1. अलगाव/ आइसोलेशन
पशु समूह से बीमार पशु को अलग रखकर उसकी चिकित्सा एवं देखभाल करनी चाहिए। इन बीमार पशुओं के लिए अलग से परिचर हो तो अधिक उत्तम होगा अन्यथा की स्थिति में पहले स्वस्थ पशुओं की देखभाल करने के पश्चात बीमार पशु की देखभाल करनी चाहिए।
रोगी पशुओं को चारागाह में चरने के लिए पशु मेलों में बिक्री के लिए नहीं भेजना चाहिए। इनके चारा पानी में प्रयोग होने वाले पात्र अलग होने चाहिए। रोगी पशु के गोबर व मूत्र को अलग गड्ढे में दबाना चाहिए।
रोगी पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति विशेष को देखभाल करने के पश्चात अपने हाथों और पैरों को जीवाणु नाशक घोल से स्वच्छ कर लेना चाहिए। अगर इसी परिचर को स्वस्थ्य पशुओं के समूह में जाना हो तो अपने आप को पूर्णरूपेण शुद्ध होकर जाना चाहिए जिससे किसी भी प्रकार से बीमारी का संक्रमण स्वस्थ पशुओं में न हो सके।
2. रुकावट/ क्वॉरेंटाइन
नए क्रय किए हुए पशुओं को अपने यहां रखे गए पशु समूह से अलग रखना चाहिए। यह अवधि 10 से 15 दिन तक हो सकती है। इस अवधि में यह ज्ञात हो जाएगा कि पशु बीमार है अथवा नहीं । क्योंकि नए आने वाले पशु देखने में तो स्वस्थ लग सकते हैं परंतु किसी अज्ञात संक्रामक रोग से पीड़ित भी हो सकते हैं। इस अवधि में वह रोग उभरकर सामने आ जाएगा जिससे पशु संक्रमित है। यह तरीका संक्रामक और छूतदार बीमारियों के फैलने से रोकने के लिए अत्याधिक कारगर उपाय है। सरकार की तरफ से प्रत्येक राज्य की सीमाओं पर अथवा देश की सीमाओं पर क्वारंटाइन स्टेशन बनाए जाते हैं। यह उन्हीं स्थानों पर बनाए जाते हैं जहां पशुओं की आवाजाही अधिक होती है। इन स्थानों पर पशु चिकित्सकों को नए खरीदे पशुओं की ब्रूसेलोसिस, ट्यूबरक्लोसिस, जॉनीज डिसीज तथा अन्य बीमारियों की जांच देखभाल के लिए रखा जाता है।
3. पशु आवासों का रोगाणुनासन
- आवासों की दीवारों पर सफेदी जिसमें कार्बोलिक एसिड मिला हो उससे करानी चाहिए।
- डेरी भवनों की भीतरी दीवारों, फर्स व यंत्रों को यथासमय 3% गर्म सोडाछार के पानी से धोना चाहिए। इसके बाद 5% फिनाइल के घोल से धोना चाहिए।
- दीवारो, फर्स् तथा अन्य स्थान जहां पशु मल मूत्र त्याग करते हैं वहां पर चूने की थोड़ी मात्रा का छिड़काव करना चाहिए। ऐसा करने से रोगों के जीवाणु जमीन पर पनप नहीं पाते और गोबर की गुणवत्ता बढ़ती है।
- फुमिगेशन: 15 से 20 मिलीलीटर फॉर्मलीन को 15 ग्राम पोटेशियम परमैग्नेट में मिलाकर एक घन मीटर स्थान का फूमीगेशन कर करते हैं, जो समस्त प्रकार के कीटाणुओं को समाप्त करने में सक्षम है।
4. रोग ग्रस्त पशुओं को नष्ट करना
स्वस्थ पशुओं को नष्ट करना अवैधानिक एवं अमानुषिक कृत्य है। परंतु गंभीर रूप से रोग ग्रस्त मरणासन्न पशुओं को जो स्वस्थ पशुओं के जीवन के लिए खतरा बने ऐसे रोग ग्रस्त पशुओं को पशु चिकित्सक की सलाह से या पशु चिकित्सक के द्वारा मानवीय विधियों को अपनाते हुए नष्ट करना आवश्यक होता है। इस विधि को यूथेनेसिया कहते हैं। इस विधि के द्वारा पशु बिना कष्ट के ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। पीड़ा विहीन मृत्यु पशु चिकित्सक के द्वारा की जानी चाहिए।
5. शवों का निस्तारण
पशु के शव को दो प्रकार से निस्तारित करते हैं:
दफनाना: पशु के शवों के निस्तारण की सर्वाधिक प्रचलित विधि है। शव के आकार के अनुसार गड्ढा खोदकर उसमें शव के पशु का बिछावन तथा जिस स्थान पर पशु पड़ा था वहां पर कम से कम 5 सेंटीमीटर तक की मिट्टी पशु का मल मूत्र एवं अन्य स्राव आदि दफना देते हैं। पशु के शव पर पर्याप्त मात्रा में दफनाते समय साधारण नमक व चूने का छिड़काव भी करते हैं। शव दफनाते समय शव के ऊपर 1 मीटर से 1.5 मीटर ऊंची मिट्टी की परत होनी चाहिए। दफनाए गए शव की रक्षा हेतु शव की मिट्टी पर फिनायल या मिट्टी का तेल आदि का छिड़काव करना चाहिए।
जलाना: स्वच्छता की दृष्टि से यह एक उत्तम विधि है। शव के आकार के अनुसार आधा मीटर गहरी खाई खोदकर लकड़ी भरते हैं तथा उन पर लोहे की छड़ डालकर पशु के शव को रखकर जला देते हैं। बिछावन एवं अन्य श्राव आदि भी ऊपर से डालकर जला देते हैं।
पशु शव जहां पड़ा था यदि वहां की फर्श पक्की हो तो उस स्थान को 3% सोडा के गर्म घोल से धोकर साफ कर देना चाहिए उसके पश्चात 2% लाइसोल या फिनायल 5% के घोल का छिड़काव कर 24 घंटे तक छोड़ देना चाहिए। इससे यह स्थान पूर्णरूपेण जीवाणु रहित हो जाता है।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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