प्रजनन क्षमता आनुवंशिकी व गैर आनुवंशिकी कारकों द्वारा नियन्त्रित एक जटिल घटना है। गैर आनुवंशिकी कारकों में जलवायु, पोषण और प्रबन्धन के स्तर हैं। प्रजनन क्षमता न केवल प्रजातियों व नस्ल के बीच, बल्कि यह भी एक नस्ल विशेष के पशुओं के बीच में भी परिवर्तनशील होती है। अच्छा खान-पान व प्रबन्धन भी कम आनुवंशिकी वाले पशुओं की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ा सकता है। सभी स्तरों पर पशुधन की आनुवंशिकी गुणों में सुधार करना महत्त्वपूर्ण है। एक सही प्रजनन कार्यक्रम, पशु उत्पादन प्रणाली का एक जरूरी हिस्सा है। पशुओं की उत्पादन क्षमता व शारीरिक स्वरूप में सुधार लाना बहुत जरूरी है।
पशुओं में गर्भाधान के प्रकार
पशुओं में गर्भाधान दो प्रकार से होता है:
- प्राकृतिक गर्भाधान
- कृत्रिम गर्भाधान
प्राकृतिक गर्भाधान
गर्भाधान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और परिपक्व नर पशुओं द्वारा नैसर्गिक रूप से मादा पशु के साथ संभोग ही प्राकृतिक गर्भाधान है। इसमें मादा और नर के मिलन से मादा पशुओं में गर्भधारण होता है।
प्राकृतिक विधि में एक साँड द्वारा एक वर्ष में केवल 50-60 मादाओं को ही गर्भित किया जा सकता है। अत: प्राकृतिक गर्भाधान के द्वारा केवल कुछ चुनिंदा उत्कृष्ट साँडों का उपयोग केवल कुछ ही मादाओं के लिए संभव है। इस विधि के प्रचलन से मादाओं के लिए एक साँड की आवश्यकता हर समय होती ही है जिसका पशुपालक को अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है। पशुओं में इनब्रीडिंग को नियंत्रित करने के लिए पशुपालकों को हर तीन वर्ष बाद साँड को बदलना पड़ता है। इस विधि में साँड के संक्रमित होने पर मादाओं में भी संक्रमण फैलने का खतरा रहता है। समय के साथ-साथ परिवर्तनशील औद्योगीकरण के दौर में पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की आवृति लगातार बढ़ने से प्राकृतिक गर्भाधान की प्रवृति कम हो रही है।
कृत्रिम गर्भाधान
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी कला या विधि है जिसमें साँड से वीर्य लेकर उसको विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संचित किया जाता है। यह संचित किया हुआ वीर्य तरल नाइट्रोजन में कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इस संचित किए हुए वीर्य को मद में आई मादा के गर्भाश्य में रखने से मादा पशु का गर्भाधान किया जाता है। गर्भाधान की इस विधि को कृत्रिम गर्भाधान कहा जाता है। कृत्रिम गर्भाधान उच्च आनुवंशिक क्षमता वाले पशुधन प्रदान करने वाली चल रही तकनीकों का परिणाम है। प्रारंभ में कृत्रिम गर्भाधान योनि विधि द्वारा किया जाता था जिसमें वीर्य को योनि वीक्षणयंत्र (वैजाइनल स्पेकुलम) की सहायता से केथेटर द्वारा पशु के गर्भाशय ग्रीवा में रखा जाता था। लेकिन अब पूरे विश्व में मलाशय-योनि विधि (रेक्टो वैजाइनल) विधि द्वारा किया जाता है। निम्नलिखित लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान किया जाता है:
- नस्ल सुधारीकरण।
- बीमारियों को नियन्त्रित करना।
- गर्भधारण क्षमता को बढ़ाना।
- नस्ल सुधारीकरण का खर्च कम करना।
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान का इतिहास
