दही एक प्राकृतिक स्वास्थ्य संवर्धित पोषाहार

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दूध और इससे बने उत्पाद दुनिया के सभी देशों में लोगों के पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह पाया गया है कि दूध सूक्ष्मजीवों के विकास के लिए उपयोग किया जाने वाला एक आदर्श माध्यम है, क्योंकि यह प्रोटीन, शर्करा, खनिज, विटामिन और पानी से भरपूर है। ये तत्व जीवाणुओं की विकास-वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पोषक तत्वों से समृद्ध होने के कारण, कम तापमान पर भी अधिक समय तक दूध के भंडारण से अवांछित सूक्ष्मजीवों के विकास से उत्पन्न दुग्ध व्यवसाय में नई समस्या उत्पन्न होती है। इस समस्या को हल करने के लिए और दूध के आर्थिक नुकसान को बचाने के लिए किण्वन क्रिया का उपयोग करके प्रोबायोटिक्स से भरपूर दही को तैयार किया जाता है। दही भारत में सबसे अधिक आहारीय सेवन किया जाने वाला प्राचीनतम किण्वन दुग्ध पोषाहार है। दूध की तुलना में यदि इसको किण्वित करके दही बना कर बाजार में बेचा जाता है तो दूध का मूल्य संवर्धन होने से पशुपालकों को अच्छी आमदनी हो सकती है।

दही एक प्राकृतिक स्वास्थ्य संवर्धित पोषाहार

दही को भारत, बंगलादेश, नेपाल में दही या दधी कहा जाता है तो यूरोप सहित तुर्की और विश्व के अधिकतर क्षेत्रों में योगर्ट, तुर्कस्तान में बुसा, ईटली में सीड्डू, स्कैंडेनेविया में फिल्मजॉल/फिलबंके/फिल्बंक/सुर्मेल्क, अफगानिस्तान और ईरान में मस्त/डफ, ईराक में रोबा, आर्मीनिया में माजुन/मतजून, लेबनान और कुछ अरब देश में लेबेन, हंगरी में ताएत्तेम-जोल्क/तात्तेमेल्क-तार्हो इत्यादि नामों से जाना जाता है (Chandan et al. 2017)।

आसानी से बनायी जाने वाली दूध से बनी दही एक पौष्टिक एवं सुपाच्य आहार है। बहुत से लोगों को दूध पसन्द नहीं होता है और कुछ को पचता ही नहीं है लेकिन दही निर्विवाद रूप से सभी के लिए बहुत लाभदायक है। दही एक महत्वपूर्ण किण्वित दुग्ध उत्पाद है जिसका सेवन भारत में एक ताजा पेय के रूप में किया जाता है। इसमें हल्का सुखद स्वाद होता है, एक मामूली अम्लीय स्वाद के साथ, एक चिकनी, चमकदार बनावट और सतह पर क्रीम की परत के साथ एक मलाईदार सफेद रंग। दही का द्रव्यमान नरम और स्थिर लेकिन गैस के छिद्रों से मुक्त होता है (Srinivasan 2010)।

दही का इतिहास

दही को बनाना और इसका सेवन करना सहस्त्राब्दियों से चला आ रहा है। आमतौर पर भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल जैसे दक्षिण एशियाई देशों में, दही एक मिठाई (डेजर्ट) के रूप में उपभोग किया जाने वाला आहार है (Liyanage et al. 2014)। ऐतिहासिक रूप से, किण्वन का उपयोग मनुष्यों द्वारा दूध के संरक्षण के लिए किया जाता था। प्राचीन काल से ही सूक्ष्मजीवों का उपयोग किण्वन क्रिया खासतौर से मदिरा बनाने में किया जाता रहा है। हालांकि किण्वित दुग्ध उत्पादों की उत्पत्ति का पता लगाने के लिए कोई साक्ष्य तो नहीं हैं, लेकिन इसका उत्पादन मध्ययुगीन (मेडिटेरेनियन) युग से पहले भी मध्य पूर्व क्षेत्र में उत्पन्न हुआ माना जाता है। भारतवर्ष की बात करें तो न जाने कब से भारतीय लोग दही जमाते और उसका सेवन करते आ रहे हैं लेकिन यह बात अवश्य जगजाहिर है कि भगवान कृष्ण तो माखन और दही चोर के रूप में अवश्य प्रसिद्ध हैं और जन्माष्टमी के दिन उनके जन्मदिवस पर दही हांडी फोड़कर उसमें से दही खाने की परंपरा आज भी जारी है।

मिश्र में, किण्वित दुग्ध पेय उत्पादों का सेवन लगभग 7000 ईसा वर्ष पूर्व से है। वेदों (इंडो-आर्यन ग्रंथों) में भी 5000 ईसा वर्ष पूर्व से दही का उल्लेख है। माना जाता है कि योगर्ट शब्द का प्रयोग पहली बार 8वीं शताब्दी में तुर्कों द्वारा किया गया था, जो योघुरूत के रूप में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यह माना जाता है कि एशिया में तुर्की खानाबदोशों को दही बनाने का श्रेय जाता है (Chandan et al. 2017)।

