सामाजिक जीवन पर कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव, रोकथाम एवं नियंत्रण

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विश्व में लगभग 45% फसल कीट और रोगों द्वारा नष्ट हो जाती है। अतः विश्व में भोजन की मांग को पूरा करने के लिए कीटनाशकों का उपयोग कृषि में कीटों और रोगों के खिलाफ अतिआवश्यक है। इसी प्रकार फसल कटाई के बाद भी अनाजों को कीटों से बचाने के लिए उनके भंडारण और परिवहन के दौरान रक्षा के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाया जाता है। लेकिन कीटनाशकों के अंधाधुंध और विवेकहीन उपयोग से इन कीटनाशकों के अवशेष खाद्य श्रृंखला तथा पर्यावरण में समाहित हो रहे हैं, जो कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के व्यापक संदूषण के लिए जिम्मेदार है। कीटनाशक तथा इसके अवशेष वसा में घुलनशील होते है, एवं इसकी जैविक विघटनशीलता भी कम होती हैं। अतः इनके अवशेष पारिस्थितिकी तंत्र और भोजन चक्र द्वारा पशु शरीर में वसा ऊतकों में संचित हो जाते हैं तथा यह संदूषक तत्व पशु खाद्य उत्पादों जैसे दूध और मांस द्वारा मनुष्यों में भी प्रवेश करते हैं (चंद्राकर एवं अन्य 2018)।

भारत में सर्वप्रथम 1948 में मलेरिया नियंत्रण के लिए डीडीटी का आयात किया गया तथा इसके बाद कृषि में टिड्डी नियंत्रण के लिये बीएचसी का उपयोग किया गया, तदोपरान्त दोनों कीटनाशकों (डीडीटी और बीएचसी) का उपयोग कृषि क्षेत्र के लिए बढ़ता चला गया। प्रतिवर्ष कीटनाशकों की दुनिया भर में खपत लगभग 2 लाख टन है जिसमें से कुल खपत का 24% हिस्सा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा 45% हिस्सा यूरोप द्वारा उपयोग में लाया जाता है, और शेष 25% दुनिया के अन्य देशों द्वारा उपयोग में लाया जाता है (चंद्राकर एवं अन्य 2018)।

भारत में कुल कीटनाशक की खपत का 67% हिस्सा कृषि और बागवानी में उपयोग में लाया जाता है। मात्रा के संदर्भ में, 40% ऑर्गेनोनोक्लोरिन कीटनाशक, 30% ऑर्गेनोफोस्फेट, 15% कार्बामेट, 10% सिंथेटिक पायरिथ्रॉयड और 5% अन्य रसायन उपयोग में लाये जाते हैं। जबकि मूल्य के संदर्भ में 50% ऑर्गेनोनोफोसफेट, 19% सिंथेटिक पायरिथ्रॉयड, 16% ऑर्गैनोक्लोरीन कीटनाशकों, 4% कार्बामेट, 1% जैव कीटनाशक उपयोग में लाये जाते हैं। आज भारत में कीटनाशकों का सर्वाधिक 29% प्रयोग धान की फसल में, तत्पश्चात 27% कपास, 9% सब्जियों और 9% दालों में किया जा रहा है।

कीटनाशकों को आज विश्व पर्यावरण प्रदूषण में शामिल कारकों में से एक माना जाता है। इन रसायनों का उद्देश्य कीट और रोग कारकों को नष्ट करने के लिए तैयार किया गया था। हालांकि कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर उपयोग से कृषि उत्पादों में वृद्धि और संक्रामक रोगों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ लेकिन, उनके व्यापक उपयोग में वृद्धि से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण प्रदूषण के पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

कीटनाशकों से पर्यावरण प्रदूषण

कीटनाशकों से पर्यावरण के लिए खतरा कीटनाशकों के उपयोग की मात्रा तथा विषाक्तता पर निर्भर करता है। ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों में अत्यधिक स्थिर यौगिक होते हैं और उनके विघटन में कुछ महीने से लेकर कई वर्ष लग जाते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि मिट्टी में डीडीटी का क्षरण, 4 से 30 साल तक हो सकता है, जबकि अन्य क्लोरीनयुक्त ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक उपयोग के बाद कई वर्षों के लिए पर्यावरण में स्थिर रह सकते हैं।

फसल को बीमारी से बचाने के लिए जितना कीटनाशक इस्तेमाल होता है, उसका बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक उद्देश्य के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल स्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। हालत यह है कि इन रसायनों के भूमि में रिसने के कारण काफी स्थानों का भू-जल बेहद जहरीला हो गया है। यही नहीं, ये रसायन बाद में बहकर नदियों, तालाबों में भी पहुंच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जलीय जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है। इनमें तरह-तरह के रोग पैदा हो रहे हैं। कीटनाशकों के उपयोग वाली फसलों के खाने से न सिर्फ इंसान के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पर्यावरण भी प्रभावित हुए हैं। गाँव के आस-पास के तालाबों में इन कीटनाशक रूपी रसायनों के मिलने से न केवल उस तालाब का पानी संदूषित होता है बल्कि उसके किनारे उगने वाला चारा भी इससे सुदूषित हो जाता है जिसे खाने से पशुओं में अचानक मृत्यु देखने को मिलती है और पशुपालकों को पशु हानि उठानी पड़ती है।

