डेयरी व्यवसाय कृषि संबंधी गतिविधियों का अभिन्न अंग है जो पारिस्थितिकी तंत्र का एक हिस्सा है। यह ग्रामीण आंचल में आजीविका का एक परंपरागत स्त्रोत तो है ही साथ ही यह भारत की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। डेयरी व्यवसाय का सीधा संबंध दुग्ध उत्पादन से है, जिसे बेचकर पशुपालक आय अर्जित करते हैं। पशुओं से अधिकाधिक दुग्ध उत्पादन हेतु उनको संतुलित आहार खिलाना अतिआवश्यक है।
संतुलित आहार का तात्पर्य ऐसे आहार से है जिसमें पशु की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सभी आवश्यक मौलिक पोषक तत्त्व संतुलित मात्रा में हों। पशु के आहार की मात्रा का निर्धारण उसके शरीर की आवश्यकता व कार्य के अनुरूप तथा उपलब्ध भोज्य पदार्थों में पाए जाने वाले पोषक तत्वों के आधार पर गणना करके किया जाता है। इसके अनुसार मोटे तौर पर वयस्क दुधारू पशु के आहार को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है:
- अनुरक्षित आहार: यह शरीर को स्वतः रखने की आहार की वह मात्रा है जिससे पशु अपने शरीर के तापमान को उचित सीमा में बनाए रखने, शरीर की आवश्यक क्रियाएं जैसे पाचन क्रिया, रक्त परिवहन, श्वसन, उत्सर्जन, चयापचय आदि के लिए काम में लाता हैं। इससे उसके शरीर का भार भी एक सीमा में स्थिर बना रहता हैं। चाहे पशु दुग्धोत्पादन में हो या न हो इस आहार को उसे प्रदान करना आवश्यक है।
- विकासात्मक आहार: यह आहार की वह मात्रा जो पशुओं का खासतौर से छोटे बच्चों की शारीरिक विकास-वृद्धि के लिए आवश्यक होती है। पशुओं के छोटे बच्चों की उचित विकास-वृद्धि किसी भी पशुपालक की उन्नति का लिए अच्छा संकेत माना जाता है।
- दुग्धोत्पादक आहार: यह आहार की वह मात्रा है जिसे पशु को जीवन निर्वाह के लिए दिए जाने वाले आहार के अतिरिक्त उसके दुग्ध उत्पादन के लिए दिया जाता है। इसके अभाव में वह कमजोर होने लगता है जिसका प्रभाव उसकी उत्पादन तथा प्रजनन क्षमता पर पड़ता है।
- गर्भावस्था आहार: पशु की गर्भावस्था में उसे पाँचवे महीने से अतिरिक्त आहार दिया जाता है क्योंकि इस अवधि के बाद गर्भ में पल रहे बच्चे की वृद्धि बहुत तेजी के साथ होने लगती है। अतः गर्भ में पल रहे बच्चे की उचित वृद्धि व विकास के लिए तथा मादा के अगले ब्यांत में सही दुग्ध उत्पादन के लिए इस आहार का देना अतिआवश्यक है। इससे पशु अगले ब्यांत में अपनी क्षमता के अनुसार अधिकतम दुग्धोत्पादन कर सकते हैं।
आहारीय पोषक तत्वों का महत्त्व
शरीर को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए आहारीय पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है। पशु आहार में पाए जाने वाले विभिन्न पदार्थ शरीर की विभिन्न क्रियाओं में इस प्रकार उपयोग में आते हैं:
- शरीर के तापमान को बनाए रखने के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं।
- शरीर की विभिन्न चयापचयी क्रियाओं, श्वासोच्छवास, रक्त प्रवाह और समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं हेतु ऊर्जा प्रदान करते हैं।
- शारीरिक विकास-वृद्धि, गर्भस्थ शिशु के विकास तथा दुग्धोत्पादन आदि में सहायक होते हैं।
- जीवन पर्यन्त कोशिकाओं और ऊतकों की होने वाली टूट-फूट की मरम्मत के लिए आवश्यक होते हैं।
आहारीय तत्व
रसायनिक संरचना के अनुसार शर्करा, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण तथा विटामिन भोजन के प्रमुख तत्त्व हैं। पशुओं को ये सभी तत्त्व उन्हें पेड़ पौधों से, हरे चारे या सूखे चारे अथवा दाने से प्राप्त होते हैं। इनके अलावा आहारीय रेशे और पानी भी उतने ही आवश्यक हैं जितने ये तत्त्व आवश्यक होते हैं।
