सोयाबीन दलहन वर्ग की एक फसल है जिसका वर्गीकरण पाश्चात्य देशों में तिलहनों के अन्तर्गत किया जाता है। यह अमेरिका तथा अन्य कई देशों में वनस्पति तेल उत्पादन का एक प्रमुख स्त्रोत है। भारत में पहले इसे एक चारे की फसल के रूप में उगाया जाता था। इस फसल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे खेत में लगी होने पर पशु इसे नहीं खाते हैं। इसका प्रयोग हमारे देश में, प्रोटीन व तेल की अधिक मात्रा होने के कारण, विभिन्न प्रकार के घरेलू और औद्योगिक कार्य में किया जाता है। सोयाबीन एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो गाय के दूध के समान है।
वितरण एवं क्षेत्रफल
पूरे विश्व में सोयाबीन का उत्पादन 3 करोड़ 50 लाख टन है, जिसका 60 प्रतिशत उत्पादन केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही पैदा होता हे। उत्पादन में दूसरा स्थान चीन का है। हमारे देश में इसकी खेती मुख्यतः उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब तथा हिमांचल प्रदेश में की जाती है। पिछले वर्षों में सोयाबीन का क्षेत्रफल मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार व गुजरात में बढ़ा है। बदलते मौसम में या कम वर्षा होने के कारण किसान, धान की जगह सोयाबीन की खेती करने लगे हैं।
जलवायु
सोयाबीन की फसल साधारण शीत से लेकर साधारण उष्ण वाले क्षेत्रों में आसानी से उगायी जा सकती है। 100 डिग्री फाॅरेनहाईट से अधिक तापमान होने पर वृद्धि, विकास एवं बीज के गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। तापमान कम होने पर तेल की मात्रा में कमी हो जाती है।
प्रकाश
सोयाबीन की अधिकांश किस्मों में दिन छोटे व रातें लम्बी होने पर फूल आता है। फूल आने से फलियाँ लगने तक की अवधि, पकने की अवधि, गाँठों की संख्या तथा पौधों की ऊँचाई पर दिन की लम्बाई का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। सोयाबीन में फूल तभी आता है जब दिन की लम्बाई एक क्रान्तिक अवधि से कम हो।
वर्षा
अच्छी फसल के लिए 60-75 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है। फलियों के पकते समय वर्षा का होना हानिकारक होता है।
भूमि
सोयाबीन की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है परन्तु अच्छी फसल के लिए दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त है।
उन्नत प्रजातियाँ
जे.एस. 355, अनामिका, के.एस.एल.-20, जे.एस. 97-52, पी.एस.-1042 एवं पी. 1241।
भूमि की तैयारी
सोयाबीन के बीज के अच्छे अंकुरण के लिए आवश्यक है कि मृदा को भुरभुरी बना लिया जाये। मृदा नमी की कमी होने पर पलेवा करके खेत की तैयारी करनी चाहिए। पाटा लगाकर भूमि को ढ़ेले रहित बनाना चाहिए।
बीज उपचार
बीज को 3 ग्राम थीरम 75 डब्लू. पी.$कार्बेन्डाजीम 50 डब्लू.पी. (2ः1) अनुपात में या ट्राइकोडरमा विरिडी की 4-5 ग्राम/किला बीज की दर से उपचारित करें। बीजों का उपचार राइजोबियम जैपोनिकम कल्चर की 5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से तथा फाॅस्फेट घोलक वैक्टीरिया की 5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना लाभदायक है। इसे फफूँद व कीटनाशी दवा से उपचार के कम से कम 12 घंटे बाद उपयोग किया जा सकता है।
बोने का समय
खरीफ- 15 जून से 15 जुलाई तक।
खाद की मात्रा
