लेयर नुट्रिशन से जुड़ी कुछ समस्याएँ एवं उनके समाधान

4.4
(16)

लेयर नुट्रिशन एक बहुत ही विशाल विज्ञान है जिसमें प्रतिदिन ही कुछ न कुछ नई खोज होती रहती हैं। अंडे देने वाली मुर्गियों को लेयर चिकन कहा जाता है। लेयर मुर्गियां 4-5 महीने में अंडे देना प्रारम्भ कर देती है। इस प्रकार की मुर्गियाँ ठण्ड के मौसम की अपेक्षा गर्मी के मौसम में अधिक अंडे देती हैं। एक मुर्गी एक साल में लगभग 300 अंडे देती है। लेयर फीडिंग में आने वाली समस्याओं का सामना किसानो, विशेषज्ञों एवं शोधकर्ताओं को किसी न किसी समय पर करना पड़ता है। इन समस्याओं का कोई निश्चित उपाय नहीं है, ऐसे में अंडे देने वाली मुर्गी के लिए दाना बनाते वक़्त हमें कुछ ख़ास बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. एग शैल क्वालिटी (अंडे के छिलके की क्वालिटी): एग शैल क्वालिटी लेयर मुर्गी को ग्रोवर अवस्था में दिए गए राशन में मौजूद पौष्टिक तत्वों की मात्रा एवं गुणवत्ता पर निर्भर करती है। अंडे का छिलका कैल्शियम का  बना  होता है, अतः हमें ध्यान रखना चाहिए कि ग्रोवर फीड में कैल्शियम उपयुक्त मात्रा में हो। जैसे जैसे मुर्गी की उम्र बढ़ती है वैसे वैसे अंडे का आकार भी बढ़ता जाता है लेकिन उम्र के साथ मुर्गी के कैल्शियम जमा करने की क्षमता कम हो जाती है और यही कारण है कि अंडे का छिलका बहुत पतला हो जाता है जिससे बाजार में उसकी कीमत कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में मुर्गी की कैल्शियम जमा करने की क्षमता को बढ़ाने  के लिए विटामिन डी अथवा  ग्रिट आदि जैसे विकल्पों  का इस्तेमाल किया जाता है।

2. प्री लेयर राशन: प्री लेयर राशन, लेयर फीडिंग का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इसमें सारे ही पौष्टिक तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद होने चाहिए। जब मुर्गी अंडे देने की उम्र में आने वाली हो ,उससे 2 सप्ताह पहले से कैल्शियम की मात्रा दाने में बढ़ा देनी चाहिए जिससे कि उसके शरीर के रिज़र्व समाप्त न हो। लेकिन दाने में  कैल्शियम की मात्रा अधिक बढ़ाने से किडनी खराब होने का खतरा बढ़ जाता है। ज़रुरत  से अधिक दाना देने से मुर्गियों में फैटी लिवर की समस्या का खतरा भी बढ़ जाता है। अतः यह निश्चित कर लेना चाहिए के दाने में सारे ही पौष्टिक तत्व सटीक मात्रा में मौजूद रहे।

3. कैल्शियम: लेयर मुर्गियों को कैल्शियम देते वक़्त कुछ ज़रूरी बातें ध्यान में रखनी चाहियें जैसे कैल्शियम का स्रोत, ग्रिट साइज, कैल्शियम खिलाने का वक़्त आदि। इसके साथ ही दाने में फॉस्फोरस और विटामिन डी की मात्रा को भी नियमित रूप से जांचते रहना चाहिए क्यूंकि इन दोनों की ही कैल्शियम के उपापचय में अहम् भूमिका होती है।

और देखें :  पशु आहार में कच्चा रेशे (Crude Fibre) का महत्व

4. योल्क का रंग: योल्क का रंग मार्किट वैल्यू तय करने में एक अहम् किरदार निभाता है। यह न तो ज़्यादा गहरा पीला होना चाहिए और न ही ज़्यादा हल्का। मक्का में कुछ प्राकर्तिक तत्व होते हैं जो योल्क को पीले रंग देने में मदद करते हैं इस प्रकार लेयर राशन में मक्का अधिक मात्रा में मिलाने से योल्क का रंग सुधारा जा सकता है।

5. पेलेट्स, मैश या क्रुम्ब्ल्स: लेयर मुर्गी को किस प्रकार का दाना देना चाहिए ये फार्म के प्रबंध, अंडे के मार्किट रेट, किसान की आर्थिक स्थिति आदि पर निर्भर करता है। मैश सस्ता होता है लेकिन इससे  एक समस्या यह आती है के मुर्गी चयनात्मक फीडिंग करने लगती  है जिससे कि ज़रूरी पौष्टिक तत्व मुर्गी के शरीर तक नहीं पहुँच पातें। पेलेट्स देने पर यह समस्या दूर हो जाती है लेकिन इनका मूल्य अधिक होता है। क्रुम्ब्ल्स, मैश एवं पेलेट्स की अपेक्षा अधिक लाभदायक होते हैं लेकिन इनका भी मूल्य मैश के मुकाबले अधिक होता है।