- पानी: पानी आहार का एक मुख्य घटक है जिसके बिना शरीर की कोई भी क्रिया संभव नहीं है। पानी शरीर की हर रसायानिक क्रिया के लिए आवश्यक है। पानी शरीर के तापमान को नियंत्रण में रखता है। पानी के अभाव या कमी के कारण शरीर की क्रियाएं पूरी नहीं हो पाती और उनका विकास नहीं सही नहीं हो पाता है। छोटे बच्चों में मौलिक रूप से पानी रूमेन के विकास और उनकी विकास-वृद्धि के लिए बहुत जरूरी है। बहुत से पशुपालक पशुओं को भरपूर मात्रा में पानी उपलब्ध करवाने में असमर्थ रहते हैं जिससे वह सूखा फीड पूरी मात्रा में नहीं लेता है व उनके रूमेन का क्रियाशीलता कम हो जाती है जिससे उन पर असमय ही तनाव आ जाता है जिससे उनके बीमार होने का खतरा भी बढ़ जाता है व उनका विकास भी रूक जाता है। इसलिए पशुओं की विकास वृद्धि के लिए हर वक्त साफ व ताजा पानी उपलब्ध होना चाहिए। पशुओं को आवश्यकता से अधिक पानी खासतौर से सर्दियों के दिनों में एक ही बार में पीने से रोकना चाहिए।
- शर्करा (कार्बोहाइड्रेट्स): शर्करा जैव ईंधन के रूप में ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत है जो शरीर को विभिन्न कार्यों हेतु ऊर्जा प्रदान करने में मुख्य भूमिका निभाती है। यह गैर-फलीदार चारों या अनाजों में अधिक मात्रा में मौजुद होती है। आमतौर पर पौधों के ठोस पदार्थ का तीन-चौथाई हिस्सा होता है और पशुओं की कुल खुराक का चारे से मिलने वाली शक्ति का लगभग 70 प्रतिशत होता है।
- वसा: शर्करा के बाद वसा शरीर को ऊर्जा प्रदान करने का मुख्य घटक है। यह फलीदार तिलहनी खाद्य पदार्थों जैसे कि सरसों, तोड़िया, बिनौला, सरसों, मूँगफली, सोयाबीन के बीजों में अधिक पायी जाती है। यह पशु के शरीर में विटामिन और कैल्शियम को हजम करने में काफी मदद करती है। खुराक के साथ दिया गया वसा पशु के शरीर में चर्बी के रूप में जमा हो जाता है और आवश्यकता पड़ने पर पशु इसे प्रयोग भी कर सकता है। वसा में कार्बोहाइड्रेट्स से भी ज्यादा ऊर्जा होती है। वसा शरीर के तापमान को नियन्त्रित करने, अंगों और तन्त्रिका तन्तुओं की रक्षा करने, शरीर में इंसुलिन बनाने में सहायक होती है।
- प्रोटीन: शर्करा एवं वसा की तरह प्रोटीन भी शरीर को ऊर्जा प्रदान करने का एक साधन है। दलहनी और तेल निकले तिलहनी उत्पादों में सबसे अधिक प्रोटीन पाया जाता है। प्रोटीन शरीर की कोशिकाओं का महत्वपूर्ण भाग है और शरीर की लगभग सभी क्रियाओं के लिए आवश्यक है। कुछ प्रोटीन शरीर की सरंचना में सहायक है तो कुछ रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं। प्रोटीन शरीर में विभिन्न प्रकार की रसायानिक क्रियाओं के माध्यम से एन्जाइम, हारमोन, एमीनो एसिड एवं कई प्रकार के सरंचनात्मक कार्यों में भूमिका निभाते में सहायक होते हैं। ग्याभिन पशु को बच्चा पैदा करने में, छोटे पशुओं की विकास वृद्धि और दुधारू पशुओं के दूध में प्रोटीन बनाने में मुख्य भूमिका होती है।
- विटामिन: विटामिन भी शारीरिक विकास-वृद्धि और ऊर्जा प्रदान करने के लिए अत्यंत आवश्यक तत्व हैं। दुधारू पशुओं के शरीर में दुग्ध स्रवण के माध्यम से विटामिन भी दूध में शरीर से बाहर आते हैं। भरपूर मात्रा में खिलाने से हरे से उनको विटामिन ए और कुछ अन्य विटामिन आवश्यकतानुसार मिल जाते हैं। विटामिन डी धूप से और बाकी विटामिन पशु स्वयं तैयार कर लेता है। फिर भी पशुओं में विटामिन की आमतौर पर कमी रहती ही है जिसे अनुपूरक के रूप में पशुओं के आहार में विटामिन मिलाकर पूरा किया जाता है।
- खनिज पदार्थ: विटामिनों की ही तरह खनिज तत्व भी शरीर के लिए आवश्यक तत्व हैं जो आमतौर पर उपलब्ध आहार से मिल जाते हैं। पशुओं की विकास-वृद्धि, उत्पादन एवं प्रजनन के लिए सोडियम, पोटाशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, क्लोराइड, सल्फर, फास्फोरस और बहुत कम मात्रा में लोहा, तांबा और आयोडीन इत्यादि खनिज तत्वों की आवश्यकता होती है। भूमि में इन तत्वों की कमी होने से उनकी मात्रा चारे में भी कम हो जाती है और ऐसा चारा खाने से शरीर में किसी न किसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। इनकी कमी शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है जैसे कि विकास-वृद्धि में बाधा, परिपक्वता में देरी, गर्भ न ठहरना, गर्भपात, खुरों में दरारें, बाल झड़ना, रक्ताल्पतता, कमजोरी आदि समस्याएं देखने को मिलती हैं।