5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद बुआई के 20-30 दिनों पहले खेत में डालें। 25 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोेग्राम स्फुर, 40 किलोग्राम पोटाश, 30 किलोग्राम सल्फर/हेक्टेयर बुआई के पहले खेत में डालें। दलहनी एवं तिलहनी फसलों में सल्फर का प्रयोग अवश्य करें।
खाद देने का समय और विधि
खाद सदैव बुआई के समय मृदा संस्थापन विधि द्वारा ही दिए जाते हैं। नेत्रजन की आधी मात्रा एवं स्फूर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोने के समय एवं आधी नाइट्रोजन बोने के 20-30 दिन बाद देते हैं।
सिंचाई व जल निकास
सोयाबीन में जल की पूर्ति वर्षा से प्राप्त हो जाती है। यदि वर्षा नहीं हो तो एक सिंचाई दिया जा सकता है। खेत में अधिक पानी का जमाव होने पर उसे बाहर निकाल दें।
निकाई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण
फसल की प्रारम्भिक अवस्था में 30-40 दिन तक सोयाबीन के पौधे खरपतवार का मुकाबला नहीं कर पाते। अतः इस समय में निराई-गुड़ाई या रासायनिक विधि से खरपतवार का नियन्त्रण फ्यूजीफलेक्स (फौमेसाफेन 11.1 प्रतिशत भार $ फ्लुअजिफाॅप-पि-ब्युटाईल 11.1 प्रतिशत भार एस.एल.) का बुआई के 15-20 दिन बाद छिड़काव करें। इससे चैड़ी पत्ती और संकरी पत्ती दोनों नष्ट हो जाती है, बाद में फसल स्वयं खरपतवार को नियंत्रित रख सकती है।
कटाई-मँड़ाई
सोयाबीन की विभिन्न जातियाँ 90-110 दिन तक पककर तैयार होती है। पकने पर पत्तियाँ पीली होकर गिर जाती है। फलियाँ सूखने लगती है। जब फलियों में बीज के अन्दर 15-18 प्रतिशत नमी रह जाए तो हंसिए से या कम्बाइन हावेस्टर से फसल की कटाई कर लेते हैं।
मँड़ाई करने के लिए सोयाबीन के बण्डल खेत से उठाकर अच्छी प्रकार सूखा लेने चाहिए। मँड़ाई डण्डों या ट्रैक्टर या बैलों द्वारा कर सकते हैं। सोयाबीन का बीज मुलायम होता हे। अतः मँड़ाई कभी ज्यादा दवाब के साथ नहीं करना चाहिए अन्यथा बीजों के टूटने का डर रहता है।
भण्डारण
बीज को भण्डार में रखते समय बीज में 10 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं रखनी चाहिए। बीज के लिए रखे दानों को थीरम व कैप्टान आदि से उपचारित करके रखना चाहिए। अधिक समय तक भण्डार में अनाजों को नहीं रखना चाहिए अन्यथा इनमें खटास पैदा हो सकती है। बीज उपयोग के लिए भण्डारण करते समय गर्मियों के तेज तापक्रम से बचाना चाहिए अन्यथा अंकुरण क्षमता प्रभावित हो सकती है।
रोग व रोकथाम
सोयाबीन में मूल गलन, पत्ती धब्बा, रोमिल फफूँद, कली झुलसा का रोग हो सकता है। इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 / 2.5 ग्राम/लीटर पानी का 1000 लीटर घोल प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए। यदि पत्तियाँ पीली होकर सूखने लग जाती हैं तो इसके रोकथाम के लिए बाने से 20,30,40 व 50 दिन बाद 0.1 प्रतिशत मैटासिस्टाक्स का छिड़काव करना लाभदायक पाया गया है।
हानिकारक कीट एवं उनकी रोकथाम
सोयाबीन में दीमक, कजरा, जड़ भृंग आदि कीड़े का प्रकोप होता है। इसके रोकथाम के लिए थिमेट-10 जी. दानेदार दवा का 10 कि./हे. की दर से बुआई के समय खेत में प्रयोग करें या क्लोरोपाइरीफाॅस 20 प्रतिशत ई.सी. दवा की 2.5-3.0 लीटर मात्रा को 25 किलोग्राम बालू में मिलाकर खेत में अंतिम जुताई के समय भुरकाव करें।
लाही: डाएमेथोएट 30 प्रतिशत 1.0 लीटर दवा 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
उपज
उपरोक्त उन्नत तकनीक अपनाकर 27-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है।
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