पश्चिमी देशों में दही की शुरुआत कहाँ और कब हुई, इस पर विवाद है। कहा जाता है कि दही 2000 ईसा वर्ष पूर्व पूर्वी यूरोपीय राष्ट्र बुलगारिया के खानाबदोश जाति के लोगों की देन है। इसके लिए वे पशुओं की खाल में दूध भरकर एक निश्चित तापमान पर रखते थे जिससे उसे जमाने के लिए जीवाणु पैदा हो जाते थे। लगभग इसी तरीके को अपनाते हुए विश्व के अन्य भागों में भी दही जमाने की प्रथा शुरू हुई (माधवी 2018)। लेकिन एक अन्य किंवदंती के अनुसार दही सबसे पहले यूरोप के बाल्कन प्रायद्वीप के लोगों द्वारा तैयार किया गया था। यूरोप में थ्रेस के किसानों द्वारा भेड़ के दूध से खट्टा दूध ‘प्रोकिश’ तैयार किया गया था (Chandan et al. 2017)। तर्क चाहे जो भी हों, लेकिन इस तथ्य में शक नहीं है कि बुल्गारिया ने ही पश्चिमी देशों को दही से अवगत करवाया। उसे एक वाणिज्यिक उत्पाद बनाया। बुल्गारिया के ट्रन इलाके में रहने वाले एक वैज्ञानिक स्टामेन ग्रीगोरोव ने 1905 में सबसे पहले दही जमने के तरीके पर अनुसंधान किया था और दही जमाने वाले जीवाणु, लैक्टोबैसिलस बुल्गारिकस की खोज की थी। बुल्गारिया के इस वैज्ञानिक के नाम पर ट्रन इलाके में दही म्यूजियम भी बनाया गया है जो दुनिया में अपनी तरह का एक ही म्यूजियम है (Ozen & Dinleyici 2015, माधवी 2018)।

फारसी समाज का मानना ​​है कि नियमित रूप से दही के सेवन के कारण अब्राहम (जिसे इब्राहिम भी कहा जाता है) लंबे समय तक जीवित रहे थे। यह माना जाता है कि रूस और यूरोप में मंगोलों, टार्टर्स और अन्य एशियाई शासकों के आक्रमणों ने भी दही और किण्वित दूध को दुनिया के अन्य हिस्सों में फैलाने में योगदान दिया (Chandan et al. 2017)।

दही के संरचनात्मक घटक

ताजा दूध की तुलना में दही विटामिन बी, प्रोटीन और कैल्शियम का एक अच्छा स्रोत है जो शरीर के लिए पचाने में आसान होते हैं। आमतौर पर दही में वसा 2.45-3.60 प्रतिशत, प्रोटीन 2.66-3.6 प्रतिशत, लैक्टोज 4.12-4.73 प्रतिशत, राख 0.48-0.75 प्रतिशत, कुल ठोस 12.38-18.55, पीएच 4.11-5.05, और लैक्टिक एसिड अम्लता 0.58-1.07 प्रतिशत होती है (Deb & Seth 2014)। दही की विभिन्न किस्मों का विस्तरित पोषण मूल्य (प्रति 100 ग्राम) इस प्रकार है:

संघटक भाग 

कम वसा वाली सादी दही फलयुक्त कम वसा वाली दही फलयुक्त सम्पूर्ण दुग्ध दही

फलयुक्त कम ऊर्जा वाली दही

ऊर्जा (कैलोरी) 56 90 105 41
प्रोटीन (ग्रा) 5.1 4.1 5.1 4.3
शर्करा (ग्रा) 7.3 17.1 15.4 5.8
वसा (ग्रा) 0.8 0.7 2.8 0.2
संतृप्त वसा अम्ल (ग्रा.) 0.5 0.4 1.5 0.1
एकल असंतृप्त वसा अम्ल (ग्रा.) 0.2 0.2 0.8 0.1
बहु असंतृप्त वसा अम्ल (ग्रा.) नगण्य नगण्य 0.2 नगण्य
आहारीय फाइबर (ग्रा.) Nil 0.5 0.5 0.5
कैल्शियम (mg) 190 150 160 130
फास्फोरस (mg) 160 120 130 110
पोटैशियम (mg) 250 210 210 180
सोडियम (mg) 83 64 82 73
क्लोरिन (mg) 150 130 150 120
तांबा (mg) नगण्य नगण्य नगण्य नगण्य
आयोडीन (μg) 63 48
लोहा (mg) 0.1 0.1 नगण्य 0.1
मैगनीशियम (mg) 19 15 16 13
सेलेनियम (μg) 1 नगण्य नगण्य नगण्य
ज़िंक (mg) 0.6 0.5 0.5 0.4
विटामिन ए (μg) 9 11 42 नगण्य
थायमिन (mg) 0.05 0.05 0.06 0.04
राइबोफ्लेविन (mg) 0.25 0.21 0.3 0.29
निकोटिनिक एसिड (mg) 0.15 0.14 0.13 0.13
पाइरिडोक्सीन (विटामिन बी6) (mg) 0.09 0.08 0.07 0.07
फोलिक एसिड (μg) 17 16 10 8
कोबालमिन (विटामिन बी12) (μg) 0.2 0.2 0.1 नगण्य
पैंटोथेनिक एसिड (विटामिन बी5) (mg) 0.45 0.33 0.3
बायोटिन (μg) 2.9 2.3 2
विटामिन सी (mg) 1 1 1 1
विटामिन डी (μg) 0.01 नगण्य नगण्य नगण्य
विटामिन ई 0.01 नगण्य नगण्य 0.03
स्त्रोत: Holland, Unwin & Buss, 1989, Buttriss, 2003

उपरोक्त तत्वों के अतिरिक्त दही में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर (यीस्ट) की कई अपरिभाषित प्रजातियाँ होती हैं, जो वांछनीय बनावट, स्वाद, सुगंध विकसित करने और भण्डारण काल बढ़ाने के लिए सहक्रियाशील रूप से कार्य करती हैं। दूध को दही में परिवर्तित करने वाले सूक्ष्मजीवों को प्रोबायोटिक्स कहते हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जीवित सूक्ष्मजीवों के रूप में प्रोबायोटिक्स का पर्याप्त मात्रा में आहारीय सेवन मेजबान को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। तदनुसार, कोई भी गैर-रोगजनक सूक्ष्मजीव जो मेजबान के जठरांत्र पथ (गैस्ट्रो-इंटेस्टाइनल ट्रेक्ट) में जीवित रहने में सक्षम होता है और उसको अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है तो उसे प्रोबायोटिक अभ्यर्थी माना जा सकता है (FAO/WHO 2002)। सामान्य तौर पर निम्नलिखित लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और खमीर प्रजातियों का उपयोग दूध को दही में परिवर्तित करने के लिए किया जाता है:

