पशु के शरीर में विभिन्न प्रकार के परजीवी निवास किया करते हैं। अपने भोजन के लिए ये दूसरे जीव के शरीर पर निर्भर रहते हैं। अतः जिस पशु के शरीर में ये निवास करते हैं, उस पशु के स्वास्थ्य में कुप्रभाव पड़ता हैं अधिकतर प्रारम्भ में परजीवी जनित रोगों में स्पष्ट लक्षण मालूम नहीं पड़ते तथा अधिकतर पशु इनसे ग्रसित बने रहते हैं। परजीवी दो प्रकार के होते हैं। अन्तः परजीवी व बाह्य परजीवी। अन्तः परजीवी शरीर के अन्दर रहेते हैं तथा बाह्य परजीवी शरीर की चमड़ी पर रहते हैं। तराई, नमीयुक्त तथा दलदली भूमि इनके विकास के लिए अति उत्तम हैं अतः तराई एवं अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में इनका अधिक प्रकोप होता है। वर्षा ऋतु में व उसके उपरान्त परीजीवी रोग बड़ी तीब्र गति से फैलते हैं। दुधारू पशुओं में इन रोगों का महत्व अधिक होता है क्योंकि ये न केवल छिपे शत्रुओं की भांति प्रहार करते हुए स्वास्थ्य एवं उत्पादन को भारी क्षति पहुँचाते हैं वरन् इनके नवजात बछड़े व पड़ढे की मृत्यु का भी प्रमुख कारण होते है।
ये परजीवी पशुओं के शरीर में अण्डों व लार्वा के रूप में पहुचते हैं। इनके अंडे गोबर अथवा थूक के साथ शरीर से बाहर निकलते हैं। भूमि पर अनुकूल वातावरण मिलने से इन अण्डों को विकास होता है तथा इसके उपरान्त इनसे लार्वा निकलते हैं, जो पड़ोस की घास पर चिपक जाते हैं। जब कोई पशु ऐसी दूषित घास चरता है, तो यह लार्वा शरीर में प्रवेश पाकर प्रौढ़ कीटों में अपना विकास करते हैं।
इस विकास काल में यह कीट पशु की अनतड़ी, उदर, यकृत तथा फेफड़ों आदि पर कुप्रभाव डालकर, उसके स्वास्थ्य का विनाश करते हैं। कुछ कीट शरीर में प्रवेश पाने से पूर्व कुछ समय तक मध्यस्थ पोशक जैसे- मच्छर, घोंघा, किलनी व सीपों में अपना विकास करते हैं। अतः पशुपालकों को निम्नलिखित मुख्य परजीवी रोगों में समुचित जानकारी होनी चाहिए।
1. बिस्सी रोग (फैसिलिओसिस या लिवर फ्लूक रोग)
यह रोग यकृत में पाए जाने वाले फेसियोला प्रजाति के चपटे, पत्ती के आकर के हल्के या गहरे भूरे रंग के पैरासाइट द्वारा होता है। इसकी एक प्रजाति पहाड़ी व पर्वतीय इलाकों में रह रहे पशुओं में पाई जाती है। दूसरी प्रजाति उन मैदानी भागों में रहने वाले पशुओं में अधिक पाई जाती है जहां अक्सर नमी रहती है। इन परजीवियों के जीवनचक्र की प्रारम्भ की अप्रौढ़ अवस्थाएं घोंघे में पलती हैं। इसके उपरान्त ये घोंघे से निकल कर आसपास की पत्तियों पर चिपके रहते हैं। जब भी कोई पशु ऐसी घास खाता है या पानी पीता है तो ये परजीवी पेट में चले जाते हैं। इसके उपरान्त से यकृत पहुँचकर इसे क्षति पहुंचाते हैं।
लक्षण
तीब्र रोग उत्पन्न तभी होता है जब पशु कम समय में अत्यधिक परजीवी खा लेता है। यह अवस्था विषेशकर छोटी आयु के पशुओं में देखी जाती है। इसमें यकृत पूरी तरह नष्ट हो जाता है। पशु सुस्त एवं कमजोर हो जाता है। वह खाना कम खाता है तथा उसमें पीलिया उत्पन्न हो जाता है। जल्द ही पशु की मृत्यु हो जाती है। मरे हुए पशु के नाक व गुदा से रक्त निकलता है।
