पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में गौवंशीय पशुओं में पोषण प्रबन्धन

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। पूर्व काल से ही भारत में कृषि एवं पशुपालन एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं। उत्तराखण्ड राज्य कृषि एवं बागवानी पर आधारित पर्वतीय राज्य है। कृषि एवं पशुपालन व्यवसाय लघु एवं सीमान्त कृषको के लिए एक वरदान है। कृषि के कम गुणवत्तायुक्त उत्पाद एवं उपउत्पाद को पशुओं द्वारा उपयोग करके अधिक पोषकमान युक्त दूध, उन मांस एवं खाद में बदल देता है। पशुओं का मूत्र, गोबर, उत्तम जैविक खाद के रूप में कृषि एवं बागवानी को पल्लिवित, पुष्पित और फलित करता है।

कुशल पशुपालन के चार प्रमुख आधार हैं।

  1. उन्नति प्रजाति/ नस्ल की उपलब्धता।
  2. पोषण प्रबन्धन एवं आवास प्रबन्धन।
  3. अन्तः परजीती एवं बाहय परजीवी पर नियत्रंण।
  4. चिकित्सा तथा बिमारियों की रोकथाम।

भारतवर्श में गोवंशीय पशुओं की नस्ले 30 एवं महिषवषींय पशुओं की 10 नस्लों को उनके आनुवंशिकता एवं उत्पादन के आधार पर चिन्हित किया गया है। जिसमें से अधिकतर नस्लों की संकट प्रजातियाँ उत्त्राखण्ड राज्य में पाली जा रही हैं।

देश में दो प्रकार के गोवंशीय पशु जाते हैं।

  1. देशी नस्ल (Indigenous breed)
  2. संकट नस्ल (Cross breed)

देशी प्रजाती

देशी प्रजाति मुख्यतः उसी ऐरिया में पायी जाती है। यह प्रजाति शरीर भार में कम, आयू में कम, देखने में भी छोटी होती है एवं दुग्ध उत्पादन क्षमता भी बहुत कम होती है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में इसका आकार भी छोटा एवं वजन भी कम होता है। बहुत ऊॅचाई वाले स्थानों पर 0.5 से 1 लीटर औसतन दुग्ध उत्पादन होता है।

संकर प्रजाति

इसमें दो या तीन प्रजातियों का मिश्रण होता है। इस प्रजाति में शरीर भार भी अधिक होने के साथ दुग्ध उत्पादन भी अधिक होता है।

पशुपोषण में मुख्यतः शरीर: शरीर के भार के आधार पर, आयु के आधार पर, प्रजनन क्षमता के आधार पर शरीर की अवस्था के आधार पर संतुलित आहार की आवश्यकता होती है।

संतुलित आहार में उपलबध विभिन्न पोषक तत्व जैसे की प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रैट, रेशायुक्त, पदार्थ, खनिज मिश्रण, पानी, नमक तथा इन पोषक तत्वों के क्रियावहन पर आधारित किया जाता है।

पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में गौवंशीय पशुओं में पोषण प्रबन्धन

दुधारू गोवंशीय पशुओं में

नवजात गोवत्स का पशु प्रबन्धन (स्वदेशी गाय)

  1. नवजात पशु के जन्म के तुरन्त बाद कुल शरीर भार का 1/10 भाग खीस 1/2-1 घण्टे के अन्दर अवश्य पिलाना चाहिये। जिससे नवजात पशु की रोग प्रतिरोधकता क्षमता का विकास होता है।
  2. खीस के लक्सेटिव गुण के कारण बीमारी एवं कब्ज से बचाव होता है।
  3. दो-तीन सप्ताह बाद लवारे को हरा चारा बहुत कम मात्रा में खिलानें की कोशिश करनी चाहिएं।
  4. इस समय लवारे को भूसा, सूखा, चारा एवं नमक नही देना चाहिये क्योंकि इसका पाचक तंत्र पूर्ण रूप से विकसित नही होता है।
  5. शुरू में प्रवर्तक आहार एवं हरा मुलायम ताजा चारा ही देना चाहिये।
  6. दो महीने के बाद से 50-700 ग्राम दानें की जरूरत होती है।
  7. प्रवर्तक आहार बनाने के लिए- मोटा दला हुआ मक्का/जौ-40 प्रतिशत, खली (अलसी, मूंगफली) –35 प्रतिशत, गेहॅू का चोकर-22 प्रतिशत, खनिज मिश्रण- 2 प्रतिशत, नमक-1 प्रतिशत, योग- 100 प्रतिशत
और देखें :  पशुओं में फास्फोरस की कमी से होने वाला पाईका रोग