  • जीवाणु: लैक्टोबैसिलस डेब्र्यूकी उप-प्रजाति बेलगारिकस, ब्रेविबेसियस ब्रेविस, बिफीडोबैक्टीरियम, ल्यूकोनोस्टोक, लैक्टोकोकस, एंटरोकोकस, एरोकोकस, स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस, स्ट्रेप्टोकोकस डायसेटाइलैक्टिस, पेडियोकोकस, स्ट्रेप्टोकोकस क्रेमोरिस, स्ट्रेप्टोकोकस थर्मोफिलस (Liyanage et al. 2014, Kagne 2018)।
  • खमीर: सैक्रोमाइसेस, क्लुवरोमीज़, पिचिया, कैंडिडा, डेबेरियोमायरेस, हांसेनूला, ट्राइकोस्पोरोन, मेटशेनिकोविया, यारोविआ और इसाचेन्किया (Rajawardana et al. 2019)

दूध को किण्वित करने के लिए लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया का सबसे अधिक प्रचलन रहा है। अन्य प्रकार के बैक्टीरिया की भांति, लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया भी प्रकृति में सर्वव्यापी हैं जो विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों से भरपूर आवासों जैसे कि मनुष्य, पशु, भोजन, चारा, पौधों और मिट्टी में पाये जाते हैं। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों के विकास के लिए मान्यता प्राप्त विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं का एक विविध समूह है। ये बीजाणुरहित, अचल, अम्ल-सहिष्णु, अश्वस्नीय (एनएरोबिक), वायु-सहिष्णु, कैटालेज-नेगेटिव, ग्राम-पॉजीटिव, गोलाकार या छड़ीनुमा होते हैं। शर्करा, किण्वन के अंतिम चपापचयी उत्पाद के रूप में लैक्टिक एसिड उत्पन्न करने के रूप में चिन्हित है। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया में कार्यात्मक श्वसन तंत्र नहीं होता है और अधःस्तर (सब्सट्रेट स्तर) पर षट्कोणीय शर्करा किण्वन के लिए फास्फोरिलीकरण के माध्यम से ऊर्जा प्राप्त करते हैं (Mora-Villalobos et al. 2020)।

दही जमने में सहायक प्रवर्तक सूक्ष्मजीव

दूध में मौजूद विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों की गुणात्मक रूप बढ़ोतरी होने पर यह गाढ़ा अर्थात जम जाता है और इस जमे हुए दूध को दही कहते हैं। दूध से दही बनाने में उपयोग किये जाने वाले सभी सूक्ष्मजीवों का उपयोग प्रोबायोटिक्स के रूप में किया जाता है। दूध को एसिड द्वारा या लैक्टिक एसिड बैक्टीरियल उपभेदों के साथ एक साथ जोड़कर किण्वित किया जा सकता है। दूध से दही बनाने में शामिल जीवाणुओं और कुछ निश्चित खमीरों का उपयोग किया जाता है। इन सब सूक्ष्मजीवों में सबसे अधिक उपयोग लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया का ही किया जाता है (Liyanage et al. 2014, Kagne 2018) लेकिन खमीर भी पारंपरिक किण्वित खाद्य पदार्थों में सुरक्षित मानव उपभोग का एक लंबा इतिहास भी है।

और देखें :  दुग्ध विकास मंत्री श्री धन सिंह रावत ने की सहकारिता एवं दुग्ध विकास विभाग की समीक्षा बैठक

डेयरी उद्योग में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया की बहुक्रियाशील भूमिका है। वे दूध में मौजूद षट्कोणीय लैक्टोज को किण्वित करके लैक्टिक एसिड का उत्पादन करते हैं। लैक्टोज दूध में मौजूद होने के कारण सामान्यतः दुग्ध शर्करा भी कहलाती है। यह दो मोनोसैकेराइड अणुओं अर्थात ग्लूकोज और गैलेक्टोज के बीच बीटा-1,4 ग्लाइकोसिडिक लिंकेज से जुड़ने से बनने वाला डासैकराइड है। यह मुक्त एल्डिहाइड ग्लूकोज इकाई के सी-1 पर भी उत्पन्न हो सकता है जो एक अपचयी शर्करा है। लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया बीटा-1,4 ग्लाइकोसिडिक लिंकेज से बनने वाली दुग्ध शर्करा को किण्वित करता है जो दही को खट्टा स्वाद प्रदान करता है (Ledenbach & Marshall 2009)। लैक्टोज किण्वित दूध की विशेषता बनावट और समग्र स्वाद को विकसित करने और संरक्षण को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है (Hati et al. 2013)।

दही खराब होने से बचाना

लंबे समय तक भंडारण या किण्वन से दही अत्यधिक अम्लीय हो जाती है, जिससे यह मानव उपभोग के लिए अनुपयुक्त हो जाती है। डेयरी उत्पाद का रंग या दिखावट उपभोक्ताओं की पसंद-नापंसद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सुखद और विशेष दिखावट उत्पाद विश्लेषण में उपभोक्ता की संवेदी प्रकृति को जोड़ती है। ग्रामीण आंचल में परंपरागत रूप से दही बनाने के लिए पहले से तैयार की गई छाछ में से ही उसका कुछ अंश प्रवर्तक जीवाणुओं रूप में बचा कर रख लिया जाता है जिसका उपयोग अगले दिन के लिए दही जमाने में किया जाता है। लेकिन नित्य-प्रतिदिन ऐसा करने से लैक्टिक एसीड बैक्टीरिया के साथ-साथ अन्य अवांछित जीवाणुओं जैसे स्यूडोमोनास बैक्टीरिया, सेरासिया मर्सेसेस और रोडोटोरूला ग्लूटानिस आदि के संदूषण से उनकी वृद्धि होती है जिससे दही की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव होता है जिससे उसका अवांछनीय रंग और दिखावट तो होती ही है लेकिन इसका सेवन अहितकारी भी हो सकता है (Kiran et al. 2012, Kagne 2018)।

