गौ पशुयों का भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्व सर्वविदित है। इनका खेती के साथ लगातार पूरक व अनुपूरक संबंध रहा है। भारत में अधिकांश दुग्ध उत्पादन परंपरागत मिश्रित कृषि प्रणाली में छोटे किसानों (1-3 पशुयों) द्वारा किया जा रहा है तथा यह पारिवारिक आय व पोषण का महत्वपूर्ण स्त्रोत है। प्रभावी आहार प्रबंधन पशुयों के उत्पादन स्तर व स्वास्थ्य को सर्वाधिक प्रभावित करता है। अत: यह आवश्यक है कि जहां तक संभव हो, पशुयों को पर्याप्त चारा व पोषक तत्व (ऊर्जा, प्रोटीन, खनिज, विटामिन व जल) लगातार मिलते रहें। पशुपोषण खाद्य पदार्थों की उपलब्धता व उनकी कीमत, पशु प्रजाति, उनकी आयु, भार, उत्पादन स्थिति (जैसे गर्भावस्था, दुग्ध उत्पादन अवस्था, वृद्धि अवस्था) आदि पर निर्भर करता है। ग्रामीण अंचल में उपलब्ध प्रक्षेत्रीय आहार संसाधनों के वैज्ञानिक रीति से समुचित उपयोग द्वारा पशुयों का उत्पादन बढ़ाना संभव है। इसके लिए यह आवश्यक है कि पशु पोषण से प्रचलित आहारीय प्रणालियों से जुड़ी समस्यायों को समझकर उनका उचित समाधान किया जाए।
आहारीय समस्याएँ
सूखे चारे आधारिक आहार
हमारे देश में हरे चारे का उत्पादन दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और दानें वाली फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भूसा व पुयाल (पराली) जैसे सूखे चारे ही पशुयों के मुख्य आधारिक आहार हैं । यह चारे पशु चाव से नहीं खाते। इनका कम अंतर्ग्रहण, निम्न पाचकता, नाइट्रोजन एवं खनिजों जैसे कुछ महत्वपूर्ण तत्वों की कमी के कारण पशुयों को संतुलित मात्रा में पर्याप्त पोषक तत्व नहीं मिल पाते। इन सूखे चारों में प्रोटीन की मात्रा 3 से 4 प्रतिशत पायी जाती है, जबकि पशुयों के आहार में प्रोटीन की मात्रा कम से कम 6-7 प्रतिशत होनी चाहिए जोकि पशुयों के उत्पादन स्तर के अनुसार बढ़ती रहती है। परिणामस्वरूप, इन चारों पर पलने वाले पशु उत्पादन करना तो दूर, अपना सामान्य स्वास्थ्य भी बनाए रखने में असमर्थ हो जाते हैं।
असंतुलित संपूरक आहार
एक संतुलित आहार में दलिया, चोकर व खल का उचित सम्मिश्रण होना आवश्यक है, ताकि पशु उत्पादन हेतु पर्याप्त आवश्यक पोषक तत्व मिल सकें । संतुलित आहार में प्रोटीन की मात्रा 20-22 प्रतिशत होनी चाहिए । सामान्यत: पशुपालक प्रक्षेत्रों पर उपलब्ध जो भी घटक होता है, उसे ही अपने पशु को खिला देते हैं, जैसे मात्र दलिया या चोकर अथवा खल। संतुलित आहार मिश्रण की मात्रा भी उपलब्धता पर निर्भर करती है । पशुयों को सामूहिक रूप से खिलाने के कारण संतुलित मात्रा निर्धारण में पशु उत्पादन स्तर की उपेक्षा की जाती है। इस प्रकार पशुयों के आहार में प्रोटीन की लगभग 50 प्रतिशत कमी पायी जाती है।
खनिज संपूरक एवं नमक का अभाव
पशुयों को सामान्यत: नमक एवं खनिज मिश्रण बिलकुल नहीं दिया जाता है। इस कारण पशुयों के उत्पादन व स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । संक्षेप में, प्रचलित पशु आहार प्रणाली के कारण पशु पोषण की निम्न मुख्य समस्यायों का निदान आवश्यक है:
- कम अंतर्ग्रहण।
- कम प्रोटीन उपलब्धता।
- कम ऊर्जा उपलब्धता।
- कम विटामिन एवं खनिज तत्वों की उपलब्धता।
इसके अतिरिक्त कुछ सह-कारक जो भले ही आहार से सीधे न जुड़े हों, पशु पोषण स्तर पर प्रभाव डालते हैं, जैसे:
परजीवी संक्रमण
