो अतंतः पशुपालकों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है।
प्रमुख कारक
थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फफूंद एवं यीस्ट तथा मोल्ड के संक्रमण से होता हैं। इसके अलावा चोट, कुप्रबन्धन, अंगुठा विधि से दूध निकालना तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला रोग हो जाता हैं। कीटाणु थनों के रास्ते से प्रवेश करते हैं तथा वहां पर धीरे-धीरे इनकी संख्या अत्यधिक बढ़ जाती है। कीटाणु गंदे वातावरण, पशु के अयन व थन की त्वचा पर या दूध निकालने की मशीन पर काफी संख्या में मौजूद रहते हैं। कभी-कभी यह रोग ग्वाले के हाथों में संक्रमण होने से भी फैलता है।
आमतौर पर दूध में तथा थनों के अन्दर कोई जीवाणु/कीटाणु नहीं पाया जाता है। लेकिन कुछ कारणों से यह थन में प्रवेश कर जाते हैं और यह बीमारी उत्पन्न करते हैं।
अन्य निम्नलिखित कारक बीमारी को फैलाने में प्रमुख कारण हो सकते हैः
- ज्यादा उम्र वाले पशु में यह बीमारी होने का खतरा ज्यादा होगा।
- यह बीमारी अधिकतर ब्यांत के शुरू में या अंतिम दुग्धावधिकाल में ज्यादा पायी जाती है।
- ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में यह बीमारी ज्यादा पायी जाती है।
- कुछ पशुओं में यह रोग वंशानुगत अर्थात आनुवांशिक कारणों से भी होता है।
- अयन/थन में चोट लगने, कटने या फटने पर जीवाणु/कीटाणु थन के अन्दर आसानी से प्रवेश कर जाता है और यह रोग जल्दी फैलता है।
- पशुशाला के आस-पास की समुचित सफाई आदि न होने से।
लक्षण
यह बीमारी थन अथवा अयन की सूजन से संबंधित है जिसका पता प्रारम्भ में थन के सूजने एवं दूध में भौतिक तथा रसायनिक परिवर्तन से चलता है जैसे दूध का रंग बदलना, छेछड़े आना, खून का आना आदि।
लक्षणों के आधार पर थनैला रोग को तीन प्रमुख भागों में बांटते हैः
- एक्यूट अर्थात तीव्र थनैला
- सबएक्यूट थनैला
- क्रोनिक थनैला
एक्यूट या तीव्र थनैला
इस अवस्था में रोग के लक्षणों का बहुत कम समय में पता लग पाता है। इसमें पशु को तेज बुखार होता है, जिससे पशु जुगाली करना बंद कर देता है तथा थन एवं अयन के एक या अधिक भागों में सूजन आ जाती है। अयन/थन छूने पर गर्म, लाल व मुलायम पाया जाता है। यह अवस्था पशु के ब्याने के बाद कभी भी हो सकती है लेकिन ज्यादातर ब्यांने के तुरन्त बाद पायी जाती है।
जब यह रोग कोराइनीबैक्टीरियम नामक जीवाणु से होता है तब थनों से गाढ़ा, हल्का, पीला, खून मिला हुआ द्रव निकलता है जो थन को खींचने पर कठिनाई से बाहर निकलता है। यह अवस्था ज्यादातर ओसर में तथा गर्मी के मौसम में होती है, अतः इसे हम गर्मी का थनैला भी कहते है। इस अवस्था में थन ज्यादा खराब हो जाते है।
सबएक्यूट थनैला
यह अवस्था पहली अवस्था से कम घातक होती है। इस अवस्था में रोग के लक्षण ज्यादा प्रकट नहीं होते तथा सूजन भी बहुत कम पायी जाती है। दूध में काफी मात्रा में छेछड़े पाये जाते है। कभी-कभी थनों से पीला द्रव्य भी निकलता है।
चिरकालिक थनैला
इस अवस्था में रोग के लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होते है। पहली पहचान यह है कि दूध में छोटे-छोटे फटे दूध जैसे छेछडे़ आने लगते है तथा बाद में दूध पतला पड़ जाता है और छेछडे़ भी ज्यादा आने लगते है। पहले अयन बड़ा तथा सख्त प्रतीत होता है, तथा बाद में छूने पर गर्म लगता है एवं पशु को दर्द होता है। थन दिन-प्रतिदिन सख्त होता चला जाता है। दूध का रंग पीलेपन में होता है। कभी-कभी उसमें खून भी आता है। दूध की मात्रा घट जाती है और कभी-कभी दूध बिल्कुल नहीं निकलता है।