- हालांकि, यह प्रलेखित नहीं है लेकिन कृत्रिम गर्भाधान का पहला ज्ञात प्रयोग अरब देशों में घोड़ों की ब्रीडिंग में किया बताया जाता है। 14वीं शताब्दी (1322) में प्रकाशित एक अरबी पुस्तक के अनुसार, डारफुर के एक प्रमुख सरदार ने दुश्मन की एक घोड़ी जो रात के समय में एक प्रसिद्ध घोड़े के साथ बंधी थी, की योनि में कपास की एक गेंद डाल दी। 24 घंटे के बाद, वह जल्दी-जल्दी अपने घर चला गया और कपास की उस गेंद को अपनी घोड़ी की योनि में रख दिया। घोड़ी गर्भवती हुई और उसने एक बच्चे़ को जन्म दिया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1677 में प्रजनन फिजियोलॉजी के अध्ययन में एक प्रमुख तकनीकी सफलता वान लीउवेनहोएक नामक एक डच वैज्ञानिक द्वारा हासिल की, जिन्होंने एक साधारण माइक्रोस्कोप विकसित किया और वीर्य के परीक्षण के दौरान इसमें स्थानांतरित होते छोटे कण होने की पुष्टि की। उन्होंने इन कणों को ‘एनिमलक्यूल्ज’ नाम से संदर्भित किया और 1677 में एक पत्र प्रकाशित किया।
- 1780 में इटली के शरीरक्रिया वैज्ञानिक लाज्जारो स्पल्लनजानी ने कुत्तिया में कृत्रिम गर्भाधान के लिए शारीरिक तापमान पर वीर्य का उपयोग कर गर्भधारण में सफलता हासिल की। उन्हें आधुनिक कृत्रिम गर्भधान का जनक कहा जाता है (Herman & Ragsdale 1946, Patel et al. 2017)। ऐसा माना जाता है कि स्पल्लनजानी ने सबसे पहले मानव शुक्राणु पर ठण्डक के प्रभावों की रिपोर्ट की थी, 1776 में, उन्होंने बताया कि बर्फ से ठंडा होने पर शुक्राणु गतिहीन हो जाते हैं (Ombelet & Van Robays 2015)।
- 1876 में यूरोप में प्लानिस ने कृत्रिम गर्भाधान से एक कुत्तिया को गर्भित किया था।
- 1899 में रूस में सेना के लिए घोड़ो का आवश्कता को पूरा करने के लिए अश्वों में कृत्रिम प्रजनन आरंभ हुआ (Ivanoff 1922, Foote 2002)।
- 1896 में अमेरिका में 19 कृत्तियों की योनि में वीर्य सेचन किया गया, जिनमें से 15 गर्भित हुई और बच्चे जन्मे।
- 1907 में इवानोव ने घरेलू पालतु पशुओं, कुत्तों, लोमड़ियों, खरगोशों और मुर्गों में कृत्रिम गर्भाधान का अध्ययन किया जिनके खासतौर से घोड़ों पर हुए शोध, जॉनरल ऑफ एग्रीकल्चरल सांईंस के जुलाई 1922 के अंक में प्रकाशित हुए (Foote 2008)।
- 1909 में रूस में घोड़ियों को कृत्रिम विधि से वीर्य सेचन किया गया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1914 में रोम विश्वविद्यालय में मानव शरीर विज्ञान के प्रोफेसर जी. अमंतिया ने कुत्ते से वीर्य संग्रह के लिए पहली कृत्रिम योनि विकसित की।
- 1922 में, ई. आई. इवानोफ, एक प्रख्यात रूसी अन्वेषक और कृत्रिम गर्भाधान में अग्रणी, गायों और भेड़ों में कृत्रिम गर्भाधान को सफलतापूर्वक करने वाले पहले व्यक्ति थे (Patel et al. 2017)।
- 1928 में रूस में गायों में कृत्रिम गर्भाधान शुरू किया गया और 1938 तक लगभग 15 लाख गायों में इसका उपयोग किया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1937 में डेनिश पशु चिकित्सकों ने कृत्रिम गर्भाधान के लिए रेक्टोवैजाइनल अर्थात सरवाइकल निर्धारण विधि विकसित की (Patel et al. 2017)।
- 1937 में, बुरो और क्विन ने पोल्ट्री क्षेत्र में मुर्गे के पेट की मालिश और दबाव की आसान विधि विकसित की (Foote 2002)। जैसा कि पोल्ट्री फार्मों पर मुर्गे और मुर्गियां साथ-साथ पाली जाती हैं, इसलिए मुर्गियों में कृत्रिम गर्भाधान का उपयोग बड़े पैमाने पर ताजा एकत्र किये गये वीर्य का उपयोग किया जाता है।
