बच्चे के जन्म के बाद का पहले एक घंटे का समय उसके जीवन का सबसे चुनौती भरा कालखण्ड होता है क्योंकि गर्भकाल के समय बच्चा पूरी तरह नियंत्रित एवं सुरक्षित वातावरण में रहता है। माँ गर्भ में पल रहे बच्चे की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति एवं प्रतिकूल परिस्थितियों से उसकी सुरक्षा करती है। परन्तु जन्म लेते ही वातावरण के तापमान का सामना, शरीर के कुछ आवश्यक अंग जैसे श्वसन, ह्रदय एवं रक्त संचार, पाचन इत्यादि तंत्रो का सुचारु रूप से संचालन तथा जीवाणुओं से सुरक्षा इत्यादि प्रक्रियाएं शुरू हो जाती है। नवजात दुधारू पशुओं के जीवित रहने और आगे के समय में विकसित होने के लिए यह अति आवश्यक है कि वह इन सभी चुनौतियों का सफलता पूर्वक सामना करे। हालाँकि अक्सर यह देखा गया है कि अधिकांश पशु पालक नवजात डेयरी पशुओ की असामयिक मृत्यु से सबसे ज्यादा परेशान रहते हैं। सामान्य प्रबंधन नीतियां अपनाकर नवजात डेयरी पशुओं की मृत्युदर को बहुत कम किया जा सकता है।
श्वसन प्रक्रिया का सुचारु रूप से चलना
- जन्म के तुरंत बाद नवजात के नाक के अंदर स्थित श्लेष्मा झिल्ली या कोई अन्य अवरोध को अंगूठे व तर्जनी उंगली का प्रयोग करते हुऐ साफ़ करना चाहिए साथ ही गले (श्वास नली) में इन्ही दोनों उंगलियों के प्रयोग से हल्का दबाव बनाते हुए बाहर की ओर फिराना चाहिए जिससे यदि कोई अवरोध श्वासनली में हो तो वह भी बाहर आ सके और श्वसन सुचारु रूप से चल सके।
- यदि इस बात की संभावना हो की नवजात की श्वासनली में श्लेष्मा झिल्ली या एमनीओटिक द्रव (गर्भ के दौरान बच्चा एक झिल्ली से ढका होता है जिसमे गाढ़ा द्रव भरा होता है इसे एमनीओटिक द्रव कहते है) भरा हुआ है तो नवजात को पेट के बल बैठाकर एवं गर्दन को नीचे की ओर झुकाते हुए अंगूठे व तर्जनी उंगली का प्रयोग करके बाहर की ओर फिराना चाहिए।
- ठन्डे पानी का प्रयोग – इस प्रक्रिया को सामान्यतः गर्मी के मौसम में करते है। इस क्रम में नवजात के कान के पीछे के हिस्से में ठंडा पानी डालते है फिर सिर में और अंत में शरीर के बाकी हिस्से में जिससे एक झटके में श्वसन शुरू हो जाता है।
- सीने की मालिश – साफ़ सूखी तौलिया, जूट का बोरा या साफ़ सूती कपडे से छाती की मालिश करने से श्वसन के साथ ही साथ रक्त संचार भी सुचारु रूप से चलने लगता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए की मसाज करते समय असामान्य बल का प्रयोग बिलकुल ना करें क्योंकि अधिक बल लगाकर मसाज करने से पसलियों के टूटने का खतरा भी बना रहता है।
नाभि की सुरक्षा
सामान्यतः पशुओ में नाभि का जुड़ाव अपने आप ही अलग हो जाता है जिसके बाद नाभि को पोवीडन आयोडीन के घोल में कुछ क्षणों तक डुबाकर रखना चाहिए। यदि नाभि का जुड़ाव अपने से अलग ना हो तो पहले साफ़ धागे से उसे बांधकर, बंधे हुए भाग के नीचे वाले हिस्से को नए ब्लेड या कैंची से काटकर अलग कर देना चाहिए और उस हिस्से पर पोवीडन आयोडीन का घोल लगाना चाहिए।
शारीरिक तापमान नियमन
जैसा की पहले भी बताया जा चुका है की गर्भ में पल रहे बच्चे का तापमान स्थिर रहता है लेकिन जन्म के बाद उसे वातावरण के तापमान के सापेक्ष अपने नियत शारीरिक तापमान को बनाये रखना होता है। यह कार्य तब अधिक कठिन हो जाता है जब मौसम ज्यादा ठंडा हो। इस स्थिति में निम्नलिखित उपाय किये जा सकते है।