रोग की रोकथाम और बचाव
- दूध निकालने से पहले एवं बाद में थन को लाल दवा से साफ करना चाहिए।
- रोगी पशु का दूध सबसे बाद में निकालना चाहिये।
- ग्वाले को अपने हाथ अच्छी तरह साफ करने चाहिये।
- थनों को पोंछने वाला कपड़ा साफ होना चाहिये।
- दूध निकालने वाली मशीन को दूध निकालने से पहले तथा बाद में अच्छी तरह साफ करना चाहिये।
- दूध निकालने से पहले दूध को स्ट्ªीप कप में निकलना चाहिये।
- दूध निकालते समय थनों को झाग आदि से चिकना नहीं करना चाहिये।
- सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिये।
- दूध निकालने के बाद चारों थनों को टीट डिप कप में डुबों दें।
- दुधारू पशु को दुहान के आधे घंटे के बाद ही बैठने दें।
रोग की पहचान एवं जांच की विधियां
थनैला रोग की पहचान थन की वास्तविक स्थिति देखकर एवं पशुपालक से दूध की गुणवत्ता से अनुमान लगाया जा सकता है। विभिन्न प्रकार के रासायनिक जांच जैसे स्ट्रिप कप टेस्ट, कैलीफोर्निया मैस्टाइटिस टेस्ट, ब्रोमोक्रीसाल परपल टेस्ट, ब्रोमोथाइमाल ब्लू टेस्ट, क्लोराईड टेस्ट एवं दूध की अम्लता/क्षारक्ता अर्थात पीएच की जांच करके थनैला रोग की पुष्टि की जा सकती है।
रोग का उपचार
रोग का उपचार केवल प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही सम्भव है, अन्यथा रोग के बढ़ जाने पर दुग्ध ग्रन्थियों की स्रावण क्षमता को बचा पाना कठिन हो जाता है। रोग की स्थिति में रोकथाम अत्यन्त आवश्यक है, इसके लिए पशुचिकित्सक की देखरेख में उपयुक्त उपचार अतिशीघ्र कराना चाहिए।
प्राथमिक उपचार के रूप में थनैला के अति तीव्र अवस्था में सूजन कम करने के लिए अयन पर बर्फ लगायें। थनैला बिमारी की अन्य अवस्थाओं में मैगनीशियम सल्फेट ;जुलाब का नमकद्ध अथवा साधारण नमकयुक्त गरम पानी से हल्की सिंकाई करें।
सावधानियां
- पशु का दूध पूर्ण हस्त विधि से निकालना चाहिये।
- दूध निकालने से पूर्व एवं बाद में थन को स्वच्छ पानी से साफ कर सुखा लेना चाहिए।
- थनों में दूध कदापि न छोडें।
- इलाज बंद करने के 24 घंटे तक दूध को पीने में प्रयोग न करें।
- दवाई थन में देने से पहले थन को अच्छी तरह सेवलोन/लाल दवा के पानी से धो लें तथा थन को अच्छी तरह खाली कर लें।
- अगर पशु को दूध निकालते वक्त दर्द हो तो साइफन का प्रयोग करें।
इस प्रकार थनैला रोग एक कुप्रबन्धनजनित बीमारी है, जिससे यह पशुपालकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को अत्यधिक प्रभावित करता है, साथ ही मानव स्वास्थ्य एवं आयु को भी प्रभावित करता है। थनैला रोग अधिक दूध देने वाले पशुओं में ही अधिक होता है। अतः इस बीमारी की समुचित रोकथाम हेतु हमें ग्रामीण परिवेश में पशुपालकों के द्वार पर जाकर थनैला बीमारी की पहचान, रोकथाम एवं ईलाज के बारे में विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं कार्यशाला के माध्यम से अवगत करायें जिससे हमारे पशुपालकों एवं देश का सर्वागींढ विकास सम्यक रूप से हो सके।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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