6. अंडे का साइज: जैसे जैसे मुर्गी की आयु बढ़ती है, वैसे वैसे अंडे का साइज भी बढ़ता है लेकिन बढ़ती उम्र के साथ मुर्गी की कैल्शियम जमा करने की क्षमता के कम होने के कारण छिलका पतला हो जाता है। इसके लिए अधिक पोषक तत्वों  की ज़रुरत होती है इस स्थिति में अगर मुर्गी के दाने में पौष्टिक तत्व पर्याप्त मात्रा में नहीं है तो वो अपने शरीर में संचयित/ रिज़र्व पौष्टिक तत्वों को अंडा बनाने में इस्तेमाल करने लगती है जिसकी वजह से तीर्व गति से उसके शरीर का वजन कम होता जाता है। बड़ा अंडा छोटे अंडे के अपेक्षाकृत अधिक पसंद किय जाता है। एक और अहम् बात यह है कि अगर अंडे का साइज बढ़ता है तो उसका उतपादन कम होने लगता है। इसलिए किसान को यह ध्यान रखना चाहिए के अंडे का साइज अनुकूल रहे जिससे कि मुर्गी के वज़न और उत्पादन पर कोई प्रभाव न पड़े। अंडे का साइज दाने में मौजूद  मेथिओनीन एमिनो एसिड की मात्रा पर निर्भर करता इसलिए किसान को यह ख़ास ध्यान रखना चाहिए के लेयर मुर्गी के दाने में मेथिओनीन पर्याप्त मात्रा में हो ।

और देखें :  भैंसों का पोषण प्रबन्धन

7. फैटी लिवर सिंड्रोम: जब लीवर में फैट की मात्रा अधिक हो जाती है, तो उस स्थिति को फैटी लीवर कहा जाता है। हालांकि, लीवर में थोड़ी मात्रा में फैट होना सामान्य चीज़ है, लेकिन जब यह मात्रा जरूरत से अधिक हो जाती है, तो यह एक गंभीर स्थिति बन जाती है। यह समस्या तब आती है जब मुर्गी अपनी आवश्यकता से अधिक दाने का सेवन करने लगती है जिस कारण अतिरिक्त पौष्टिक तत्व फैट के रूप में मुर्गी के लिवर में इकठ्ठा हो जाते  है। इस समस्या से मुर्गियों के मृत्यु दर में अचानक से बढ़ोतरी देखने को मिलती है। फैटी लिवर सिंड्रोम का  सबसे अधिक प्रभाव मुर्गी के उत्पादन पर पड़ता है। ऐसे में फार्मर को दाने के कार्बोहायड्रेट-प्रोटीन के संतुलन को नियमित रूप से जांचते रहना चाहिए और मुर्गी को पर्याप्त मात्रा में ही दाना देना चाहिए जिससे कि वो ज़रुरत से अधिक दाने का सेवन ना कर सके।

8. हीटस्ट्रोक (ऊष्माघात): जैसे जैसे  मौसम गरम होने लगता है  मुर्गियां दाने का सेवन कम कर देती है जिसका प्रभाव मुर्गी के उत्पादन एवं अंडे के साइज पर पढता  है। अतः  हीट स्ट्रोक की स्थिति में अंडे का उत्पादन और साइज दोनो ही कम हो जाते हैं। इस समस्या को ठीक करने के लिए किसानों को फार्म के प्रबंध और मुर्गी के  पोषण में कुछ बदलाव करने चाहियें। ऐसे में सबसे ज़रूरी होता है दाने का इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस। लेयर मुर्गी का दाना बनाते वक़्त उसका इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस ठीक तरह से जांचना चाहिए, इसके अलावा कुछ अन्य पूरक तत्व जैसे बीटेन, विटामिनस आदि भी दाना बनाते वक़्त उसमें मिलाने चाहियें।

9. पंख या वेंट पेकिंग: इसके अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से कुछ कारण हैं जगह की कमी, मुर्गियों में उदासी, प्रकाश की गहनता आदि। ये दाने में मौजूद प्रोटीन कि अनुचित एमिनो एसिड प्रोफइल के कारण होता है ,इसलिए इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए किसान को दाने में उचित मात्रा में मिनरल्स और एमिनो एसिड्स को शामिल करना चाहिए।

10. केज लेयर फटीग: यह समस्या विशेष रूप से ज़्यादा अंडे देने वाली मुर्गियों में देखने को मिलती है क्यूंकि उनमें कैल्शियम की आवश्यकता अधिक होती है। अत्यधिक कैल्शियम की आवश्यकता को पूरा करने के लिए मुर्गियों की हड्डियों से कैल्शियम निकलने लगता है जिससे हड्डियां कमज़ोर हो जाती हैं और फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है। इस समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए प्री लेयर डाइट में कैल्शियम उचित मात्रा में ही मिलाना चाहिए ताकि अंडे देने की स्थिति में आने तक मुर्गी के शरीर में कैल्शियम अतिरिक्त मात्रा में रहे और हड्डियों से उसका संघटन कम हो जाए।

और देखें :  केंद्र सरकार ने 30 जून, 2022 तक सोया मील पर भंडारण सीमा निर्धारित की

निष्कर्ष: हालाँकि लेयर नुट्रिशन इन्ही कुछ बिंदुओं तक सीमित नहीं है,लेकिन ये ऐसे सामान्य मुद्दे हैं जिनका हर किसान को किसी न किसी वक़्त पर सामना करना पड़ता है। अतः किसी भी लेयर फार्म के विकास के लिए इन मुद्दों को ध्यान में रख कर लेयर नुट्रिशन को सुधारने का प्रयास किया जा सकता है।

यह लेख कितना उपयोगी था?

इस लेख की समीक्षा करने के लिए स्टार पर क्लिक करें!

औसत रेटिंग 4.4 ⭐ (16 Review)

अब तक कोई समीक्षा नहीं! इस लेख की समीक्षा करने वाले पहले व्यक्ति बनें।

हमें खेद है कि यह लेख आपके लिए उपयोगी नहीं थी!

कृपया हमें इस लेख में सुधार करने में मदद करें!

हमें बताएं कि हम इस लेख को कैसे सुधार सकते हैं?

Authors

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*