छः महीने से दो साल (24 महीने) तक की बछिया की देखभाल

  1. बछिया को- 10-15 किलो ग्राम हरा चारा, एक किलो दाना खिलाना चाहिये।
  2. चारा कुटटी करके नांद में देना चाहिये।
  3. अच्छा खनिज मिश्रण- 300 ग्राम / दिन देना चाहिये।
  4. उम्र बढ़ने के साथ-साथ दाने व पानी की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये।
  5. हरे चारें में पानी 80-90 प्रतिशत, सूखे चारे में –0 प्रतिशत एवं दाने मे 10-12 प्रतिशत पानी होता है।

दाने की मात्रा के अनुसार

  • गाय में जीवन निर्वाह हेतू 100 किलो ग्राम शरीर भार- 2.5 किलो ग्राम संतुलित आहार देना चाहिये।
  • देशी गाय के जीवन निर्वाह के लिएः- 1.25-1.5 किलोग्राम प्रति 100 किलोग्राम शरीर भार प्रतिदिन।
  • संकर गाय के जीवन निर्वाह के लिएः-1.5-1.75 किलोग्राम प्रति 100 किलोग्राम शरीर भार प्रतिदिन।
  • गर्भाधारण के समयः- (देशी गाय)-1.25 किलो ग्राम/100 किलो ग्राम शरीर भार प्रतिदिन।
  • (संकर गाय) 1.5 किलोग्राम/100 किलोग्राम शरीर भार प्रतिदिन
  • छः माह उपरान्त- ब्याने से एक सप्ताह पहले 500 ग्राम देशी गाय एवं संकर गाय दोनो का गेहॅू का चोकर आहार से मिलाकर देना चाहिये।
  • गेंहू का चोकर- बहुत ही लेक्जेटिव होता है जिससे ब्याने में गाय को परेशानी का सामना कम करना पड़ता है।

दुग्ध उत्पादन के दौरान

  • 2.5 किलोग्राम दुग्ध उत्पादन/1 किलोग्राम दाना दोनो देशी गाय व संकर गाय को दिया जाना चाहिये।
  • रबी सीजन में मक्का, बरसीम, जई- हरे चारे के रूप में खिलाना चाहिये।
  • खरीफ सीजन में लोबिया, चरीहरे चारे के रूप में खिलाना चाहिये।

पर्वतीय क्षेत्रों में: चारा वृक्षो जैसे भीमल, खड़िक, बाज एवं षहतूत की पत्तियों को खिलाने से उच्च गुणवत्ता वाले पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। जिससे पशुओं का जनन एवं प्रजनन के साथ-साथ दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है।

अधिकतम दुग्ध उत्पादन के लियेः आहार में चारा एवं दाना अनुकूलतम अनुपात में हो। चारा उत्तम किस्म तथा अनुकूलन अवस्था में कटा हो। दाने एवं चारे की पचनीयता मान- 35-40 प्रतिशत होनी चाहिये। आहार खिलाने की बारम्बारता 6 घण्टे के अंतराल का होना चाहिये जिससे भोजन का पाचन आमाशय में उचित ढंग से हो सके।

  1. मौसम के अनुसार 25-30 लीटर पानी पिलाना आवश्यक होता है।
  2. गों पशुओं में रेशायुक्त आहार का उपयोग करके उच्च पोषक, पोषक युक्त दुग्ध उत्पादन करना चाहिये। क्योकि इन पशुओं में रेशेयुक्त आहार में उपस्थित सैल्लूलोज को पचानें के लिए सेलूलेज इन्जाइम पाचन तंत्र में उपस्थित होता है।
और देखें :  पशुओं के ब्याने के समय और उसके तुरंत बाद की सावधानियां

उत्तराखण्ड राज्य मेंः छोटी जोत आकार होने के कारण चाय उत्पादन में कमी के साथ-साथ उच्च गुणवत्तायुक्त आहार की निरन्तर कमी बनी रहती है। इसलिए कृषि, बागवानी से प्राप्त रेशे वाली चारे को प्रसंस्कृत करके अधिक गुणवत्तापूर्ण पोषक आहार का निर्माण किया जाता है।