दही की लंबे समय तक गुणवत्ता बनाये रखने के लिए दूध में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया के चुनिंदा उपभेदों का उपयोग कर दूर किया जा सकता है (Ganguli 2001)। इन बैक्टीरिया में दही को खराब करने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीवों के विरूध रोगाणुरोधी गतिविधि होती है (Kiran et al. 2012)। डेयरी उत्पादों, विशेष रूप से डेयरी पेय पदार्थों में उचित स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड मिलाने (कार्बोनेशन) से भी इन उत्पादों की संवेदी विशेषताओं, गुणवत्ता और भण्डारण काल को बढ़ाया जा सकता है। कार्बोनेशन से प्रोबायोटिक्स जैसे लैक्टिक एसीड बैक्टीरिया पर भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है (Newbold & Koppel 2018)।

दही बनाने की विधियां

दुग्ध किण्वन के लिए उचित तापमान और समयावधि होती है। 40 डिग्री सेल्सियस किण्वन तापमान पर दही नहीं जमती है और दही जमाने के लिए इससे कम अर्थात दुग्ध किण्वन के लिए इष्टतम तापमान 8 घंटे के लिए 37 डिग्री सेल्सियस है (Wardani et al. 2017)। दूध से दही बनाने की निम्नलिखित विधियाँ हैं:

  1. परंपरागत विधि: आमतौर पर परिवार विशेष में अपनी आवश्यकतानुसार घर पर परंपरागत रूप से ही दही बनायी जाती है। इस विधि से दही जमाने के लिए पुरानी और बासी खट्टी छाछ को जामन के रूप में गुनगुने दूध में मिलाया जाता है। यह दही जमाने की सबसे आसान और परंपरागत विधि है। उदाहरण के लिए दूध से दही बनाने के लिए 500 ग्राम दूध और 1 से 2 छोटे चम्मच जामन (पहले से जमाई हुई दही) लिये जा सकते हैं जिससे घर पर परंपरागत रूप से दही इस प्रकार बनायी जा सकती है:
  • सबसे पहले दूध को उबाल आने तक गर्म करें। यदि दूध अच्छी तरह उबला हुआ नहीं होगा तो इसकी दही गाढ़ी और मलाईदार नहीं जमेगी।
  • अब इस गर्म दूध का तापमान कम (37 डिग्री सेल्सियस) होने के लिए रख दें। इसका तापमान इतना रह जाए कि अंगुली डालने पर तापमान को आसानी से सहन किया जा सके। अब इसको दही जमाने के लिए रखे बर्तन में डाल दें और पहले जमाई हुई दही को भी दूध में डालकर बर्तन ढक कर कम से कम 6 घंटे के लिए रख दें।
  • 6 घंटे के बाद बर्तन का ढक्खन खोल दें। इस तरह एक दम अच्छी दही जमी हुई मिलेगी।
  • अब इस दही को खाने के साथ प्रयोग में लाया जा सकता है और बची हुई दही को फ्रिज में रख दें, वह जल्दी खट्टी नहीं होगी और 2 से 3 दिन तक भी इस दही का सेवन किया जा सकता है। यदि दही खट्टी हो जाए तो फिर दही को अन्य प्रकार के पकावनों जैसे कि कढ़ी बनाने के लिए या कृषि कार्यों में उपयोग करें, इसको फैंके नहीं।
  1. आचार या नींबू या लाल मिर्च से दही जमाना: यदि किसी कारणवश जामण के रूप में खट्टी छाछ या दही उपलब्ध नहीं है तो जामण के रूप में थोड़ा सा आचार या इमली का गुद्दा या एक नींबू का रस या दो-तीन डंठल सहित लाल मिर्च का उपयोग भी किया जा सकता है। हालांकि, इस विधि से दही जमाने से दही अधिक गाढ़ी तो नहीं होती है लेकिन इस तैयार दही को बाद में दूसरी दही को सामान्य रूप से गाढ़ी दही जमाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
  2. माइक्रोवेव ओवेन में दही बनाना: गतिवान परिवेश में मानवीय जीवन भी गति करने के साथ-साथ तेजी से बदल रहा है। हालांकि, भाग-दौड़ से परिपूर्ण जीवन में समय का अभाव सा होने लगा है और हर कार्य के निपटान में तेजी होने लगी है। खाना बनाने में विद्युतचलित उपकरणों जैसे कि माइक्रोवेव ओवेन का प्रचलन भी बढ़ रहा है। इसी माइक्रोवेव ओवेन में कम समय में ही दही बनायी जा सकती है। माइक्रोवेव ओवेन को 180 डिग्री सेल्सियस पर दो मिनट के लिए गर्म (प्रीहीट) करके स्विच बंद कर दें। अब इसमें जामण लगे हुए दूध का बर्तन रख कर इसका ढक्कन बंद कर दें। तीन-चार घंटे में दही जम जाती है।

आमतौर पर सम्पूर्ण दूध से ही दही बनाया जाता है। पशुओं के बच्चों को भी सम्पूर्ण दूध ही पिलाया जाता है जिससे पशुपालकों को छोटे बच्चों को पालना मंहगा साबित होता है। लेकिन, दूध में से क्रीम निकाल कर भी सेपेरेटर दूध को बच्चों को पिलाने के साथ-साथ बचे हुए सेपेरेटर दूध से दही बनायी जा सकती है। इससे पशुओं के बच्चे भी मुफ्त में पल जाते हैं और जमी हुई दही को बाजार में बेच कर अतिरिक्त आमदनी की जा सकती है।

दही बनाने के लिए उपयुक्त बर्तन

हालांकि, बदलते परिवेश में दही बनाने के लिए मिट्टी से बने बर्तनों के स्थान पर विभिन्न प्रकार के अवयवों जैसे कि धातु, प्लास्टिक या चाईना मिट्टी से बने बर्तनों का उपयोग किया लगा है। लेकिन इन्हीं बर्तनों के उपयोग पर दही के भौतिक-रासायनिक गुण और स्वाद भी निर्भर करते हैं। शोधों में मिट्टी से बने बर्तनों में बनायी गई दही में उच्च गुण और स्वाद पाया जाता है (Kagne 2018, Khadse et al. 2020)।