आहार में शुष्क पदार्थ का महत्त्व
आहार में शुष्क पदार्थ पानी को निकालने के बाद शेष बची सामग्री को परिभाषित करता है, और नमी खाद्य सामग्री में मौजूद पानी की मात्रा को दर्शाती है। पशुओं को खिलाया जाने वाले आहार में उपलब्ध शुष्क पदार्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। आहार के शुष्क पदार्थ में पशु के भरण-पोषण (Maintenance), विकास-वृद्धि (Growth), गर्भावस्था एवं दुग्धोत्पादन के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व मौजूद होते हैं। इसलिए पशुओं को आवश्यक पोषक तत्त्वों की उपलब्धता की आपूर्ति करने के लिए खिलाये जाने वाले आहार का शुष्क पदार्थ ज्ञात करना आवश्यक होता है (Nennich and Chase 2012)।
शुष्क पदार्थ का सेवन पोषण में मौलिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह स्वास्थ्य और उत्पादन के लिए पशु को उपलब्ध पोषक तत्वों की मात्रा प्रदान करता है। पशु को प्रदान किया जाने वाला अनुमानित शुष्क पदार्थ का सेवन, पोषक तत्वों के कम या अधिक सेवन को रोकने और उपयोग को बढ़ावा देने के लिए आहार निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। पोषक तत्वों का कम सेवन उत्पादन को बाधित करता है जो पशुओं के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकता है; जबकि अधिक सेवन आहारीय लागत को बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण में पोषक तत्वों का अत्यधिक उत्सर्जन होता है एवं पोषक तत्वों की अत्यधिक मात्रा पशुओं के लिए विषाक्त भी है जिसका पशुओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव होता है।
शुष्क पदार्थ का सेवन प्रभावित करने वाले कारक
पशुओं का आहारीय शुष्क पदार्थ के सेवन को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं:
- आहारीय उपलब्धता: पशुओं की भूख को संतुष्ट करने और उत्पादन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आहार की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध करवाई जाती है। यदि आहार की मात्रा कम होगी तो स्वाभाविक तौर पर शुष्क पदार्थ के सेवन की मात्रा भी कम होगी।
- पशुओं की संख्या: कम आवासीय स्थान में ज्यादा पशु रखने से भी आहारीय सेवन के साथ-साथ शुष्क पदार्थ की मात्रा भी कम हो जाती है।
- आहारीय प्रबंधन: पशु को खिलाये जाने वाला चारा बहुत बारीक या ज्यादा मोटा काटने से भी पशु को शुष्क पदार्थ कम ग्रहण होता है। इसी प्रकार यदि सान्द्र दाना-मिश्रण अधिक बारीक या मोटा होता है तो भी पशु को शुष्क पदार्थ कम ग्रहण होता है।
- आहारीय गुणवत्ता: चारा ताजा या बासी, चारे में फफूंद, स्वाद, नमी एवं चारे का तापमान इत्यादि आहारीय सेवन के साथ-साथ शुष्क पदार्थ की मात्रा के सेवन को प्रभावित करते हैं।
- न्यूट्रल डिटर्जेंट फाइबर: आहार में न्यूट्रल डिटर्जेंट फाइबर की मात्रा कम होने से पाचन क्रिया कम हो जाती है एवं कुल आहारीय सेवन भी कम हो जाता है जिसका पशु स्वास्थ्य एवं उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव होता है।
- आहारीय प्रोटीन की कमी: यदि पशुओं को कम प्रोटीन युक्त आहार (6-8 प्रतिशत से कम) खासतौर से यदि सूखे चारे जैसे मक्का की कड़बी, भूसा इत्यादि खिलाया जाता है तो उनके शुष्क आहार में भी धीरे-धीरे कमी हो जाती है।
- आहार की स्वादिष्टता: यदि आहार खाने में स्वादिष्ट होगा तो शुष्क पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है जबकि अस्वादिष्टता से कमी होती है। शीरा युक्त आहार से आहार स्वादिष्टता बढ़ती है जिससे शुष्क पदार्थ के सेवन की मात्रा भी बढ़ जाती है।
- आहार में उपलब्ध नमी: आहार में उपलब्ध नमी का सीधा प्रभाव शुष्क पदार्थ की उपलब्धता से होता है अर्थात यदि आहार में नमी ज्यादा होगी तो शुष्क पदार्थ की उपलब्धतता में कमी होगी।
इन कारकों के साथ-साथ पशु का शारीरिक भार, रूमेन या आमाश्य का स्वास्थ्य, दुग्धावस्था, पानी की गुणवत्ता एवं उपलब्धता, उष्मीय तनाव, समग्र पशु स्वास्थ्य एवं पोषक तत्वों की आपूर्ति भी पशुओं के शुष्क आहार के सेवन की मात्रा को प्रभावित करते हैं।