  1. फसल अवशेष- भूसा, पुआल के पोषण मान में वृद्धि हेतु 2 प्रतिशत यूरिया, 1 प्रतिशत शीरा, 0.3 प्रतिशत खनिज मिश्रण मिलाकर इनका एक द्विप बनाकर 20-22 दिन काली पालीथिन से ठक कर बाद में उपयोग करना चाहिये।
  2. छः महीने वाले लवारो को यूरिया उपचारित आहार नही खिलाना चाहिये।
  3. यूरोमोल- खनिज पिण्ड उत्पाद के रूप में 2 प्रतिशत यूरिया, 20 प्रतिशत शीरा, 1 प्रतिशत वेन्टोनाइट, 2 प्रतिशत खनिज मिश्रण के साथ दलहनी व रेशेयुक्त दाने को मिश्रण करके खनिज पिंड का निर्माण किया जाता है। उपरोक्त पिंड को 5-7 मिनट पशुओं को चटाने से 6-7 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है। तथा दाने की मात्रा भी कम की जा सकती है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र में भूसा व पुआल जैसे सूखे चारे ही गौ- पशुओं के मुख्य आहार होने के कारण पशुओं में संतुलिज मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व नही मिल जाते हैं इसमे पाचकता एवं नाइट्रोजन बहुत कम होता है। जिसके फलसवरूप इन चारों पर पलने वाले पशु उत्पादन करना तो दूर सामान्य तंदुरूस्ती भी बनाये रखनें में असमर्थ हो जाते हैं। जो भूसे का अधिक मात्रा में वैज्ञानिक तरीके से उपचार किया जाता है। इसमें 4 किलोग्राम यूरिया प्रति 50 लीटर पानी में तैयार किया जाता है तथा प्रति 100 किलोग्राम भूसा/पुआल की दर से अच्छी तरह मिलाते जाये। यदि गठरी का औसत भार 20 किलोग्राम हो तो 10 लीटर घोल प्रति गठरी के हिसाब से मिलाकर करना होता है।
  4. उपचारित भूसे को पालिथिन से ठक देना चाहिये। इस भूसे का पुवाल में यूरिया से उत्पन्न अमोनिया जैसे क्षार की उपस्थिति से भूसा मुलायम होने के साथ पोषक मान में वृद्धि हो जाती है। उपचारित भूसा गर्मी के दिनों में एक सप्ताह में खिलाने के लिए तैयार हो जाता है एवं सर्दियों में दो सप्ताह का समय लगता है।
  5. उपचारित भूसे को खिलाने के कुछ समय पहले हवा में फैला देना चाहिये ताकि यूरिया से बनी अमोनिया गैस उड़ जाती है।
  6. इस उपचारित भूसे को अकेले या फिर खली, दलिया, चोकर के साथ भी खिलाया जा सकता है।
  7. अगर हरे चारे के सन्दर्भ में बात करें तों जगह के हिसाब से चारा बाहुल्य क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन बहुत सर्वोत्तम होता है।
और देखें :  दूध में अपमिश्रण (Adultration) की जांच

संतुलित व पोष्टिक आहार खिलाने के लाभ

  1. पशुओं में सभी पोषक तत्व संतुलित मात्रा में शरीर को उपलब्ध कराता है।
  2. पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता को लगभग- 25-30 प्रतिशत बढ़ता है।
  3. पशुओं में बिमारियो से कुपोषण से बचाता है। मृत्युदर कम होती है
  4. पशुओं की आर्थिक आय को बढ़ाता है।

गन्ने का अगोला

गन्ना बाहुल्य क्षेत्रों में गन्ने का अगोला भी पशुओं के लिए एक अच्छा हरा चारा है। इसमें 5-6 प्रतिशत प्रोटीन होती है परन्तु इसके साथ बछिया/बछड़े में 50 ग्राम बड़े पशुओं में 100 ग्राम खड़िया अवश्य खिलानी चाहिये इससे पशुओं के शरीर में कैल्शियम की कमी दूर हो जाती है। दैनिक आधार में नमक का प्रयोग भी उपयोगी होता है क्योंकि यह खनिज पदार्थ की कमी को पूरा करता है।

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