- 1938 मई, अमेरिका में पहला गौ-कृत्रिम प्रजनन संघ न्यू जर्सी के क्लिंटन में आयोजित किया गया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1939 में 1 नवंबर को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा गर्भित की गई पहली खरगोश को संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क एकाडमी ऑफ मेडिसिन की 12वीं एन्नुअल ग्रेजुएट फोर्टनाईट में प्रदर्शित किया गया (Ombelet & Van Robays 2015)।
- 1938 में, रूस में मिलोवानोव ने रूस में ठोस जिलेटिन में युक्त शुक्राणुओं से पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान के प्रयास को रिपोर्ट किया। संतोषजनक परिणामों के साथ भेड़ों में गर्भाधान के लिए इस पद्धति को उपयोग किया गया था। प्रयोगात्मक रूप से, गायों के गर्भाधान के लिए भी इस पद्धति का उपयोग किया गया है, लेकिन परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है। 1939 में सोरेंसन ने भी शुक्राणु युक्त ठोस जिलेटिन कैप्सूल का उपयोग गायों में किया जिसे उन्होने प्रयोगात्मक रूप से बेहद मुश्किल बताया लेकिन ठोस जिलेटिन ने कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता सुलझाने में सहायता की (Sørensen 1940)। वीर्य को स्ट्रा के रूप में पैकिंग करना कृत्रिम गर्भाधान के लिए एक और उन्नति की राह थी। यह कार्य सबसे पहले एडुआर्ड सोरेंसन द्वारा किया गया था, जिन्होंने प्रारंभ में जई के खोखले तिनकों अर्थात ओट स्ट्राज का उपयोग किया था। एक दिन उन्होंने अपनी बेटी के जन्म दिन पर सेलोफन से बने स्ट्रा से पेय पदार्थ के पात्र में सुराख करके तरल पीते हुए देखा और उन्होने सेलोफेन से बने स्ट्राज को कृत्रिम गर्भाधान के लिए उपयोग किया (Sørensen 1940)। इसके बाद इन्हीं के आधार पर 1964 में कासो द्वारा डिजाइन किए गए वाणिज्यिक स्ट्राज विकसित हुए और आज भी दुनिया भर में इनका उपयोग किया जाता है (Foote 2002)।
- 1940 में, फिलिप्स और लार्डी ने रेफरीजरेटिड बुल स्परमेटाजोआ की उर्वरता और गतिशीलता को संरक्षित करने के लिए एग योक फॉस्फेट डायल्यूटर विकसित किया (Patel et al. 2017)।
- 1941 में, सैलिसबरी और सहयोगियों ने एग योक साइट्रेट डायल्यूटर (Egg yolk citrate diluter) विकसित किया (Patel et al. 2017)।
- 1948 में ट्रिमबर्गर ने अंडाशय के निरीक्षण और प्रजनन आंकड़ों के आधार पर डेयरी पशुओं में गर्भाधान के लिए दोपहर पहले और दोपहर बाद का नियम प्रस्तावित किया। इस नियम के अनुसार, सर्वोत्तम प्रजनन क्षमता के दोपहर पहले (ए.एम.) मद में आयी गायों को उसी दिन दोपहर बाद (पी.एम.) और दोपहर बाद मद में आयी गायों को अगले दिन दोपहर पहले गर्भाधान किया जाना चाहिए (Foote 2002)। उनके द्वारा बताया गया नियम आज भी कामयाब कृत्रिम गर्भाधान का सूत्र माना जाता है।
- 1949 में, पॉज़, स्मिथ और पार्क्स ने जमे हुए वीर्य प्रौद्योगिकी में ग्लिसरॉल के क्रायोप्रोटेक्टिव प्रभाव की खोज की (Patel et al. 2017)।
- 1950 के दसक में वीर्य को -79 डिग्री सेंटीग्रेड पर कार्बन डाइऑक्साइड की बजाय तरल नाइट्रोजन में -196 डिग्री सेंटीग्रेड किया जाने लगा जिसके परिणाम स्वरूप वीर्य में मौजूद शुक्राणुओं की जीवित रहने की अनंत दर थी (Foote 2002)।
- 1951 में स्टीवर्ड ने पोलजे और स्मिथ के सहयोग से हिमीकृत वीर्य के साथ गर्भाधान से पहले बछड़े के जन्म की सूचना दी।