पशुओं का संतुलित आहार
संतुलित आहार उस आहारीय सामग्री को कहते हैं जो किसी विशेष पशु की 24 घंटे की निर्धारित पोषक तत्त्वों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। वैज्ञानिक दृष्टकिोण से पशुओं के शरीर के भार के अनुसार उनकी आवश्यकताओं जैसे जीवन निर्वाहन, विकास-वृद्धि तथा उत्पादन इत्यादि के लिए आहार के विभिन्न तत्त्व जैसे प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज मिश्रण, विटामिन तथा पानी की आवश्यकता होती है। पशुओं की आहारीय मात्रा उनकी उत्पादकता, प्रजनन एवं कार्यशैली पर निर्भर करती है।
संतुलित आहार, पशु को खिलाया जाने वाला वह आहार है जिसमें सही अनुपात में पानी, ऊर्जा, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण व विटामिन उपलब्ध होते हैं एवं यह पशु के शरीर की सभी आवश्यकताओं जैसे कि स्वास्थ्य, विकास-दर, दुग्धोत्पादन, प्रजनन आदि क्रियाओं, को पूरा करने में सक्षम होता है, उसे संतुलित आहार कहते हैं। संतुलित आहार की निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए:
- ऊर्जा, प्रोटीन, वसा, खनिज तत्व व विटामिन के स्त्रोतों का सही समावेश होना चाहिए।
- यह स्वादिष्ट और अधिक सुपाच्य होना चाहिए।
- पारम्परिक आहार की तुलना में यह सस्ता होना चाहिए।
- पशु को स्वस्थ रखने के लिए और उन्हें बीमारियों से बचाने में सहायक होना चाहिए है।
- दूध की मात्रा व गुणवत्ता को बढ़ाता है।
- लंबी अवधि के लिए दुग्ध उत्पादन को बनाए रखने के लिए और दो ब्यांतों के बीच अन्तर प्रजनन अवधि कम करने में सहायता करता है।
- गर्भधारण करने और गर्भावस्था के दौरान गर्भ का समुचित विकास करने में सहायक होता है।
- पशु को खिलाना आसान है व अपव्यय को कम करता है।
- परंपरागत आहार की तुलना में इसकी कम मात्रा लगती है जिससे दुग्ध उत्पादन लागत को कम किया जा सकता है।
पशुओं को आहार खिलाते समय निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए
- पशुओं को खिलाये जाने वाले आहार में दुर्गंध नहीं होनी चाहिए।
- पशुओं को कब्ज या दस्त लगाने वाला नहीं होना चाहिए।
- पशुओं के आहार को अचानक नहीं बदलना चाहिए। यदि कोई बदलाव करना है तो पहले खिलाये जाने वाले आहार के साथ धीरे-धीरे ही बदलाव करना चाहिए।
- पशुओं को आहार खिलाने का समय बार-बार न बदलें। आहार खिलाये जाने का समय ऐसा रखें जिससे वह अधिक समय तक भूखा न रहे।
संतुलित खुराक क्यों?
यदि पशु को संतुलित आहार नहीं दिए जाने निम्नलिखित दुष्प्रभाव होने की संभावना रहती है:
- शारीरिक विकास रूकना।
- कमजोर होना।
- संक्रामक रोगों को सहन करने की शक्ति कम होना।
- समय पर गर्भधारण न होना, गर्भ न ठहरना, गर्भपात होना, योनि भ्रंश।
- दूध कम देना, भार ढोने की शक्ति में कमी आना।
- उम्र कम होना।
संतुलित आहार का वर्गीकरण
पशुओं को खिलाये जाने वाले आहार को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है।
- चारा (हरा एवं सूखा): नमी के आधार पर पशु आहार में हरे एवं सूखे चारे का अपना-अपना महत्त्व होता है जिन्हें आमतौर पर मिलाकर खिलाया जाता है।
- हरा चारा: चारे में नमी की मात्रा यदि 60–80 प्रतिशत हो तो इसे हरा चारा कहते हैं जिसको पशु बड़े चाव से खाते हैं। यह सूखे चारे की अपेक्षा जल्दी पचता है दुग्धोत्पादन बढ़ाता है। पशुओं को दलहनी (जैसे कि बरसीम, रिजका, ग्वार, लोबिया) एवं अदलहनी (जैसे कि ज्वार, बाजरा, मक्का, जई, अजोला तथा हरी घास) आदि का सम्मिश्रण बना कर खिलाने से प्रोटीन की कमी को आसानी से पूरा किया जा सकता है।
- सूखा चारा: सूखे चारे में नमी की मात्रा 10-12 प्रतिशत होती है। सूखा चारा हरे चारे की तरह पौष्टिक तो नहीं होता है लेकिन यह अन्य तत्त्वों को अवशोषित करने में सहायक होने के साथ-साथ, इसकी कमी के कारण पशुओं का उत्पादन कम हो जाता है। सूखे चारे में रेशे (फाइबर) की मात्रा ज्यादा होती है जो पशु की पाचन क्रिया को ठीक रखने में सहायक होती है। सूखे चारे के रूप में विभिन्न प्रकार के कृषि अवशेष जैसे कि गेहूँ की तूड़ी, धान का पुआल, कड़बी और अन्य फसल अवशेष इत्यादि होते हैं।
