यह रोग यकृत में पाए जाने वाले फेसियोला प्रजाति के चपटे, पत्ती के आकर के हल्के या गहरे भूरे रंग के पैरासाइट द्वारा होता है। इसकी एक प्रजाति पहाड़ी व पर्वतीय इलाकों में रह रहे पशुओं में पाई जाती है। दूसरी प्रजाति उन मैदानी भागों में रहने वाले पशुओं में अधिक पाई जाती है जहां अक्सर नमी रहती है। इन परजीवियों के जीवनचक्र की प्रारम्भ की अप्रौढ़ अवस्थाएं घोंघे में पलती हैं। इसके उपरान्त ये घोंघे से निकल कर आसपास की पत्तियों पर चिपके रहते हैं। जब भी कोई पशु ऐसी घास खाता है या पानी पीता है तो ये परजीवी पेट में चले जाते हैं। इसके उपरान्त से यकृत पहुँचकर इसे क्षति पहुँचाते हैं।
लक्षण
- तीब्र रोग उत्पन्न तभी होता है जब पशु कम समय में अत्यधिक परजीवी खा लेता है। यह अवस्था विषेशकर छोटी आयु के पशुओं में देखी जाती है। इसमें यकृत पूरी तरह नष्ट हो जाता है।
- पशु सुस्त एवं कमजोर हो जाता है। वह खाना कम खाता है तथा उसमें पीलिया उत्पन्न हो जाता है।
- जल्द ही पशु की मृत्यु हो जाती है। मरे हुए पशु के नाक व गुदा से रक्त निकलता है।
- पुराने रोगी पशु कमजोर दिखते हैं। उनमें दस्त उत्पन्न हो जाता है तथा उसकी दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। साथ ही पीलिया हो जाता है।
- गर्दन व पेट के नीचे पानी एकत्रित हो जाना इस रोग का एक प्रमुख लक्षण है।
उपचार व बचाव
- निदान हेतु रोगी पशुओं के मल में कृमि के अण्डों की जाँच तथा मरे हुए पशु का तुरन्त शव परीक्षण कराना आवश्यक है।
- उपचार पशुचिकित्सक की सलाह अनुसार करना।
- डिस्टोडिन, फैसरिड, फैसिनेक्स आदि औषधियां इस रोग रोग के लिए कारगर रहती है।
- कीड़े की दवाई देने के 3 दिन पूर्व से ही पशु में लीवर टानिक देना शुरू कर देना चाहिए।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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