- 1960 में एडलर ने तरल नाइट्रोजन वाष्प का उपयोग करके स्ट्रा में वीर्य को हिमीकृत करने की पहली तकनीक विकसित की जिसका उपयोग आज भी किया जा रहा है।
- 1963 में नागासे और नीवा ने जापान में पेलेट फॉर्म में साँड के वीर्य को हिमीकरण की तकनीक विकसित की।
- 1964 में, कासो ने सीमन स्ट्रा के आकार को कम किया और इसे मिडियम फ्रेंच स्ट्रा का नाम दिया। 5 मि.ली. की वीर्य क्षमता वाले इन सीमन स्ट्रा की लंबाई 135 मि.मी. और 2.8 मि.मी. व्यास था। 1968 में कासो ने मिडियम फ्रेंच स्ट्रा का आकार कम करके 0.25 मि.ली. क्षमता वाले 2.0 मि.मी. व्यास के किया जिसे मिनी फ्रेंच सीमन स्ट्रा नाम दिया।
- 1972 में जर्मनी में मिनी ट्यूब या जर्मन स्ट्रॉ या ‘लांसशूट प्रणाली’ नामक एक प्लास्टिक स्ट्रॉ विकसित किया गया था। इन स्ट्रॉज को धातु या कांच या प्लास्टिक की छोटी गेंदों से सील किया जाता था।
- 1974 में जापानी वैज्ञानिक निश्चेवा और सहयोगियों ने पहली बार -265° सेंटीग्रेड पर तरल हीलियम गैस में वीर्य को हिमीकृत किया लेकिन इसका उपयोग प्रचलन में नहीं है।
- लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग का इतिहास 1982 में शुरू हुआ। हालांकि, 2010 तक इसके वांछनीय परिणाम दिखायी नहीं दिये लेकिन इसके बाद 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंत तक इसके बहुत अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इस दिशा में आधुनिक प्रौद्योगिकी में सुधार होने के साथ-साथ लिंग वर्गीकृत वीर्य के परिणाम और बेहतर होने की संभावना है जिससे डेयरी व्यवसाय में और तेजी होगी।
भारत में कृत्रिम गर्भाधान का इतिहास
- 1939 में, भारत में पहली बार संपत कुमारन द्वारा पैलेस डेयरी फार्म मैसूर की गायों में कृत्रिम गर्भाधान किया गया और 33 होलिकर गायों को गर्भित किया (Patel et al. 2017)।
- 1942 में भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था, जिसमें डा. पी. भट्टचार्य के मार्गदर्शन में कृत्रिम गर्भाधान की टीम का अध्ययन किया गया था, जिसमें डा. एस.एस. प्रभु, डा. डी.पी. मुखर्जी, डा. एस.एन. लुक्टुके, डा. ए. रॉय और डा. गर्जन सिंह शामिल थे। इस टीम ने स्वीकार किया कि इस तकनीक का उपयोग भारतीय परिस्थिति में किया जा सकता है, तब से यह तकनीक सामान्य रूप से गायों और भैंसों के प्रजनन के अभ्यास के रूप में उपयोग में आ गई है।
- 1942 में भारत सरकार द्वारा बैंगलोर, कलकत्ता, पटना और मोंटगोमरी (अब पाकिस्तान) में चार क्षेत्रीय केंद्र स्थापित किए गए।
- 1943 में, कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से पहला भैंस का काफ इलाहाबाद कृषि संस्थान में पैदा हुआ (Patel et al. 2017)।
- 1951–56 में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951–56) में भारत सरकार ने गायों और भैंसों की नस्ल सुधार के लिए लिए 150 गाँवों में ‘की विलेज’ केंद्र शुरू किए।
- 1956-61 में द्वितीय पंचवर्षीय योजना में 400 गांवों में ‘की विलेज’ केंद्रों में शुरू करके कृत्रिम गर्भाधान के कार्य को बढ़ावा दिया।
कृत्रिम गर्भाधान के फायदे
- इस विधि से अच्छे सांडों का सही उपयोग किया जा सकता है। प्राकृतिक तरीके से एक साँड बहुत कम (50-60) मादाओं का गर्भाधान करता है। लेकिन इस विधि से एक अच्छे साँड से 5,00,000 मादाओं को गर्भित की किया सकता है। इस प्रकार अच्छे सांडों से ज्यादा बच्चे पैदा किए जा सकते हैं।