- सान्द्र दाना-मिश्रण: सान्द्र दाना-मिश्रण से अभिप्रायः यह है कि खाद्य पदार्थों का ऐसा मिश्रण जिसमें आधार भूत तत्वों के साथ-साथ अधिक ऊर्जा, प्रोटीन या विटामिन प्राप्त होते हैं। सान्द्र दाना-मिश्रण आमतौर पर विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री को मिलाकर बनाया जाता है जिससे पशु को संतुलित रूप से सभी पोषक तत्व आवश्यकतानुसार प्राप्त हो जाएं। इसके लिए इनको आधारभूत आहारीय सामग्री के साथ अलग से मिलाने की आवश्यकता होती है। अतः पशुपालकों को पशुओं को खिलाये जाने वाले उपलब्ध आहारीय सामग्री के बारे में जानकारी होना अतिआवश्यक है। पशुपालकों को इस बात का ज्ञान भी होना चाहिए कि उपलब्ध आहार में ऊर्जा, प्रोटीन, वसा, रेशे इत्यादि कितनी मात्रा में होते हैं तभी वह पशुओं के लिए एक अच्छा संतुलित आहार तैयार कर सकते हैं। सान्द्र दाना-मिश्रण को पशुपालक घर अथवा बाजार में उपलब्ध निम्नलिखित खाद्य सामग्री से तैयार कर सकते हैं:
- अनाज: अनाज जैसे कि गेहूँ, मक्की, जौ, बाजरा, जई, चावलों की कणकी इत्यादि पशु के सान्द्र आहार के रूप में ऊर्जा प्रदान करने वाला मुख्य भाग है। इनके पोषकमान लगभग एक समान होते हैं अर्थात इनमें प्रोटीन एवं ऊर्जा में बहुत ज्यादा अन्तर नहीं होता है। इन सभी में 10-12 प्रतिशत प्रोटीन तो होती ही है लेकिन इनमें स्टार्च की मात्रा अधिक होने के कारण पशुओं को अधिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। आसानी से उपलब्ध किसी भी प्रकार के अनाज को सान्द्र दाना-मिश्रण के लिए 25-35 प्रतिशत तक उपयोग किया जा सकता है।
- खल: विभिन्न प्रकार की तिलहनी फसलों के बीजों से तैयार खल प्रोटीन की अच्छी स्त्रोत होती हैं। इनमें मुख्यतः बिनौला, सरसों, मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल, अलसी की खल आदि का उपयोग पशु आहार बनाने में किया जाता है। इनमें 35-50 प्रतिशत तक प्रोटीन होने के साथ-साथ आहार को स्वादिष्ट भी बनाती हैं। तिलहनी खल में उपलब्ध ऊर्जा, इनमें से निकाले गये तेल की विधि पर निर्भर करती है। कोल्हू (एक्सट्रेक्सन) द्वारा तेल निकाली गई खल में वसा की मात्रा ज्यादा होती है अतः इस प्रकार तैयार की गई खल में ऊर्जा की मात्रा ज्यादा होती है। इसके विपरीत विलायक निष्कर्षण (सोल्वेंट एक्सट्रेक्सन) विधि से तैयार खल में वसा की मात्रा कम होने से उसमें उपलब्ध ऊर्जा भी कम होती है लेकिन प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है। तिलहनी फसलों के बीजों से तैयार खल के अतिरिक्त मक्की से तैयार ग्लूटन एवं डिस्टिलरी इकाई के अन्न उत्पाद भी प्रोटीन पूरक के रूप में 25-35 प्रतिशत तक उपयोग किये जा सकते हैं।
- कृषि (अन्न) उपोत्पाद: आमतौर पर इनका उपयोग पशु आहार को फैलावट देने के लिए किया जाता है यह इनमें मौजूद आहारीय रेशे शरीर में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनकी आपूर्ति अन्नोपोत्पाद (ग्रेन बाई-प्रोडक्ट्स) जैसे कि गेहूँ का चोकर (व्हीट ब्रान), चावलों की पॉलिश (राइस पॉलिश/ब्रान) एवं मक्की के दानों के छिलके (मेज हस्क) आदि के माध्यम से की जाती है। इनसे पशुओं को प्रोटीन एवं ऊर्जा तो मिलती ही है लेकिन साथ में फास्फोरस एवं अन्य खनिज तत्त्व भी अच्छी मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं। इनमें साबुत अनाजों की अपेक्षा प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है लेकिन ऊर्जा की मात्रा कम होती है। इनके उपयोग से सान्द्र दाना-मिश्रण की लागत कम हो जाती है। दलहनी अथवा फलीदार फसलों की तूड़ी में प्रोटीन की मात्रा अनाज की तूड़ी से ज्यादा होने के साथ-साथ इनकी पाचकता भी अधिक होती है एवं इन्हें पशु भी उत्साहपूर्वक खाते हैं। इनके अतिरिक्त अनाज, चना, धान एवं विभिन्न प्रकार की फलियों का बाहरी छिलका भी पशुओं को खिलाने में उपयोग किया जाता है लेकिन इनमें पोषक मान एवं तत्व कम होते हैं। दाना-मिश्रण बनाने के लिए इनका 10-30 प्रतिशत तक उपयोग किया जाता है।