पुराने रोगी पशु कमजोर दिखते हैं। उनमें दस्त उत्पन्न हो जाता है तथा उसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। साथ ही पीलिया हो जाता है। गर्दन व पेट के नीचे पानी एकत्रित हो जाना इस रोग का एक प्रमुख लक्षण है। निदान हेतु रोगी पशुओं के मल में कृमि के अण्डों की जाँच तथा मरे हुए पशु का तुरन्त शव परीक्षण कराना आवश्यक है। उपचार पशुचिकित्सक की सलाह अनुसार करना । डिस्टोडिन, फैसरिड, फैसिनेक्स आदि औषधिया इस रोग रोग के लिए कारगर रहती है। कीड़े की दवाई देने के 3 दिन पूर्व से ही पशु में लीवर टानिक देना शुरू कर देना चाहिए।
2. एम्फीस्टोमियासिस (गिल्लर, पिट्टू रोग)
यह रोग एक प्रकार का परजीवी जनित आंत्रषोध रोग है, जो कि एम्फीस्टोम्स (पट्ट-कृमि) नामक कृमि की अपरिपक्व अवस्थाओं द्वारा होता है। इसमें आंतों के पूर्वाध भाग में सूजन उत्पन्न होती है। यद्यपि यह रोग सभी आयु के पशुओं में देखा जा सकता है, परन्तु छोटी आयु के पशुओं में इसका प्रकोप अधिक होता है। यह रोग भी वर्षा ऋतु के बाद पशुओं में फैलता होता है। इसकी संक्रामक अवस्थाएं घोंघो में पाई जाती है।
लक्षण
तीब्र रोग में पशु बदबूदार पतला दस्त करता है। पशु के स्वास्थ्य में गिरावट होती रहती है तथा पशु कमजोर हो जाता है। पशु खाना कम खाता है तथा उदास दिखाई पड़ता है। उसमें पानी की कमी हो जाती है। खून की कमी के भी लक्षण दिखाई पड़ते है। ग्रसित पशु की मृत्यु 15-20 दिनो में हो जाती है। इस रोग का निदान भी गोबर की जांच से किया जाता है।
उपचार
उपचार हेतु बाजार में इस रोग के लिए अनेक दवा उपलब्ध हैं। रोगी पशु में पहले से लिवर टानिक देना चाहिए।
3. एस्केरियेसिस (पटेरे रोग)
यह रोग नवजात व अल्प आयु के पशुओं में होने वाला प्रमुख रोग है जो टाक्सोकैष विटूलोरम नामक कृमि से होता है। गौवत्सों में इस संक्रमण का प्रमुख स्रोत खीस है। खीस में इस कृमि के लार्वा 2-5 दिनो तक अत्तधिक मात्रा में जाते है।
लक्षण
पशु में सफेद, पतला तथा बदबूदार दस्त शुरू हो जाता है। पशु कमजोर हो जाता है तथा उसका वजन कम हो जाता है। उसकी त्वचा व बालों से चमक चली जाती है। ग्रसित पशु में खून की कमी हो जाती है।
निदान मल परीक्षण द्वारा इस कृमि के अंडे देखकर किया जा सकता है।
उपचार
रोगी गौवत्सों को पीपराजिन पिलाने से लाभ मिलता है। लिवामिसोल भी कारगर रहती है।
4. काक्सीडियोसिस
छोटी आयु के पशुओं में पाए जाने वाला यह रोग परजीवी आइमेरिया की अनेक जातियों द्वारा उत्पन्न होता है। यह रोग भी एक प्रकार का आंत्रषोध रेाग है। वह सभी परिस्थितियाँ जिससे पशु गृह में गंदगी व नमी बनी रहती है। इस रोग को कम समय में तेजी से फैलने के लिए सहायक सिद्ध होती है। रेागी पशु का गोबर इस परजीवी के संक्रमण का प्रमुख स्रोत हैं।
लक्षण
सर्वप्रथम, पशु में दस्त शुरू हो जाता है, जो कि बदबूदार रहता है। गोबर अत्यधिक पतला तथा खून से सना रहता है। कभी कभी जमा हुआ खून भी गोबर के साथ निकलता है। पशु के पूंछ व पिछले टांगो पर खून लगा रहता है। अत: पशु की रूची कम हो जाती है तथा पशु अत्यधिक र्दुबल हो जाता है। तीव्र रोग में लक्षण पूरे होने से पहले ही बछडे़ व पड्ढे मर जाते है।
उपचार
इस रोग में सल्फोनामाइड औशधि अत्यधिक लाभकारी रहती है।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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