आंतरिक व बाह्य परजीवी संक्रमण के कारण पशुयों को भूख कम लगती है तथा इसके परिणामस्वरूप पशु शरीर से पोषक तत्वों (विशेषकर प्रोटीन) की हानि होती है, उत्पादनशील पशुयों का उत्पादन स्तर कम हो जाता है, व बछड़ी/बछड़ों की मृत्यु दर बढ़ जाती है।
नवजात बछड़ों/बछड़ियों की अधिक मृत्यु दर
असंतोषजनक पशु प्रबंधन और नवजात बच्चों को जन्म के तुरंत बाद खीस (कीड़) व आगे पर्याप्त दूध न पिलाने से इनकी मृत्यु दर बहुत अधिक है। बच्चों की मृत्यु के बाद गौ-पशु सामान्य दुग्ध उत्पादन नहीं कर पाते हैं।
पशु उत्पादन बढ़ाने हेतु आहारीय व्यवस्था
हमारे देश में पशुपालन मुख्यत: सूखे चारों पर भविष्य में भी निर्भर रहेगा। इस स्थिति से निपटने के लिए देश-विदेश के कई केन्द्रों पर विगत 50 वर्षों में कई अनुसंधान कार्य हुये हैं। इसके आधार पर संपूरकों द्वारा कमी वाले पोषक तत्वों की आपूर्ति जैसे सरलतम उपायों से लेकर रासायनिक उपचार सुझाए गए, किन्तु उचित प्रयासों के अभाव एवं उपयोग से होने वाले काल्पनिक दुष्प्रभावों के भय, आदि कारणों से यह उपाय पशुपालकों तक नहीं पहुँच सके।
सूखे चारों का यूरिया उपचार
अनुसंधान परिणामों से यह स्पष्ट हुया है, कि यूरिया, जो नत्रजनीय उर्वरक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, एक ऐसा रसायन है, जिससे कि भूसा/पुयाल (पराली) जैसे निम्न कोटि के चारों को उपचारित करके उनकी पोषकता को भी बढ़ाया जा सकता है। भूसे के उपचार के लिए किसी बड़े ड्रम में यूरिया का 4 प्रतिशत घोल (2 कि.ग्रा. यूरिया प्रति 50 लीटर पानी) तैयार कर लें तथा प्रति 100 कि.ग्रा. भूसा/पुयाल की दर से अच्छी तरह मिलाते जाएँ अर्थात यदि गठरी का औसत वज़न 20 कि.ग्रा. हो तो 10 लीटर घोल प्रति गठरी के हिसाब से मिलाना होगा। छिड़काव के लिए फ़व्वारे का उपयोग अधिक सुविधाजनक होता है। चट्ठा बनाते समय यदि एक दूसरा आदमी साथ ही साथ पैरों द्वारा उपचारित चारे को दबाता रहे तो चारे के बीच में रहने वाली हवा भी निकाल जाएगी। उपचारित भूसे को सूखे पुयाल, बांस अथवा तिरपाल से ढक देना चाहिए या फिर परंपरागत विधि के अनुसार चट्ठे के रूप में ढकने से वर्षा के पानी से होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकता है। गीला भूसा जो आमतौर पर सड़ने लगता है, इस प्रकार यूरिया से उत्पन्न अमोनिया जैसे क्षार की उपस्थिति में खराब नहीं होता, बल्कि मुलायम हो जाने के कारण इसके पोषक मान में वृद्धि हो जाती है। उपचारित भूसा गर्मी के दिनों में एक सप्ताह में खिलाने के लिए तैयार हो जाता है, जबकि सर्दी के दिनों में दो सप्ताह में खिलाने के लिए तैयार हो जाता है। यदि पशुपालक यह उपचार भूसा/पुयाल के भंडारण के समय करें तो अधिक सुविधाजनक रहता है।
उपचारित चारे की खिलाई
यूरिया उपचारित भूसे को खिलाने के कुछ समय पहले हवा में फैलाने से अवांछनीय अमोनिया गैस उड़ जाती है और पशु उपचारित चारे को अधिक रुचिपूर्वक खाते हैं। इसे हरे चारे के साथ किसी भी अनुपात में मिलाकर या फिर खली, दलिया, चोकर या पौलिश जैसे अनाजों के उपोत्पादों के साथ या फिर अकेले ही खनिज पूरकों के साथ खिलाकर पर्याप्त लाभ उठाया जा सकता है। उपचारित भूसे से पशु अनौपचारित भूसे की अपेक्षा 60-70 प्रतिशत अधिक पोषक तत्व प्राप्त कर लेता है जोकि देसी गाय व भैंस की बछड़ी/कटड़ी में अनुरक्षण आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त 100-150 ग्रा. देह भार वृद्धि अथवा दुधारू गौ पशुयों में 0.5-1.0 लीटर दूध उत्पादन के लिए पर्याप्त होते हैं। पशुयों को प्रतिदिन नमक (15-20 ग्रा.) एवं खनिज मिश्रण (20-40 ग्रा.) भी पशु देहभार के अनुसार देना अनिवार्य है। इससे पशुयों के उत्पादन व स्वास्थ्य पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। विभिन्न प्रयोगों में पाया गया है, कि लंबे समय तक दुधारू पशुयों को उपचारित चारा खिलाने से दूध की गुणवत्ता एवं पशु के स्वास्थ्य पर भी कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता है।
संतुलित संपूरक
पशुपालक यदि भूसे का उपचार करने में असमर्थ हैं, तो उन्हें सूखे चारे के साथ संतुलित संपूरक राशन देना ज़रूरी है। ग्रामीण क्षेत्रों में भूसे/पुयाल का पोषक मान सुधार करने हेतु अधिकांश पशुपालक गेहूं का दलिया या चोकर अथवा खल खिलाते हैं। दलिया या चोकर खिलाने से पशुयों के लिए अनुरक्षण व उत्पादन हेतु आवश्यक प्रोटीन की आपूर्ति नहीं हो पाती। प्रक्षेत्रीय परीक्षणों में यह देखा गया है कि संतुलित आहार में लगभग एक तिहाई हिस्सा खल का होना चाहिए तथा शेष भाग पौलिश, दलिया या चोकर का हो सकता है। इसमें प्रोटीन की मात्रा कम से कम 20 प्रतिशत होनी चाहिए। अनौपचारित भूसे पर पाले जा रहे पशुयों को प्रति तीन लीटर दुग्ध उत्पादन पर कम से कम एक कि.ग्रा. संतुलित राशन मिश्रण देना आवश्यक है। इस प्रकार संपूरित आहार खिलाने से गौ पशुयों से एक ब्यान्त (300 दिन) में लगभग 335 लीटर अतिरिक्त अधिक दूध परीक्षणों में प्राप्त हुआ तथा प्रति लीटर दूध उत्पादन पर हो रहे खर्चे में कमी हुई। भूसे के साथ संतुलित संपूरक आहार खिलाने से अतिरिक्त खर्च का लगभग 273 प्रतिशत आर्थिक लाभ प्राप्त होता है, जबकि असंतुलित संपूरक आहार खिलाने से होने वाले अतिरिक्त खर्च पर केवल 197 प्रतिशत आर्थिक लाभ होता है। प्रक्षेत्रीय परीक्षणों में यह भी देखा गया है कि गेहूं के चोकर अथवा राइस पौलिश के पोषण मान में कोई विशेष अंतर नहीं है। अत: चोकर महंगा होने कि दशा में राइस पौलिश का संपूरक आहार में उपयोग कर दूध उत्पादन पर आहारीय खर्च को कम किया जा सकता है।
बछड़े/बछड़ी का सही प्राशन व प्रबंधन
जन्म से 4 घंटे में बच्चे को माँ का दूध अवश्य पिलाना चाहिए। ब्यान्त के पहले 3-4 दिनों का दूध (खीस/कीड़) बच्चे को आवश्यक पोषक तत्व व रोगों से लड़ने की शक्ति देता है। गौ पशुयों के बच्चों को जीवन के 4-6 सप्ताह तक कम से कम एक थन का दूध अवश्य पिलाना चाहिए। अधिकांश नवजात बच्चों के पेट तथा आंतों में आंतरिक परजीवी रहते है, जिसके कारण उनकी मृत्यु दर बहुत अधिक है। परजीवी नियंत्रण के लिए यह आवश्यक है कि इन पशुयों को चिकित्सीय सलाह अनुसार उचित परजीवी मारने की दवा समय-समय पर पिलाते रहें।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है, कि हरे चारे की कमी में सूखे चारे की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आवश्यक है, कि पशुपालक सूखे चारे को यूरिया द्वारा उपचारित करके खिलाएँ अथवा सूखे चारे के साथ पशु के उत्पादन के अनुसार संतुलित संपूरक आहार दें और पशुयों को आवश्यकतानुसार नमक एवं खनिज मिश्रण भी अवश्य दें।
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