- खनिज तत्त्व: बेशक, खनिज तत्त्वों की कम मात्रा में आवश्यकता होती है लेकिन शरीर की विभिन्न क्रियाओं जैसे कि हड्डियों एवं ऊत्तकों के निर्माण, शरीर में मौजूद विभिन्न द्रव्यों में उचित चाप बनाने, अम्ल-क्षार संतुलन, एन्जाइम, तन्त्रिका, प्रजनन, पाचन एवं रक्त संचार आदि क्रियाओं के लिए आवश्यक होते हैं। खनिज तत्त्वों का आपस में गहरा संबंध होता है। अतः इनकी मात्रा में पर्याप्त संतुलन अथवा अनुपात भी आवश्यक है क्योंकि समान प्रवृति के खनिज तत्त्वों में एक की अधिकता का दूसरे की उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है जिसके कारण पशुओं का स्वास्थ्य एवं उत्पादन दोनों ही प्रभावित होते हैं। इनकी आपूर्ति के लिए उपलब्ध खनिज तत्त्वों के मिश्रण को 1-2 प्रतिशत सांद्र दाना-मिश्रण में मिलाया जाता है।
उपरोक्त खाद्य सामग्री के अतिरिक्त पशुओं के आहार में निम्नलिखित अवयव भी मिलाने चाहिए:
- नमक: अन्य तत्त्वों की तरह, नमक भी शरीर के लिए आवश्यक होता है। यदि नमक के साथ आयोडीन भी मिल जाए तो बहुत अच्छा होता है। सांद्र दाना-मिश्रण में एक प्रतिशत आयोडिन युक्त नमक मिलाया जा सकता है।
- विटामिन: विटामिन शरीर की विभिन्न चपापचयी क्रियाओं के लिए आवश्यक भूमिका निभाते हैं। इनकी आपूर्ति के लिए उपलब्ध विटामिन फीड प्री-मिक्स प्रति 100 किलोग्राम में 20-30 ग्राम की दर से मिलाया जाता है।
संक्षेप में आंकलन किया जाए तो उपरोक्त खाद्य सामग्रियों को मिलाकर ही घर पर सान्द्र दाना-मिश्रण बनाया जा सकता है। लेकिन इसे बनाते समय यह ध्यान रखें कि तैयार दाना-मिश्रण में कम से कम मात्रा 16 प्रतिशत प्रोटीन तथा कुल पाच्य तत्त्व 65–68 प्रतिशत अवश्य होने चाहिए।
आहारीय सामग्री |
मात्रा (प्रति 100 किलोग्राम सांद्र मिश्रण) |
अनाज |
25–35 किलोग्राम |
खल |
25–35 किलोग्राम |
कृषि (अन्न) उपोत्पाद |
10–30 किलोग्राम |
खनिज तत्त्व |
1–2 किलोग्राम |
नमक |
1 किलोग्राम |
विटामिन |
20 – 30 ग्राम |
पशुओें को उनकी आयु वर्ग एवं उत्पादन के आधार पर आहार दिया जाना चाहिए।
जन्मोप्रांत आहार व्यवस्था
बच्चों की उम्र |
दूध की मात्रा | क्रीम निकला दूध | कॉफ स्र्टाटर |
सूखा व हरा चारा |
1 – 3 दिन (खीस) |
2500 मि.ली. | – | – | – |
4 – 7 दिन | 2500 मि.ली. | – | – |
– |
दूसरा सप्ताह |
3000 मि.ली. | – | 50 ग्राम | 250 ग्राम |
तीसरा सप्ताह | 3250 मि.ली. | – | 100 ग्राम |
350 ग्राम |
चौथा सप्ताह |
3000 मि.ली. | – | 300 ग्राम | 500 ग्राम |
पांचवां सप्ताह |
1500 मि.ली. | 1000 मि.ली. | 400 ग्राम | 550 ग्राम |
छट्टा सप्ताह | – | 2500 मि.ली. | 600 ग्राम |
600 ग्राम |
सातवां सप्ताह |
– | 2000 मि.ली. | 600 ग्राम | 600 ग्राम |
आठवां सप्ताह | – | 1750 मि.ली. | 700 ग्राम |
700 ग्राम |
9वां सप्ताह |
– | 1250 मि.ली. | 1000 ग्राम | 1000 ग्राम |
10वां सप्ताह | – | – | 1200 ग्राम |
1100 ग्राम |
11वां सप्ताह |
– | – | 1300 ग्राम | 1200 ग्राम |
12वां सप्ताह | – | – | 1400 ग्राम |
1400 ग्राम |
जन्म के बाद बाल पशुओं को निम्नलिखित तालिका अनुसार आहार प्रदान करना चाहिए:
जन्म के बाद बछड़ियों/कटड़ियों को उनकी आयु के अनुसार ही निम्नलिखित तालिकानुसार आहार दिया जाना चाहिए:
आयु |
सान्द्र दाना-मिश्रण प्रकार |
0 से 3 महने तक |
कॉफ स्र्टाटर |
3 से 6 महने तक |
कॉफ फीड |
6 महने से ब्याने तक |
हिफर फीड |
इसके पश्चात इनको 1 से 1.5 किलोग्राम मिश्रित आहार तथा अच्छी प्रकार का चारा खिलाकर पालना चाहिए। ऐसा करने से उनके प्रथम ब्यांत की आयु कम की जा सकती है। बछड़ियों/कटड़ियों का दाना-मिश्रण मुख्य रूप से मक्की और जई जैसे अनाजों से बना होता है। जौं, गेहूँ और ज्वार जैसे अनाजों का इस्तेमाल भी इस मिश्रण में किया जा सकता है। उनके आहार में कम से कम 80 प्रतिशत पाच्य पोषक तत्व व 20 प्रतिशत प्रोटीन होना चाहिए। दलिये को कॉफ स्टार्टर के रूप में दिया जा सकता है। 4 सप्ताह की उम्र में उनका दूध धीरे-धीरे कम करके आहार के रूप में दलिया दिया जा सकता है। 20 दिनों के बाद उनको दूध देना पूरी तरह से बन्द किया जा सकता है। इसके स्थान पर उनको कॉफ स्टार्टर दिया जा सकता है।
