वैज्ञानिक ढंग से चना की खेती

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महत्व एवं उपयोग
इस देश में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में चना सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण फसल है। चने का प्रयोग मुख्य रूप से दाल और रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीस कर तैयार किए हुए बेसन से विभिन्न प्रकार की स्वादिष्ट मिठाइयाँ तैयार की जाती हैं। पके हुए चने को तथा पकने से पहले भी चने को छोले के रूप में भूनकर खाया जाता है। इसके अलावा दले हुए या समूचे दाने के रूप में उबालकर या सुखाकर, भूनकर या तलकर, नमकीन आदि बनाने के लिए भी चने का प्रयोग किया जाता है। चने की हरी पत्तियों और दानों का प्रयोग सब्जियों के रूप में किया जाता है।

चना जानवरों और विशेष रूप से घोड़ों को खिलाने में काम आता है। स्कर्वी नाम के रक्त रोग में अंकुति चने को देने से लाभ होता है। चने में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम व अन्य खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।

उत्पत्ति एवं इतिहास
दक्षिणी पूर्वी यूरोप या दक्षिणी-पश्चिमी एशिया चना का उत्पत्ति स्थान माना जाता है। भारत, ग्रीस तथा दक्षिण यूरोप में चने की खेती शताब्दियों से होती है।

वितरण एवं क्षेत्रफल
मुख्य रूप से चने की खेती करने वाले देशों में रूस, मिस्र, भारत, ईरान, ईराक, टर्की, रूमानिया आदि है। भारतवर्ष में चने की खेती विस्तृत क्षेत्र पर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, बिहार और महाराष्ट्र में की जाती है। भारत में मध्य प्रदेश भारत के कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत अकेले उगाता है।

जलवायु
चने की खेती साधारणतया शुष्क फसल के रूप में रबी की ऋतु में की जाती है। न्यून से मध्यम वर्षा और हल्की सर्दी वाले क्षेत्र इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं परन्तु फूलने के बाद वर्षा हानिकारक है। फलियाँ बनते समय यदि वर्षा होती है तो फली बेधक का प्रकोप बढ़ जाता है। चने के अंकुरण एवं पकने के समय उच्च तापक्रम एवं बीच में साधारणतः ढंडक वाला मौसम उपयुक्त है।

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भूमि
चने की खेती हल्की एलुबियल भूमियों में किया जा सकता है। अधिक हल्की एवं अधिक भारी भूमियों में चने की खेती सही प्रकार से नहीं की जा सकती।

खेती की तैयारी
देशी चने के लिए खेत की कोई विशेष तैयारी  करने की आवश्यकता नहीं होती। काबुली चने के लिए खरीफ की फसल कटने के बाद पहली जुताई के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से व दो जुताई देशी हल से करते हैं।

उन्नत जातियाँ
बीज के आकार, रंग, फूलों के रंग आदि के आधार पर, चने की सैकड़ों जातियाँ हैं। साधारणतया चने को दो वर्गों में विभक्त करते हैं – देशी चना तथा काबुली चना।

  1. देशी चना – पूसा – 256, के.पी.जी.-59 (उदय), पंत जी – 186, जी.एन.जी.-1581
  2. काबुली चना – जी.सी.पी.-105, एच.के.-2, एच.के.-5-169

बीजोपचार
बुआई से पूर्व कवकनाशी दवा बैविस्टीन 2.0 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। 24 घंटा बाद कजरा पिल्लू से बचाव हेतु क्लोरपाइरीफास 20 ई.सी. (8 मि.ली./ कि.ग्रा. बीज) उपचार करना चाहिए। कवक एवं कीटनाशी रसायन से उपचारित बीज को 2 घंटे तक छाया में सुखाने के बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए। बीज उपचार करने के लिए राइजोबियम कल्चर का व्यवहार 5 पैकेट/हे. की दर से करना चाहिए।

बीज दर व अन्तरण – 75-80 कि.ग्रा./हेक्टर; पंक्ति से पंक्ति एवं बुआई की दूरी – 30 ग 10 से.मी.

उर्वरक
20 किलोग्राम नत्रजन, 45 किलोग्राम स्फुर, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक/हे. (100 किलोग्राम डी.ए.पी., 33 किलोग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश एवं 125 किलोग्राम फाॅस्फोजिप्सम/हे.)

उपज
वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर औसतन 20-25  कु./हे. तक उपज प्राप्त हो जाती है।

रोग व उनकी रोकथाम
उकठा: यह रोग फ्यूजेरियम आॅक्सीस्पोरम नाम फफँूद से लगता है। इसके प्रभाव से पौधे की पत्तियाँ पीली पड़ जाती है। तने के ऊपर लम्बवत् चिरान जैसी तम्बाकू के रंग की धारी दिखाई पड़ती है जिससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है।

  1. उकठा लगे खेत में 3 वर्ष तक चना न उगाएँ।
  2. बीज को बोने से पहले कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा 6 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए।
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अंगमारी या झुलसा: यह रोग भी फफँूद से लगता है। सुबह सुबह खेत में देखने पर कहीं-कहीं टुकड़ों में पौधे पीले पड़ते नजर आते हैं। यह बीमारी बीज से फैलती है। पत्तियों के तने, पत्तियों पर भूरे धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में पीले रंग के हो जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिये मैंकोजेब फफूंदनाशी दवा 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

चने के कीट एवं उनकी रोकथाम
दीमक: यह चने का बड़ा भयंकर कीट है। यह रबी की सभी दाल वाली फसलों को हानि पहुँचाता है। यह पौधे के तने को भूमि के पास से खाता है और पौधे पर चढ़कर पत्तियों को भी हानि पहुँचाता है। इनकी रोकथाम के लिए बुआई से पूर्व खेत क्लोरपाईरीफास धूल को 25 कि.ग्रा/हे. की दर से मिट्टी में मिला दें अथवा बीज को क्लोरपाइरीफास 20 ई.सी. (8 मि.ली./कि.ग्रा. बीज) की दर से बुआई से पूर्व उपचारित करना चाहिए।

चने की फली बेधक कीट: इसकी गिंडार या सूँडी या इल्ली चने की फलियों में छेद करके दाने खा जाती है।

रोकथाम के उपाय

  1. फसल के पास प्रकाश प्रपंच की मदद से प्रौढ़ कीटों को एकत्र करके नष्ट कर देना चाहिए।
  2. अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी रसायन प्रोफेनोफास का 5 लीटर प्रति हेक्टर की दर से 600 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर 1 हेक्टयर फसल पर छिड़काव करें। 15 दिन बाद उपरोक्त मात्रा का दूसरा छिड़काव भी करें।
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