दही जमाते समय स्मरणीय बातें

  • गाढ़ी दही जमाने के लिए फुलक्रीम दूध का उपयोग करना चाहिए।
  • दही जमाने के लिए मिट्टी के पात्र का उपयोग करें।
  • जिस बर्तन में दूध उबालें, उसी बर्तन में दही नहीं जमानी चाहिए।
  • तेज गर्म दूध में जामण मिलाकर दही न जमाएं, इससे वह पानी छोड़ देती है।
  • दही जमाने के समय दूध बहुत अधिक गर्म या बिल्कुल ठण्डा नहीं होना चाहिए, वह गुनगुना सा (37 डिग्री सेल्सियस) होना चाहिए।

दही के प्रकार

दही बनाने, मिठास और अम्लता के आधार पर यह पांच प्रकार होती है (Chunekar & Pandey 2006):

  1. मन्द दही: जो दही दूध के समान अर्थात ठीक से नहीं जमी है, अव्यक्त रस वाली तथा कुछ गाढ़ी हो, उसे मन्द दही कहते हैं। यह मल तथा मूत्र की प्रवृत्ति करने वाली, त्रिदोष (वात, पित्त और कफ), और दाह को उत्पन्न करने वाली होती है।
  2. मधुर दही: इसे स्वादु दही भी कहते हैं। जो दही भली-भन्ति गाढ़ी हो और जिसका स्वाद (मधुर) रस की भान्ति अच्छी तरह प्रगट होता है तथा अम्ल रस अव्यक्त सा हो (अर्थात ठीक से मालूम न पड़ता हो), ऐसी दही को मधुर दही कहते हैं। यह दही अत्यंत अभिष्यन्दी (टपकने वाला), मेद और कफ को उत्पन्न करने वाली, वातनाशक, विपाक में मधुर रसयुक्त तथा रक्तपित्त को शांत करने वाली होती है।
  3. स्वाद्अम्लक दही: ऐसी गाढ़ी, मधुर रसयुक्त और अंत में कषाय रसयुक्त दही को स्वाद्अम्लक दही कहते हैं। यह दही गुणों में साधारण दही के समान होती है। यह वायुनाशक होती है।
  4. अम्लक दही: जिस दही में मधुर रस छिपा हो और अम्ल रस प्रगट होता है, उसे अम्लक दही कहते हैं। यह अग्निदीपक, पित्त, रक्तविकार और कफ बढ़ाने वाली होती है।
  5. अत्यम्लक दही: जिस दही के सेवन से दांत हर्षित (खट्टे) हो जायें तथा रोंगटे खड़े हो जायें और कण्ठ आदि में दाह होने लगे उसे अत्यम्लक दही कहते हैं। यह अग्निदीपक, रक्तविकार, वात, पित्त को अत्यंत उत्पन्न करने वाली होती है।

दही के आहारीय के लाभ

दूध और दूध से बने सभी पदार्थ पौष्टिक तो होते हैं लेकिन इनमें दही का स्थान प्रथम है। दही के साथ सेवन किया हुआ आहार सहजता से पाचन होता है और उस भोजन के विटामिन और प्रोटीन सरलता से रक्त में मिल जाते हैं। इसीलिये दूध की तरह दही को भी ‘परिपूर्ण आहार’ कहा जाता है।

रोचनं दीपनं वृष्यं स्नेहनं बलवर्धनम्।
पाकेऽम्लमुष्णं वातघ्नं मङ्गल्यं बृंहणं दधि। ।225।।

पीनसे चातिसारे च शीतके विषमज्वरे।
अरुचै मूत्रकृच्छ्रे च कार्श्ये च दधि शस्यते। ।226।।

चरक संहिता के अनुसार दही क्षुदावर्धक, कामोत्तेजक, कामशक्तिवर्धक, शक्तिवर्धक, वातनाशक, बलवर्धक है (225)। यह नासिका प्रदाह, दस्त, कंपकंपी, आंतरायिक ज्वर, क्षुदानाश, मूत्रकृच्छता और क्षीणता संबंधी व्याधियों में उपयोगी है (226)।

