मानसून के मौसम में गाय-भैंस में होने वाले प्रमुख रोग व निवारण

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भारत में लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण परिवेश में निवास करती है। ग्रामीण परिवेश में पशुपालको की आजिविका कृषि व पशुपालन पर आधारित होती है। ग्रामीण क्षेत्र में गाय-भैंस का पालन ज्यादा मात्रा में किया जाता है। कृषि के बाद गाय-भैंस पालन आजिविका का दूसरा सबसे बड़ा साधन है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के बाद पशुपालन का महत्वपूर्ण योगदान है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में पशुपालन का 4.11 प्रतिशत योगदान है तथा कृषि सकल घरेलू उत्पाद का 25.6 प्रतिशत है। मानसून के मौसम में कुछ संक्रामक रोगो के फैलने की वजह से किसान को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है जिससे कभी-कभी आजिविका पर संकट गहरा जाता है।

मानसून मौसम में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित है:

  1. खुरपका-मुँहपका रोग (FMD)
  2. गलघोंटू (HS)
  3. लंगड़ा बुखार (BQ)
और देखें :  पशुओं के विभिन्न रोगों में जांच हेतु एकत्र किए जाने वाले स्पेसिमेन पदार्थ

खुरपका-मुँहपका रोग

खुरपका-मुँहपका रोग विभक्त खुर वाले पशुओं का अत्यन्त संक्रामक व घातक विषाणुजनित रोग है। खुरपका-मुँहपका रोग किसी भी उम्र के गाय तथा भैंस में हो सकता है।

रोग का कारण

यह एक विषाणुजनित रोग है जो एफथोबायरस परिवार के विषाणु से फैलता है।

प्रमुख लक्षण

  1. प्रभावित होने वाले पैर को पटकना।
  2. लंगड़ाना।
  3. मुँह से तार युक्त लार का गिरना।
  4. जीभ, मसूड़े, खुर, अयन व होठ पर छाले पड़ जाते है जो बाद में फूटकर पशु को असहनीय दर्द देते है।
  5. दूध उत्पाद का घटना।
  6. खुर में घाव होने पर कीड़े जो जाना।
  7. गर्भवती पशुओं में गर्भपाल की संभावना बनी रहती है।
  8. प्रभावित पशु स्वस्थ होने पर महीनों हांफते रहते है।

बचाव व सावधानी

  1. खुरपका-मुँहपका एक छूत की बीमारी है।
  2. बीमारी पशु को स्वस्थ पशु से अलग साफ व हवादार स्थान पर रखें।
  3. बीमार पशु का चारा व पानी का प्रबंध स्वस्थ पशु से अलग होना चाहिए।
  4. बीमार व स्वस्थ पशु के स्थान पर रोजाना चूना पाऊड़र ड़ालना चाहिए।
  5. पशुओं की देखरेख करने वाले व्यक्ति को रोजाना हाथ-पैर अच्छी तरह साफ करके दूसरे पशुओं के संपर्क में आना चाहिए।
  6. प्रभावित पशुओं के मूंह से गिरने वाले लार एवं पैर के घाव के संम्पर्क में आने वाली वस्तुओं जैसे- पुआल, भूसा, घास आदि को जमीन में गड्डा खोदकर चूना के साथ गाड़ दिया जाना चाहिए अथवा जला देना चाहिए।
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गलघोंटू

यह बिमारी मुख्य रूप से गाय तथा भैंस में पायी जाती है। इस रोग को साधारण भाषा में गलघोंटू के अतिरिक्त- ’घूरख’, ’घोटुआ’, ’अशढिया’, ’डकहा’ आदि नामों से भी जाना जाता है। यह मानसून के मौसम में व्यापक रूप से फैलने वाली बीमारी है। गलघोंटू में पशु अकाल मृत्यु का षिकार को जाता है। इस बीमारी की मृत्यु दर 80 प्रतिशत है। यह रोग छह माह से दो वर्ष की आयु के पशुओं में सबसे ज्यादा होती है।

रोग का कारण गलघोटू रोग पास्चूरिल्ला मल्टोसिड़ा नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है।

प्रमुख लक्षण

  1. तेज बुखार होना एंव अति तीव्र प्रकार के संक्रमण में पशु की एक घंटे से लेकर 24 घंटे के अन्दर मृत्यु हो जाती है।
  2. दुग्ध उत्पाद में अचानक कमी आ जाती है।
  3. प्रचुर मात्रा में लार बहती है।
  4. साँस लेते समय पशु एक अजीब तरह की ध्वनि (घुर-घुर) उत्पन्न करता है।
  5. गाय की अपेक्षा भैंस मे संक्रमण की मात्रा अधिक होती है।
  6. गले, गर्दन एंव छाती पर दर्द के साथ सूजन आ जाती है।
  7. सम्भावित भैंसों मे गाय की अपेक्षा मृत्युदर अधिक होती है।