- साँड की मृत्यु के पश्चात भी संचित वीर्य से इस विधि द्वारा मादाओं को गर्भित किया जा सकता है।
- इस विधि के अपनाने से बहुत दूर यहाँ तक कि विदेशों में पाले जाने वाले उत्तम नस्ल एवं गुणों वाले साँड के वीर्य को भी प्रयोग करके लाभ उठाया जा सकता है।
- जनानांगों की बीमारियों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है। इस विधि में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है जिससे मादा की प्रजनन की बीमारियों में काफी हद तक कमी आ जाती है और गर्भधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है।
- इस विधि में नर से मादा तथा मादा से नर में फैलने वालें संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है।
- इस विधि द्वारा अच्छे मंहगे साँड का वीर्य भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
- इस विधि में धन एवं श्रम की बचत होती है क्योंकि पशुपालक को साँड पालने की आवश्यकता नहीं है अत: साँड के रखने का खर्च बचाया जा सकता है।
- इस विधि में साँड के आकार या भार का गर्भाधान के समय कोई फर्क नहीं पड़ता है।
- इस विधि में विकलांग गायों/भैंसों का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है।
- इस विधि में पशु का प्रजनन रिकार्ड रखने में आसानी होती है।
- कृत्रिम गर्भाधान में लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग कर अधिक से अधिक मादा पशु पैदा किये जा सकते हैं और नर पशुओं को नियंत्रित किया सकता है व दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी से किसानों की आय को भी बढ़ाया जा सकता है।
कृत्रिम गर्भाधान की सीमाएं
कृत्रिम गर्भाधान के बहुत से फायदे होने के बावजूद इस विधि की कुछ अपनी सीमाएं भी हैं, जो इस प्रकार हैं:
- जेनेटिक पूल में कमी: बहुत से वैज्ञानिकों द्वारा यह आशंका व्यक्त की गई है कि कृत्रिम गर्भाधान के उपयोग से कुछ उत्कृष्अ साँडों द्वारा प्रजनन लाइनों के वर्चस्व का परिणाम होगा, जिसके परिणामस्वरूप आनुवंशिक पूल में कमी होगी।
- मादाओं के गर्भाधान के लिए प्राप्त वीर्य की गुणवत्ता में महत्वपूर्ण भिन्नता कृत्रिम गर्भाधान के उपयोग में एक वर्तमान समस्या है।
- रिपीटर्स की दरों में वृद्धि: जब कृत्रिम गर्भाधान की तुलना प्राकृतिक गर्भाधान से की जाती है, तो यह स्पष्ट होता है कि बार-बार किये जाने वाले गर्भाधान की आवश्यकता होती है। यह मादा के मद का अनुचित पता लगने के कारण होती है जिससे पशुपालकों को निराशा होती है और संभावित रूप से कृत्रमि गर्भाधान की लागत बढ़ जाती है।
- कृत्रिम गर्भाधान के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति या पशु चिकित्सक की आवश्यकता होती है जिसे मादा मादा पशु के प्रजनन अंगों की पूरी जानकारी होना अतिआवश्यक है।
- इस विधि के दौरान मद में आई मादा को अच्छी तरह से काबू किया जाता है।
- इस विधि में विशेष यंत्रों की आवश्यकता के साथ-साथ उनकी साफ-सफाई की आवश्यकता भी होती है।
- इस विधि में असावधानी की स्थिति में या साफ-सफाई का ध्यान न रखने से गर्भधारण की दर में कमी भी आ सकती है।
- इस विधि में यदि पूर्ण सावधानी न बरती जाए तो दूरवर्ती क्षेत्रों या विदेशों से वीर्य के साथ कई संक्रामक रोगों के आने का खतरा रहता है।