कॉफ स्टार्टर बनाने के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री |
|
घटक |
मात्रा |
प्रोटीन (शुष्क पदार्थ का प्रतिशत) |
18.0 |
वसा (शुष्क पदार्थ का प्रतिशत) |
03.0 |
कुल पाच्य पोषक तत्व (शुष्क पदार्थ का प्रतिशत) |
80.0 |
चपापचय योग्य ऊर्जा (मेगा कैलोरी प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ) |
3.11 |
कैल्शियम (शुष्क पदार्थ का प्रतिशत) |
0.60 |
फॉस्फोरस (शुष्क पदार्थ का प्रतिशत) |
0.40 |
विटामिन ए (आइयू प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ) |
2200 |
विटामिन ई (आइयू प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ) |
25 |
विटामिन डी (आइयू प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ) |
300 |
स्रोत: 1989 राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद (Source: 1989 NRC)
नोट: विटामिन को अंतर्राष्ट्रीय इकाई में तौला जाता है जिसे आमतौर से ‘आइयू’ कहा जाता है। |
शुरू में रूमेन में विटामिन बी संश्लेषित नहीं होता है इसलिए कॉफ स्टार्टर में विटामिन बी भी मिलाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त आंतों का कोक्सीडियोसिस रोग से बच्चों को बचाने के लिए इसमें कॉक्सीडीयोस्टेट भी मिलाए जा सकते हैं। कॉफ स्टार्टर स्वादिष्ट व पौष्टिक होना चाहिए। यदि कॉफ आसानी से इसे खाने लग जाता है तो उसका जल्दी ही दूध छुड़वाया जा सकता है। इसे बनाने के लिए निम्नलिखित खाद्य सामग्री का उपयोग किया जा सकता है:
कॉफ स्टार्टर बनाने के घटक |
कुल राशन का प्रतिशत |
मक्की |
52.0 |
जई |
20.0 |
सोयाबीन मील |
20.0 |
शीरा |
5.0 |
चूना |
1.0 |
डाईकैल्शियम फॉस्फेट (डी.सी.पी.) |
0.25 |
ट्रेस मिनरल |
0.20 |
वसा |
1.50 |
विटामिन |
0.05 |
अन्य सामग्री (कॉक्सीडीयोस्टेट व बफर) |
आवश्यकतानुसार |
बच्चे के लिए रेशेदार पदार्थ
अच्छे किस्म के पत्तेदार सूखे दलहनी पौधे छोटे बच्चे के लिए रेशे का अच्छा स्रोत हैं। घास व तूड़ी का मिश्रण भी उपयुक्त होता है।
- हे (सूखी घास) में हरियाली बरकरार होती है जो विटामीन ए, डी व बी-कम्प्लैक्स विटामिनों का अच्छा स्रोत होती है।
- 6 महीने की उम्र में कॉफ5–2.5 किलोग्राम तक सूखी तूड़ी खा सकता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह मात्रा बढ़ती जाती है।
- 6–8 सप्ताह के बाद थोड़ी मात्रा में साईलेज अतिरिक्त रूप में दिया जा सकता है। छोटी उम्र से साईलेज खिलाना कॉफ में दस्त का कारण बन सकता है।
- कॉफ के 4–6 महीने की उम्र से पहले तक साईलेज को रेशे के स्रोत के रूप में उपयुक्त नहीं माना जाता है।
- मक्की और ज्वार के साईलेज में प्रोटीन व कैल्शियम पर्याप्त मात्रा में नहीं होते व उनमें विटामीन डी की मात्रा भी कम होती है।
ओसर पशुओं की आहार व्यवस्था
खाद्य सामग्री |
1 | 2 |
अनाज | 45% |
38% |
खल |
23% | 30% |
चोकर/चावलों की पॉलिश | 30% |
30% |
खनिज मिश्रण |
1% | 1% |
नमक | 1% |
1% |
छः माह की आयु होने के उपरांत बछड़ी/कटड़ी शारीरिक विकासशीलता को उपलब्ध करते हुए परिपक्वता की ओर अग्रसर होती है। ऐसी मादाओं को ओसर (हिफर्ज) कहते हैं। इस समय उनकी उचित आहार एवं प्रबंधन व्यवस्था होनी चाहिए। उचित आहार के रूप में ओसर मादाओं के लिए निम्नलिखित सामग्री का समायोजन इस प्रकार किया जा सकता है:
छः माह की आयु के पश्चात् उनको 1–1.5 किलोग्राम उपरोक्त मिश्रित आहार तथा अच्छी गुणवत्ता का चारा खिलाना चाहिए। ऐसा करने से उनके पहले ब्यांत की आयु कम की जा सकती है जिससे पशुपालकों को दुधारू पशु भी खरीदने की आवश्यकता नहीं होगी।
दुधारू पशुओं की आहार व्यवस्था
दाना-मिश्रण बनाने के घटक |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 |