बचाव एवं सावधानी

  1. बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग करें एवं चारा, दाना व पानी को बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं के संक्रमण से बचाए।
  2. बीमार पशु को जहाँ पशु एकत्रित होते है वहाँ लेकर न जाए।
  3. मानसून के मौसम में पशुओं को लम्बी दूरी की यात्रा कराने से बचायंे।
  4. मानसून के मौसम में नए पशु की खरीदारी से बचे। यदि पशु खरीद लिया है तो उसे पुराने पशुओं से अलग रखें।
  5. मरे हुए पशुओं को जमीन में कम से कम 5-6 फुट गहरे गड्डे में चूना व नमक डालकर गाड़ देना चाहिए।
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लंगड़ा बुखार

लंगडा बुखार पशुओं में साधारणतः जहरबाद, फडसूजन, काला बाय, लंगड़िया, एकटंगाा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह रोग सभी स्थानों पर पाया जाता है, लेकिन नमी युक्त स्थान पर अधिक मात्रा में पाया जाता हैं। मुख्य रूप से इस रोग में गाय, भैंस एवं भेंड़ प्रभावित होती हैं। यह रोग मुख्यतः 06 महीने से 02 साल तक की आयु वाले पशुओं में अधिक पाया जाता हैं

रोग का कारण

इस रोग का विषिष्ट कारक एक जीवाणु क्लोस्ट्रीडियम चैवाई है।

प्रमुख लक्षण

  1. तेज बुखार, खाना-पीना एवं जुगाली बंद कर देना।
  2. रोगी पशु के पूट्ठे, जाँघ व गर्दन पर सूजन आ जाना।
  3. रोगी पशु की आँखे लाल हो जाना।
  4. सूजन वाले हिस्से को दबाने पर चट-चट की आवाज आती है। भेड़ों में कई बार यह आवाज नही आती है।
  5. रोगी पशु अचानक लंगड़ाने लगता है व उसकी चाल में अकड़न आ जाती है।
  6. यदि सूजन वाले भाग में चीरा लागाया जाये तो उसमें झागदार काला दुर्गन्धयुक्त स्राव निकलता है।
  7. अंत मे पशु को सही उपचार न मिलने से मौत हो जाती है।
  8. इस बीमारी की मृत्यु दर 80-100 प्रतिशत है।

 बचाव सावधानी

  1. पशु के जख्म को खुला नही रखना चाहिए अन्यथा जीवाणु प्रवेश कर सकते हैं।
  2. रोगी पशु के सूजन वाले भाग पर चीरा लगा देना चाहिए जिससे जीवाणु हवा में अप्रभावित हो जाता हैं।
  3. रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए।
  4. जीवाणु के स्पोर्स को खत्म करने के लिए सम्भावित स्थानों पर पुआल के साथ मिट्टी की उपरी परत को जला देना चाहिए।
  5. मरे हुए पशु को जमीन में 6-7 फुट गहरे गड्ड़े में चूना डालकर गाढ देना चाहिए।

मानसून के मौसम में गाय-भैंस में होने वाले प्रमुख रोग व निवारण

टीकाकरण

  1. मुँहपका-खुरपका रोग: छह माह से उपर के स्वस्थ पशुओं को खुरपका-मुँहपका के विरूद्व टीकाकरण करवाना चाहिए।
    टीकाकरण का समयः साल में दो बार, खुराक- 02 मिली. माँस में
  2. गलघोंटू: छह माह और उससे अधिक उम्र के सभी पशुओं का टीकाकरण करवाना चाहिए।
    टीकाकरण का समयः साल में दो बार, खुराक- 02 मिली. खाल के नीचे
  3. लंगड़ा बुखार: छह माह और उससे अधिक उम्र के सभी पशुओं का टीकाकरण करवाना चाहिए।
    टीकाकरण का समय: वर्ष में एक बार वर्षा ऋतु से पहले, खुराक- 02 मिली. खाल के नीचे
  4. मिश्रित टीकाकरण: मुंहपका-खुरपका + गलघोंटू + लंगड़ा बुखार (FMD+HS+BQ)
    छह माह और उससे अधिक उम्र के सभी पशुओं का टीकाकरण
    टीकाकरण का समयः- बर्ष में दो बार, खुराक- 03 मिली. माँस में
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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