- नवजात के शरीर को जल्द से जल्द सूखे कपडे से पोंछकर सूखा किया जाए। इस क्रम में उसे माँ के पास रखना ज्यादा श्रेयस्कर होता है क्योंकि माँ बच्चे को लगातार चाट कर उसके शरीर का गीलापन कम कर देती है और चाटने के कारण बच्चे के शरीर में रक्त संचार भी बढ़ जाता है। (चित्र संख्या – ०१)
- नवजात पशु को किसी गर्म स्थान में ले जाना चाहिए या उसके पास में हीटर या ब्लोअर चलाना चाहिए लेकिन इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए कि कमरे का तापमान बहुत अधिक न बढ़ जाये। बहुत बार पशुपालक हीटर या ब्लोअर चलाकर छोड़ देते है और कमरे का तापमान सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाता है फलस्वरूप पशु को परेशानी होने लगाती है।
- कभी भी कमरे को पूरी तरह बंद न करें एवं कमरे को गरम करने के लिए अंगीठी इत्यादि न जलाएं।
नवजात पशु को खींस/दूध पिलाना
बच्चे को जल्द से जल्द खींस (कोलस्ट्रम) अर्थात ब्याने के बाद का पहला दूध पिलाना चाहिए। यह कार्य एक घंटे के अंदर ही कर लेना चाहिए। इतनी जल्दी खींस पिलाने के निम्नलिखित फायदे होते है।
- नवजात जैसे ही माँ के थनों से दूध खीचता है वैसे ही माँ के शरीर में ऑक्सीटोसिन नामक हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है जोकि जेर/ऑवर/प्लेसेंटा के बाहर निकलने की प्रक्रिया को तेज कर देता है।
- खीस में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने वाले तत्व बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते है। ये तत्व आंतो द्वारा अवशोषित होकर बच्चे के रक्त में पहुंच जाते हैं जिससे बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। लेकिन यह सब तभी संभव है जब हम बच्चे को खींस कम से कम एक घंटे या अधिकतम ६ घंटे के भीतर पिला दें।
- बच्चे के खींस पीते ही शरीर में आतंरिक ऊर्जा उत्पादन शुरू हो जाता है फलस्वरूप शरीर का तापमान भी नियत रहता है।
कृत्रिम खींस निर्माण की प्रक्रिया
प्रथम चरण – एक साबुत अंडे को तोड़कर लगभग ८०० मिलीलीटर दूध में मिला लें
द्वितीय चरण – इस दूध में अब आधा लीटर हल्का गरम पानी मिला लें
तृतीय चरण – एक चम्मच तिल का तेल
चतुर्थ चरण – विटामिन ए,डी, ई का एक कैप्सूल तोड़कर डाल दें
पंचम चरण – एक चम्मच अरण्ड/अलसी का तेल (कब्ज रोधक प्रभाव के लिए)
ऊपर लिखे मिश्रण को अच्छी तरह मिलाकर पहले चार दिनों तक दिन में तीन बार देना चाहिए हालाँकि पांचवे दिन से कृत्रिम खीस में अरंड के तेल का उपयोग रोक सकते हैं क्योंकि पांचवे दिन से नवजात में कब्ज की सम्भावना कम ही रहती है।
नवजात का स्वास्थ्य आँकलन
- तुरंत जन्मे नवजात पशु का स्वस्थ्य आंकलन बहुत आवश्यक है क्योकि जन्म के तुरंत बाद सामान्य सा दिखने वाला बच्चा अगले कुछ घंटे से लेकर कुछ दिनों में गंभीर रूप से बीमार हो सकता है। इसलिए समय से पहले विपरीत स्थिति का आंकलन एवं समय रहते उसका उपचार बहुत आवश्यक बन पड़ता है।
- यदि नवजात बाहर से देखने में सामान्य लग रहा हो लेकिन उसके शरीर में म्यूकोनियम (नवजात पशु द्वारा त्यागा गया पहला मल) लगा हो तो यह समझ जाना चाहिए की वह बहुत अधिक तनाव ग्रस्त है और उसी प्रकार उसे सघन निगरानी में रखते हुए समुचित चिकित्सा उपलब्ध करानी चाहिए।
- निम्न लिखित कुछ सारणियों से नवजात की स्थिति का आंकलन करके उसका प्रबंधन/ प्रारंभिक उपचार भी किया जा सकता है।
प्रक्रियाएँ |
सामान्य | असामान्य |
प्रबंधन/प्रारंभिक उपचार |
ह्रदय गति | 180-200 प्रतिमिनट | 160 या कम प्रति मिनट | सीने की मसाज |