  • पाचन टॉनिक: विज्ञान के अनुसार, रोगाणुओं के विरूध रोगाणुरोधी क्रिया और पोषक तत्वों की पाचन क्षमता में सुधार के कारण दही स्वास्थ्य और जीवन शक्ति को बढ़ावा देने में लाभकारी है। परंपरागत रूप से तैयार दही को प्रोबायोटिक्स के रूप में पोषक तत्वों के पाचन और आंतों के सूक्ष्मजीव संतुलन पर लाभकारी प्रभाव के लिए उपयोग किया जा सकता है (Kore et al. 2012)।
  • यकृत रोग: लगभग 30 प्रतिशत मदिरापान करने वाले व्यक्तियों में गंभीर मद्यजन्य यकृत (सीवियर एल्कोहलिक लीवर डीजिज) और एल्कोहलिक स्टीटोहेपेटाइटिस रोग पाये जाते हैं। पशुओं और मनुष्यों पर हुए कई अध्ययनों में आंत्र पथ में अन्तर्जीवविष (एंडोटॉक्सिन) उत्पादक बैक्टीरिया की उपस्थिति पायी गई। इसके विपरीत गैर-मद्यजन्य वसामय यकृत रोग (नॉन-एल्कोहलिक फैटी लीवर डीजिज) आंत में सूक्ष्मजीवों की अतिवृद्धि बैक्टीरिया लिपोपोलिसैकराइड्स का अतिरिक्त निर्माण और सूजन उत्प्रेरण पदार्थों के कारण होती है। आंतों के सूक्ष्मजीव अमोनिया का उत्पादन करते हैं जो न्यूरोसाइकियाट्रिक सिंड्रोम पैदा करने वाले केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को बाधित करती है। हालांकि, रोगजनकों के अतिप्रयोग को कम करने के लिए रोगणुरोधी औषधियां दी जाती हैं। लेकिन, दही में मौजूद प्रोबायोटिक्स आंत की पीएच, बैक्टीरियल यूरिएज और अमोनिया के अवशोषण को कम करते हैं। हेपेटाइटिस बी और सी वायरस वाले रोगियों में बिफीडोबैक्टीरिया और लैक्टोबैसिलस अन्तर्जीवविष और यकृत परिगलन में सुधार करते हैं (Das et al. 2019)।
  • अस्थिसुषिरताः दही में कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है जो कि हड्डियों की मजबूती के लिए बहुत लाभदायक होता है। दही के सेवन से दांत भी मजबूत होते हैं। दही अस्थिसुषिरता (ऑस्टियोपोरोसिस) जैसी समस्या से लड़ने में भी सहायक है।
  • दंत रोग: दंत क्षय (डेंटल कैरीज्) को नियंत्रित करने के रोगाणुरोधी प्रभाव जिनमें प्रोबायोटिक भी शामिल हैं, बच्चों में दंत क्षरण नियंत्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कई अध्ययनों ने दही सहित विभिन्न प्रोबायोटिक उत्पादों के उपयोग के लाभकारी प्रभावों को साबित किया है। दही में मौजूद प्रोबायोटिक के सेवन से रोगजनक जीवाणुओं में सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण कमी पायी जाती है (Sudhir et al. 2012, Manoharan et al. 2020)।
  • अनिन्द्रा: अनिन्द्रा शाम को सोने के समय सोने में असमर्थता को संदर्भित करता है जिसके लक्षणों में रात के दौरान जागना, सुबह बेचैनी महसूस करना, थकान, चिड़चिड़ापन, चिंता, अवसाद, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई, सिरदर्द और पाचन समस्याएं शामिल हैं (Ratini 2020)। सोने से पहले दही का सेवन कर घर पर अनिन्द्रा का इलाज किया जा सकता है। ट्रिप्टोफैन हमारे शरीर का एक प्राथमिक अमीनो एसिड है जो सेरोटोनिन और मेलाटोनिन के उत्पादन के लिए होता है जो नींद और विश्राम को प्रेरित करने में शामिल होते हैं। अध्ययनों से साबित हुआ है कि सोने के समय से एक घंटे पहले 8 सप्ताह तक दही का सेवन करने से मेलाटोनिन, मैग्नीशियम और जिंक युक्त खाद्य पदार्थ नींद की गुणवत्ता में सुधार करते है (Peuhkuri et al. 2012)। दही में ट्रिप्टोफैन, कैल्शियम, मैग्नीशियम, विटामिन बी12, बी5 और फोलिक एसिड होते हैं जो अनिद्रा के उपचार के लिए लाभदायक होते हैं। ट्रिप्टोफैन सेरोटोनिन और मेलाटोनिन के संश्लेषण में मदद करता है जो नींद को प्रेरित करता है। कैल्शियम जागृति और बेचैनी को कम करता है। मैग्नीशियम पीनियल ग्रंथि से मेलाटोनिन स्राव को उत्तेजित करता है, घबराहट को रोकता है और नींद को प्रेरित करता है (Das et al. 2019)।
  • तनावः कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि दही का सेवन करने से तनाव की समस्या को दूर किया जा सकता है। दही खाने का सीधा संबंध मस्तिष्क से है जिसका सीधा सा अर्थ है कि दही का सेवन करने से तनाव की समस्या को कम किया सकता है। दही में मौजूद विटामिन बी12 भ्रम, मनोभ्रंश (डिमेंसिया) और थकान को रोकता है। विटामिन बी5 तनाव और चिंता से राहत देता है (Das et al. 2019)। राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल में हुए एक अध्ययन के निष्कर्षों में पाया कि प्रोबायोटिक (किण्न्वित) दूध का भैंस के कटड़ों को पिलाने से शीतकीय तनाव के साथ-साथ ग्रीष्म तनाव दूर करने में सहायक होता है (Shinde et al. 2019)।
  • रोग प्रतिरोधक शक्ति: दही का नित्य प्रतिदिन सेवन प्रतिरक्षा को मजबूत बनाने का कार्य करता है। प्रतिदिन एक चम्मच दही खाने से भी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाया जा सकता है। प्रोबायोटिक्स में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया जैसे जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं जो मेजबान को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। दही प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाकर मेजबान के स्वास्थ्य को बढ़ावा देती है। यह मेजबान की श्लैष्मिक (म्यूकोसल) और प्रणालीगत (सिस्टेमिक) प्रतिरक्षा को बढ़ाकर प्राकृतिक प्रतिरक्षा को मजबूती प्रदान करती है, जो सक्रिय मैक्रोफेज, इम्युनोग्लोबुलिन के स्तर में वृद्धि, प्राकृतिक हत्यारी कोशिका गतिविधियों के उच्च स्तर और मेजबान शरीर में साइटोकिन्स के माध्यम से व्यक्त होती है (Ashraf & Shah 2014)।
  • रक्ताल्पता: दही में फोलिक एसिड होता है जो हीमोग्लोबिन उत्पादन को सुविधाजनक बनाता है और एकाग्रता में सुधार करता है। अतः रक्ताल्पता को दूर करने के लिए दही का सेवन उपयोगी माना जाता है (Das et al. 2019)।
  • कैंसर: दही का सेवन जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिजों का सही संयोजन होता है, कैंसर से लड़ने में मदद करता है। प्रोबायोटिक बैक्टीरिया युक्त दही, ट्यूमर के गठन और प्रसार को रोकता है (Das et al. 2019)।
  • मधुमेह: दही में मौजूद प्रोबायोटिक्स शरीर में ऑक्सीडेटिव तनाव को कम करती हैं। ग्लूकोज चयापचय को दही से विनियमित किया जा सकता है और प्रोबायोटिक्स द्वारा आंत के सूक्ष्मजीवों के संशोधन से मधुमेह का इलाज किया जा सकता है (Farvin et al. 2010)।
  • हृदय रोग: दही के सेवन से हृदय में होने वाले परिहृदय-धमनी (कोरोनरी आर्टरी) रोग से बचाव किया जा सकता है। दही के नियमित सेवन से शरीर में कोलेस्ट्रोल को कम किया जा सकता है (Farvin et al. 2010, Madhu et al. 2013)।
  • मोटापा विरोधी: शरीर का अधिक भार कई लोगों के लिए परेशानी बन जाता है। दही प्रोटीन से भरपूर होती है और इसमें आवश्यक पोषक तत्वों के साथ स्वास्थवर्धक वसा भी होता है। इसका सेवन करने से न सिर्फ शरीर का भार कम करने में मदद मिलती है बल्कि यह स्वास्थ्यवर्धक वसा को भी बढ़ावा देती है। शरीर की अतिरिक्त वसा को कम करने के लिए दही सहायक हो सकती है। दही न केवल शरीर का भार बढ़ाने में मदद करती है बल्कि इसे कम करने में भी मदद कर सकती है।
  • त्वचा अनुकूलकः चेहरे पर दही लगाने से त्वचा मुलायम होती है और त्वचा में निखार आता है। दही से चेहरे की मालिश की जाए तो यह ब्लीच के जैसा कार्य करती है। इसका प्रयोग बालों में अनुकूलक (कंडीशनर) के रूप में भी किया जाता है। गर्मियों में त्वचा पर आतपदाह (सनबर्न) होने के बाद दही से मलना चाहिए, इससे सनबर्न और साँवलापन (टैन) से लाभ मिलता है। त्वचा का रूखापन दूर करने के लिए दही का प्रयोग किया जा सकता है। जैतून के तेल और नींबू के रस के साथ दही को चेहरे पर लगाने से चेहरे का रूखापन समाप्त होता है।
  • सौंदर्यवर्धक: दही में बेसन मिलाकर लगाने से त्वचा में निखार आता है। इसे लगाने से त्वचा के कील-मुहांसे दूर होते हैं और त्वचा का रूखापन दूर होता है। रूखी त्वचा के लिए आधा कप दही में एक छोटा चम्मच जैतून का तेल और एक छोटा चम्मच नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर लगाकर कुछ देर बाद गुनगुने पानी से चेहरा धोने से त्वचा का रूखापन दूर होता है। इसे गर्दन, कोहनियों, एड़ी और हाथों पर भी लगाया जा सकता है। दही त्वचा पर नमीवर्धक (मॉइस्चराइजर) का कार्य करती है और त्वचा को मुलायम बनाती है। वास्तव में, दही में मौजूद लैक्टिक एसिड त्वचा पर उबटन (फेशियल मास्क) की तरह कार्य करता है और त्वचा में अंदर छिपी गंदगी को बाहर करने में सहायता करता है।
  • पसीने की बदबू एवं स्नान: गर्मी के दिनों में पसीना काफी निकलता है जिससे शरीर से बदबू आने लगती है। इसके लिए दही और बेसन मिलाकर शरीर पर मालिश कर कुछ देर बाद स्नान करने से बदबू दूर हो जाती है।
  • ऊर्जा: दही को शरीर ऊर्जा के लिए बहुत लाभकारी माना जाता है। थकान, कमजोरी और ऊर्जा की कमी महसूस होने पर दही का सेवन किया जा सकता है। दही शरीर को निर्जलित होने से बचाकर ऊर्जा देने में मदद करती है।
और देखें :  दुग्ध प्रसंस्करण: पशुपालकों की आय बढ़ाने में महत्वपूर्ण डेयरी उत्पाद