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान को विकसित करने के प्रयास के शुरुआती चरणों में कई बाधाएं थीं। आम जनता अनुसंधान के खिलाफ थी और साथ में यह भी डर था कि इससे असामान्यताएं बढ़ेंगी। शुरूआती दौर में प्रजनकों (Breeders) को आशंका थी कि इससे उनके सांडों की मार्किट नष्ट हो जायेगी जिस कारण उन्होने इसका विरोध किया गया और इसी विरोध के कारण अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त धन को जुटाना भी मुश्किल था। भारत में तो और भी हालात ज्यादा मश्किल थे क्योंकि भारतवर्ष में गाय को माता कहा जाता है जिस कारण कृत्रिम गर्भाधान को शुरूआती दौर में नकारा गया। लेकिन भारत सहित पूरे विश्व में बदलते व्यवसायिक परिवेश ने धीरे-धीरे आम जनता की धारणाओं को बदला और पूरे विश्व में पशुओं कृत्रिम गर्भाधान किया जा रहा है। अब तो इसका उपयोग महिलाओं में भी किया जाता है। कृत्रिम गर्भाधान के तथ्यों को विस्तारित करने में विस्तार सेवा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कृत्रिम गर्भाधान के अनुभव से प्राप्त ज्ञान जैसे कि प्रजनन तकनीक, सुपरोव्यूलेशन, भ्रूण स्थानांतरण और क्लोनिंग, ने चरणबद्ध बेहद मददगार भूमिका निभाई। इसके साथ ही आम जनता तक अच्छी जानकारी पहुंचायी जा रही है जो इस जानकारी को सुगमता से ग्रहण भी कर रही है। इसका अंतर्निहित नैतिक अनुप्रयोग, पूरे समुदाय को लाभान्वित करके, सकारात्मक बदलाव ला सकता है। अच्छा लक्ष्य, आवश्यक ज्ञान और कौशल विकास, और नैतिक विचार सभी किसी भी प्रौद्योगिकी के आवश्यक घटक हैं जिसके परिणामस्वरूप समाज और पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार, कृत्रिम गर्भाधान का प्रभाव मादा गायों और भैंसों को गर्भ धारण करवाने का असरदार रहा है और पशुपालकों के हित में होता रहेगा।
संदर्भ
- Foote, R.H., 2002. The history of artificial insemination: Selected notes and notables. J. Anim. Sci, 80, pp.1-10. [Web Reference]
- Foote, R.H., 2008. 1808 PD: The history of artificial insemination. Progressive Dairy. [Web Reference]
- University of Missauri College of Agricultural Experiment Station. Bulletin 494 (January). [Web Reference]
- Herman, H.A. & Ragsdale, A.C., 1946. ARTIFICIAL INSEMINATION of DAIRY CATTLE. University of Missauri College of Agricultural Experiment Station. Bulletin 494 (January). [Web Reference]
- Ivanoff, E.I., 1922. On the use of artificial insemination for zootechnical purposes in Russia. The Journal of Agricultural Science, 12(3), pp.244-256. [Web Reference]
- Ombelet, W. and Van Robays, J., 2015. Artificial insemination history: hurdles and milestones. Facts, views & vision in ObGyn, 7(2), p.137. [Web Reference]
- Patel, G.K., Haque, N., Madhavatar, M., Chaudhari, A.K., Patel, D.K., Bhalakiya, N., Jamnesha, N., Patel, P. and Kumar, R., 2017. Artificial insemination: A tool to improve livestock productivity. J. of Pharmacognosy and Phytochem, 1, pp.307-13. [Web Reference]
- Sørensen, E., 1940. Insemination with gelatinized semen in paraffined cellophane tubes. Medlernsbl. Danske Dyrlaegeforen, 23, pp.166-169. [Web Reference]
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