श्वसन | 40-60 प्रतिमिनट | 40 से कम प्रति मिनट | पशु को ज्यादा हवादार स्थान पर ले जाएँ
|
मांसपेशियों की स्थिति | यदि बच्चा एक घंटे तक खड़ा रह सकता है | हमेशा लेटा रहे | 1. नवजात को उत्तेजित करना
2. शरीर की मालिश 3. कैल्शियम पूरक देना (द्रव या इंजेक्शन) |
शारीरिक तापमान | 101-103 oF | 100.5 oF या उससे कम | 1. खींस (दूध) पिलाना
2. हीटर या ब्लोअर का उपयोग |
वैज्ञानिको ने एक और सारणी बनायीं है जिसमें शरीरिक प्रक्रियाओं की तत्कालीन स्थिति के आधार पर अंक निर्धारित किये गए हैं। इस सारणी में शून्य से लेकर तीन अंक तक चार श्रेणियां बनायीं गयी हैं। इस प्रकार यदि नवजात पशु शून्य अंक प्राप्त करता है तो वह पूर्णतः स्वस्थ है और यदि एक अंक प्राप्त करता है तो स्वस्थ की श्रेणी में आता है। दो अंक पाने वाला नवजात आंशिक स्वस्थ है और उसे सघन निगरानी की जरूरत है परन्तु तीन अंक वाला नवजात पशु गंभीर स्थिति में है और उसे तुरंत ही उपचार की आवश्यकता है। सम्बंधित सारणी निम्न प्रकार है।
अंक | शारीरिक तापमान | खांसी की स्थिति | नासिका की स्थिति | आँख व कान की स्थिति |
0 | 100-100.9 oF | नगण्य | पानी की तरह थोड़ा सा श्राव | आँखे चमकदार एवं कान ऊपर की ओर खड़े हुए |
1 | 101-101.9 oF | एक या दो बार | एक तरफ से एवं हल्का सफ़ेद रंग का श्राव | आँखों से बहुत थोड़ा सा श्राव |
2 | 102-102.9 oF | थोड़ी थोड़ी देर में कुछ समय तक | दोनों तरफ से सफ़ेद रंग का श्राव | आँखों से थोड़ा श्राव एवं कान थोड़े से झुके हुए |
3 | 103 oF | लगातार खांसते रहना | दोनों तरफ से अधिक मात्रा में मवाद जैसा श्राव | सर को नीचे झुकाए रखना एवं कान पूरी तरह झुके हुए |
नवजात पशु में निर्जलीकरण (शरीर में पानी की कमी) की स्थिति
यह परिस्थिति दो प्रमुख कारणों से उत्पन्न हो सकती है, १) यदि नवजात पशु उपयुक्त मात्रा में दूध न पी रहा हो, २) बच्चा दस्त से ग्रस्त हो। दोनों ही परिस्थियाँ गंभीर है क्योंकि शरीर में पानी की कमी बच्चे की असमय मृत्यु का कारण बनती है। नवजात पशु की शारीरिक अवस्था अर्थात उसकी सक्रियता को देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी गंभीर है और किस अवस्था में हमें नसों के द्वारा नार्मल सेलाइन (बोतल) चढ़ाने की आवश्यकता है। (चित्र संख्या -04)
ध्यान देने योग्य तथ्य यह की नवजात की मृत्यु का कारण चार प्रतिशत अतिरिक्त निर्जलीकरण है इसलिए हमें ८ प्रतिशत निर्जलीकरण की स्थिति अर्थात जब बच्चा लगातार बैठा रहे एवं सुस्त दिखे तभी नार्मल सैलाइन एवं अन्य उपचार शुरू कर देना चाहिए।
सारांश
यह सर्वविदित तथ्य है कि पशु पालकों की सबसे बड़ी पूँजी उसके पशुओं की संख्या एवं उत्पादकता है। किसी डेयरी फार्म की सफलता के कुछ प्रमुख कारक होते है जिनमे नवजात की मृत्यु दर को कम से कम करना एक प्रमुख कारक है। नवजात के जीवन एवं उसके विकास के लिए उसका स्वास्थ्य प्रबंधन बहुत आवश्यक है। इससे न केवल पशुशाला के पशुओ की संख्या बढती है बल्कि माँ की दुग्ध उत्पादकता भी सुचारु रूप से चलती रहती है। बच्चे के जन्म के तुरंद बाद से लेकर कुछ घंटे तक की सघन निगरानी एवं प्रबंधन उसके स्वस्थ जीवन की कुंजी होते हैं। अतः उपर्युक्त प्रबंधन तकनीकियों को अपनाकर पशुपालक नवजात पशु की मृत्यु दर कम कर सकते हैं और अपने डेयरी फार्म की प्रगति भी कर सकते हैं।
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