पथ्य-अपथ्य

शरद्ग्रीष्मवसन्तेषु प्रायशो दधि गर्हितम्।
रक्तपित्तकफोत्थेषु विकारेष्वहितं च तत्। ।227।।

चरक संहिता के अनुसार दही शरद ऋतु, ग्रीष्म और वसंत ऋतु में दही को आमतौर पर त्याग दिया जाता है। यह रक्त, पित्त और कफ से उत्पन्न विकारों में भी हानिकारक है (227)।

हालांकि, दही प्रोटीन, कैल्शियम, मैग्नीशियम और विटामिन में समृद्ध है और मधुमेह रोगियों के लिए लाभकारी माना जाता है। एक अध्ययन दही के एक अन्य पहलू, प्रोटीन ग्लाइकेशन में इसकी भूमिका को उजागर करता है और जिससे सूजन शुरू हो जाती है। इसलिए दही के नियमित सेवन से प्रोटीन ग्लाइकेशन, सूजन और ऑक्सीडेटिव तनाव हो सकता है जो मधुमेह की अवांछित प्रगति का कारण बन सकता है (Patil et al. 2021)।

रात को दही खाने से पाचन क्रिया में गड़बड़ी पैदा हो सकती है। इसे पचाने के लिए ऊर्जा दाह करने की आवश्यकता होती है। रात के समय ज्यादातर लोग खाने के बाद सो जाते है, जिससे परेशानी बढ़ सकती है। इससे शरीर में सूजन हो भी सकती है। रात के समय दही खाने से शरीर में संक्रमण हो सकता है। लेकिन अध्ययनों के अनुसार सोने के समय से एक घंटे पहले 8 सप्ताह तक लेने से नींद की गुणवत्ता में सुधार होता है (Peuhkuri et al. 2012)। दही के सेवन से खांसी और जुखाम हो सकता है। दमा से पीड़ित व्यक्तियों में दही के सेवन से समस्या बढ़ सकती है। जिन व्यक्तियों को गठिया या जोड़ों के दर्द की समस्या है तो रात के समय इसका सेवन करने से बचना चाहिए।

