पशुपालन व्यवसाय में कम लागत और अधिक फायदा प्राप्त करने के लिए शुष्क काल में पशुओं की देखभाल अत्यावश्यक है। गौ पशुओं में लगभग 2 माह का शुष्क काल आवश्यक है। इस समय में पशु अगले ब्यात के लिए तैयार होता है। यदि हम लगातार पशु से दूध लेते रहे और शुष्क काल ना रखें तो अगली ब्यात में दूध का उत्पादन 30 से 40 प्रतिशत तक कम हो जाता है। साथ ही साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम रहती है। थनैला जैसी बीमारियां होने की संभावना भी ज्यादा रहती है। उत्पादन की लागत भी एक तरह से बढ़ जाती है। यदि हम 45 दिन या इससे थोड़ा अधिक का शुष्क काल रखते हैं तो अयन की कोशिकाओं का पुनर्नवीनीकरण भी होता है।
ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में शुष्क काल रखना अत्यावश्यक होता है। कम दूध देने वाले पशु ज्यादातर अपने आप ही सूख जाते हैं। शुष्कीकरण के लिए आखिरी तिमाही महत्वपूर्ण होती है । पशुपालकों को कृत्रिम गर्भाधान की तारीख नोट करके रखनी चाहिए इसके 9 महीने बाद का समय पशु के ब्याने का समय होता है। ब्याने के लगभग 2 महीने पहले सुखाने की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए। शुष्कीकरण के लिए पशु को पानी देना कभी भी बंद नहीं करना चाहिए, इसका पशु पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पशुपालकों को धीरे धीरे हरा चारा एवं दाना कम करते जाना चाहिए। जबकि भूसे की मात्रा पहले जैसी ही रखनी चाहिए । खनिज मिश्रण की मात्रा को भी आखरी के 45 दिनों में धीरे धीरे कम करना चाहिए। इसके साथ दूध दुहने की आवृत्ति भी कम करनी चाहिए । ऐसा करने से लगभग 10 से 15 दिनों में पशु धीरे-धीरे सूख जाएगा। जब लगभग 200 से 250 ग्राम दूध आने लगे तब समझ ले कि पशु पूरी तरह सूख गया है। एक बार जब पशु सूख जाए तब दाना एवं खनिज मिश्रण थोड़ा बढ़ा भी सकते है। यही वह समय है जब हम अपने पशुओं का अच्छे से ख्याल रख सकते हैं। शुष्क काल में पशु के अयनों का पुनर्जीविकरण भी होता है साथ ही साथ यदि पशु को पिछली ब्यात में थनैला हुआ हो तो उसके थनों में दवा डलवानी चाहिए। ऐसा करने से आने वाली ब्यात में थनैला होने की संभावना ना के बराबर हो जाती है। जैव प्रतिरोधक दवाई थनों में डालने के बाद थनो की सीलिंग वाली दवा भी डाली जा सकती है । साथ ही साथ थनों को लाल दवा के पानी से धोना चाहिए। शुष्ककाल में थनैला के लिए प्रयोग की जाने वाली जैव प्रतिरोधक दवाई सामान्य समय में प्रयोग की जाने वाली दवाई से अलग होती है। इनको एक बार ही उपयोग करना है। इनका असर पूरे शुष्क काल में रहता है।
शुष्क काल का समय पशु के शरीर को अगली ब्यात के लिए तैयार करने का भी समय होता है। ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में पर्याप्त शुष्क काल रखने से अगली ब्यात में उत्पादन में कमी नहीं होती है। साथ ही साथ पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है कभी-कभी यह शुष्कीकरण की प्रक्रिया पूर्ण रूप से नहीं हो पाती है और पशु पुनः दूध देने लगता है ऐसी स्थिति में शुष्कीकरण की प्रक्रिया को दोबारा किया जा सकता है।
पिछली ब्यात में यदि पशु को दुग्ध ज्वर हुआ हो तो शुष्क काल में खनिज मिश्रण की मात्रा को जरूर से कम करना चाहिए अन्यथा अधिक कैल्शियम देने से अगली ब्यात में दुग्ध ज्वर होने की संभावना बढ़ जाती है। पिछली ब्यात में अथवा इस समय भी यदि बच्चेदानी का प्रोलेप्स हुआ हो तो उसका इलाज भी इसी शुष्क काल में पशु चिकित्सक की सलाह से किया जा सकता है। शुष्क काल में पशुओं को पेट के कीड़ों की दवा भी दी जा सकती है बस यह देख लेना चाहिए कि वह दवा गाभिन पशुओं के लिए सुरक्षित हो जैसे कि फेनबेंडाजोल इत्यादि। गौ पशुओं में शुष्ककाल रखना कभी भी घाटे का सौदा नहीं होता क्योंकि एक तो इससे अयन को आराम मिलता है साथ ही साथ अगली ब्यात में थनैला आदि रोग होने की संभावना कम हो जाती है।
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