8 |
बिनौला की खल |
10 | 16 | 22 | – | 10 | 20 | – | 4 |
सरसों की खल | 9 | – | 25 | – | 10 | – | 12 |
– |
सोयाबीन की खल |
– | – | – | – | – | 2 | 10 | 12 |
मूंगफली की खल | – | 15 | – | 20 | 10 | – | – |
– |
दालों की चूरी |
– | – | – | 17 | 10 | – | – | – |
गेहूँ |
15 | – | – | – | 32 | 29 | 15 |
15 |
मक्की | 10 | 36 | – | 40 | – | – | 20 |
20 |
चावल |
– | – | – | – | – | – | – | 5 |
जौ | – | – | 30 | – | – | – | – |
– |
गेहूँ का चोकर |
12 | – | – | – | – | 12 | 10 | 10 |
चावलों की पॉलिश | 12 | – | – | – | – | 11 | 18.5 |
12.7 |
तेल रहित चावल की पॉलिश |
25 | 30 | 20 | 20 | 25 | 20 | – | – |
मक्की का ग्लूटन | – | – | – | – | – | – | 6 |
12 |
शीरा |
4 | – | – | – | – | 3 | 4 | 5 |
खनिज मिश्रण | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 |
2 |
नमक |
1 | 1 | 1 | 1 | 1 | 1 | 2 | 2 |
विटामिन मिश्रण | – | – | – | – | – | – | – |
0.1 |
मीठा सोडा |
– | – | – | – | – | – | 0.5 |
0.2 |
दूधारू पशुओं को जीवन निर्वाहन के अलावा उनकी उत्पादन क्षमतानुसार संतुलित उत्पादन आहार भी देना चाहिए। उत्पादन आहार पशु आहार की वह मात्रा है जिसे पशु का जीवन निर्वाह के लिए दिए जाने वाले आहार के अतिरिक्त उसके दुग्ध उत्पादन के लिए दिया जाता है। पशु को कुल आहार का दो-तिहाई चारे से तथा एक-तिहाई भाग सान्द्र दाना-मिश्रण द्वारा दिया जाना चाहिए। चारे में दो-तिहाई हरा चारा व एक-तिहाई सूखा चारा दिया जा सकता है। हरे चारे में दलहनी व गैर दलहनी चारे का मिश्रण दिया जा सकता है। आहार में दलहनी चारे की मात्रा बढ़ाने से काफी हद तक सान्द्र दाने की मात्रा को कम किया जा सकता है। सस्ते दुग्ध उत्पादन के लिए दूधारू पशुओं को हरे चारे की मात्रा अधिक से अधिक उपलब्ध करवानी चाहिए। गाय या भैंस में 5-6 किलोग्राम प्रतिदिन केवल हरे चारे द्वारा ही लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त गाय में हर 2.5 किलोग्राम व भैंस में 2.0 किलोग्राम दुग्ध उत्पादन के लिए 1.0 किलोग्राम सान्द्र दाना-मिश्रण दिया जाना चाहिए। एक दूधारू पशु को लगभग 35–40 किलोग्राम हरा चारा देना चाहिए। यदि हरा चारा उपलब्ध न हो तो सान्द्र दाना-मिश्रण की मात्रा को बढ़ा देना चाहिए। अद्योलिखित तालिकानुसार दूधारू पशुओं के लिए सान्द्र दाना-मिश्रण बनाया जा सकता है (मात्रा प्रति 100 किलोग्राम दाना बनाने के लिए):
उपरोक्त तालिका केवल मार्ग दर्शन हेतु एक उदाहरण है। इसके अतिरिक्त पशु की दुग्ध उत्पादन की क्षमता के अनुसार दाना-मिश्रण बनाकर भी दिया जा सकता है।
आप जैसा भी पशु को खिलाएंगे तो उसी अनुरूप वह उत्पादन करेगा। इसी संदर्भ में डा. प्रेम सिंह यादव द्वारा 2003 – 04 में रचित कविता बहुत ही सटीक लगती है जिसे महानिदेशक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा ने भी उस समय जारी किया था।
जननी की कहानी भैंस की जुबानीजनन समस्याओं के लिए मुझे न करो बदनाम। बेहतर रखरखाव हो तो करूंगी समय पर सब काम।। बचपन से खिलाओ मुझे संतुलित आहार। सही उम्र में पहला बच्चा देकर लाऊंगी बहार।। गर्मी में आने के मेरे हैं लक्षण तीन-चार। बेचैनी, तार, रम्भाना, मूत्र बार-बार।। गर्मी को ठीक से परखो कृत्रिम गर्भादान करवाओ। उत्तम नस्ल के सांड की बेहतर सन्तान पाओ।। दाना, चारा, तूड़ी में खनिज लवण का दो तड़का। देरी से गर्भित होने का न हो कभी फड़का।। गर्मी के मौसम में नहलाओ दो-तीन बार। अच्छे लक्षण दिखलाऊंगी ताव के हर बार।। बच्चा लेकर 60 दिन दो मुझको आराम। फिर बनाओ अगला बच्चा लेने का प्रोग्राम।। दो महीने के गर्भ की डाक्टर से कराओ जांच। गर्भ खाली रहने की कभी न आए आंच।। मौसम, पोषण, प्रबन्धन के अगर आप हैं ज्ञाता। भूला दूंगी मैं भी कभी थी मौसमी ब्यांता।। सस्ते और साधारण से ये नुस्खे अपनाओ। समय पर मनवांछित बच्चा पाकर पूरा लाभ कमाओ।। |
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