दही एक प्राकृतिक स्वास्थ्य संवर्धित पोषाहार

दही से बने व्यंजन

  • मक्खन: मक्खन को दही मथ कर तैयार किया जाता है जिसका सेवन भी हर घर में होता है। ग्रामीण आँचल में घी पसन्द किया जाता है और यदि घी उपलब्ध नहीं है तो मक्खन का उपयोग किया जाता है। हर ढाबे या रेस्टोरेंट में तो मक्खन हर समय वहाँ पर भोजनाहार करने वालों को परोसने के लिए उपलब्ध होता है। शुद्ध मक्खन की उपलब्धता को पूरा करने में पशुपालकों की मुख्य भूमिका है। पशुपालक चाहें तो मक्खन तैयार करके दूध के मूल्य में बढ़ोतरी कर अच्छी आमदनी कमा सकते हैं।
  • देसी घी: देसी घी को मक्खन उबाल कर तैयार किया जाता है। यह दूध का ऐसा उत्पाद जो हर पशुपालक के घर में मिलता है। इसको बेच कर पशुपालक अच्छे दाम भी कमाते हैं। बाजार में शुद्ध देशी घी मिलना आमतौर पर मिलना आसान नहीं होता है। अतः पशुपालक शुद्ध देशी घी तैयार करके बाजार में बिकने वाले देशी घी से भी ज्यादा दामों पर बेच कर अच्छा व्यवसाय कर सकते हैं।
  • छाछ: यह एक ऐसा उत्पाद है जो दही को मथ कर मक्खन निकालने के बाद बचे हुए द्रव के रूप में प्राप्त होता है। यह भी दही की तरह ही प्रोबायोटिक्स से भरपूर एक ऐसा सुपाच्य एवं पौष्टिक उत्पाद है जिसका सेवन किया जाना शरीर के लिए लाभकारी है। छाछ में विभिन्न प्रकार के खनिज तत्त्वों साथ-साथ प्रोटीन एवं कुछ मात्रा में वसा भी होती है। छाछ को भी दूध की तरह अच्छे दामों पर बेचा जाता है।
  • श्रीखण्ड: दही से पानी निकालने के बाद स्वादानुसार श्रीखण्ड बनाया जाता है जो स्वास्थ्यवर्धक एवं सुपाच्य होता है। श्रीखण्ड बनाने लिए दही 2.5 कप, चीनी 1 कप, केसर 8 – 10 धागे, छोटी इलायची 2, बादाम 4, पीस्ता 6-7 और दूध 2 छोटे चम्मच की आवश्यकता होती है। दही से श्रीखण्ड बनाने के लिए दही को मलमल के कपड़ें में बांध कर दो घण्टे के लिए लटका दें ताकि उसमें से पानी अलग हो जाए। अब इलायची, बादाम एवं पीस्ता को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर रख लें। केसर को दूध मिश्रित होने के लिए मिला कर रख दें। दो घण्टे बाद दही को एक बर्तन में डाल कर उसमें स्वादानुसार चीनी मिला लें। केसर मिश्रित दूध भी इसमें अच्छी तरह मिला लें। अब इसमें छोटी इलायची, बादाम एवं पीस्ता भी मिला लें। इस प्रकार श्रीखण्ड परोसने के लिए तैयार है। कुछ बादाम एवं पीस्ता को श्रीखण्ड तैयार होने के बाद उसके ऊपर भी सजाने के लिए डाल सकते हैं।
  • दही भल्ला: भारत में लोग स्ट्रीट फूड खाने के शौकीन होते है, खासतौर पर उत्तर भारत में दही भल्ला पसंद किया जाता है जिसे उड़द दाल से तैयार किया जाता है। दही और खट्टी-मिट्ठी चटनी के इसके स्वाद को और भी बढ़ा देते हैं। इस पर चाट मसाला और जीरा पाउडर डालकर परोसा जाता है। दही भल्ला में पनीर और अखरोट की स्टफिंग से तैयार किए गए दही भल्ले रिकोटा दही भल्ला कहते हैं।
  • रायता: रायता दही आधारित एक भारतीय व्यंजन है। रायता बनाने के लिए दही को मथ कर इसमें प्याज, ककड़ी खीरा, टमाटर, या बेसन की बूंदी या अनानास आदि भोज्य सामग्री मिलाई जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त इसमें स्वादानुसार मिर्च, नमक, भुना हुआ जीरा, हींग और कभी-कभी पुदीना भी मिलाया जाता है। रायता कई अलग-अलग प्रकार के बनाए जाते हैं जैसे मिक्स वेज रायता, बूंदी रायता, खीरा रायता इत्यादि।
  • दही भिण्डी: दही और मसालों के मिश्रण से ग्रेवी तैयार करके इसमें भिण्डी को पकाने से अलग स्वाद आता है। इसका सेवन परांठे के साथ किया जा सकता है।
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निष्कर्ष

दही दूध से बना प्राबायोटिक्स से परिपूर्ण खाद्य पदार्थ है जिसका उपभोग मानव सह्स्त्राब्दियों से करता आ रहा है। हालांकि, कुछ पौराणिक संदर्भों में दही के सेवन के पथ्य-अपथ्य विचार हैं लेकिन आधुनिक संदर्भों में दही के सेवन के बारे में ऐसा विवरण नहीं है। इसके नित्य और नियमित सेवन से शारीरिक स्वास्थ्यवर्धन होता है। इसके अतिरिक्त, दूध को ज्यादा समय तक भण्डारण नहीं किया जा सकता है और यह खराब होने लगता है और मानवीय सेवन के लिए अयोग्य हो जाता है। इस प्रकार दुग्ध उतपादन करने वाले पशुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। जिससे बचने के लिए दूध को किण्वित करके दही में परिवर्तित करके बेचा जा सकता है। ऐसा करने से पशुपालकों को दूध की तुलना में अधिक दाम भी मिलते हैं। इस प्रकार दूध का मूल्य संवर्धन न केवल उनको लाभ प्रदान कर सकता है बल्कि दही का सेवन वाले मनुष्यों को भी स्वास्थ्य लाभ मिलता है।

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