पशु के शरीर में कीटनाशकों के प्रवेश का मुख्य स्रोत दूषित दाना एवं चारा हैं। एक बार पशु शरीर कीटनाशकों के अवशेष के द्वारा दूषित हो जाये, तो यह न केवल पशुओं को सीधे प्रभावित करता है, बल्कि यह दूध और माँस तथा अन्य पशु उत्पादों के माध्यम से मानव स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालता है।

और देखें :  पशु प्रजनन को प्रभावित करने वाले संक्रामक रोग

दूध में कीटनाशक अवशेषों की मौजूदगी, मानव स्वास्थ्य के लिये चिंता का विषय है, क्योंकि दूध और डेयरी उत्पादों को व्यापक रूप से शिशुओं, बच्चों और वयस्कों द्वारा उपयोग में लाया जाता है। बच्चों में इसके ज्यादा घातक दुष्परिणाम संभावित है। दूध भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य भागों में भी कीटनाशकों के अवशेषों से संदूषित पाया गया है। कीटनाशकों का पशुपालन में प्रयोग, खेत खलिहान में एवं यहां तक कि दूध प्रसंस्करण क्षेत्रों में प्रयोग के कारण दूध दूषित हो रहा है। धीमे विघटन तथा जन्तु कोशिका के वसा में संचित होने के कारण समय के साथ इनका जैवावर्धन होता है, जो कि अधिक हानिकारक है तथा विभिन्न रोगों का कारण हो सकता है।

मानव स्वास्थ्य पर कीटनाशकों के हानिकारक प्रभाव

कीटनाशक मानव शरीर में मुख द्वारा, सांस लेने एवं त्वचा के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। कीटनाशकों का लंबे समय तक संपर्क मानव जीवन को नुकसान पहुँचाता है और शरीर में विभिन्न अंग प्रणालियों, स्नायु, अंतःस्रावी, प्रतिरक्षा, प्रजनन, गुर्दे, हृदय और श्वसन प्रणाली में विकार उत्पन्न करता है। मानव जीर्ण रोगों की घटनाओं, जैसे कैंसर, पार्किंसंस (Mishra 2008), अल्जाइमर, मधुमेह, हृदय और क्रोनिक किडनी रोग सहित अनेकों रोगों का कारण कीटनाशकों को माना जा रहा है।

कृषि में रसायनों के अत्याधिक उपयोग के कारण खाद्य-आहार श्रृंखला रासायनयुक्त हो गई है जिस कारण जन-स्वास्थ्य समस्याएं लगातार बढ़ रहीं हैं (Pandey & Singh 2004)। कृषि में उपयोग किये जाने वाले रासायनों से होने वाले रोगों में बांझपन (Whorton et al. 1977, Bretveld et al. 2006, Roy et al. 2017), गर्भपात, जीवित जन्म की क्षीण संभावना (Chiu et al. 2018), कैंसर (Kaur & Sinha 2013), आनुवंशिक व जन्म दोष (Garry et al. 2002, Mathur et al., 2005), बदहजमी, उच्च रक्तचाप, नेत्र रोग, थायराइड रोग (Lerro et al. 2017, भास्कर 2017) प्रमुख एवं अन्य रोग शामिल हैं।

केरल के कासरगोड जिला, जहां एंडोसल्फान का हवाई छिड़काव कम से कम 15 साल के लिए हुआ, एंडोसल्फान के उच्च स्तरीय अवशेष चिंताजनक रूप से ग्रामीणों के रक्त एवं महिलाओं के दूध में पाये गये और जिनमें कैंसर, प्रजनन व केंद्रीय तंत्रिका तन्त्र के विकार सामान्य रूप से देखने को मिलते हैं। केवल 123 घरों में से एक सर्वेक्षण में 49 कैंसर, 43 मनोरोग, 23 मिर्गी, 9 जन्मजात असामान्यताओं में पाये गये (Joshi 2001)।

औलख और सहयोगियों (2005) ने पूरे पंजाब से एकत्र किए गए अंडे के नमूनों में अनुमेय सीमा से अधिक कीटनाशक अवशेषों की उपस्थिति का पता लगाया। पंजाब के 30 जिलों से मिट्टी और पानी के विश्लेषण से कीटनाशक उपयोग और कैंसर के बीच सीधा संबंध पाया गया (Singh 2008)। पंजाबी विश्वविद्यालय के अध्ययन में पाया गया कि पंजाब के किसानों के रक्त के नमूनों में से 36% में डीएनए की महत्वपूर्ण क्षति देखी गई (Misra 2008)। कैंसर रोगियों से लिये गए रक्त के नमूनों से हेप्टाक्लोर, एल्ड्रिन और एंडोसल्फान रसायन मिले जिसमें कैंसर की घटनाओं की संख्या 85,315 में से 107 बताई गई (Thakur et al. 2008)।

एक शोध के अनुसार क्लोरपायरीफोस प्रोस्टेट कैंसर और अग्नाशय के कैंसर के लिए, डीडीटी मेलेनोमा, कार्बारिल और अल्डीकार्ब कोलोरेक्टल कैंसर के लिए और कैंसर के बढ़ते मामलों के लिए जिम्मेदार पाये गये हैं। कीटनाशकों के कम परन्तु लम्बे समय तक संपर्क को कैंसर के महत्वपूर्ण जोखिम कारकों में से एक माना जाता है। इनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी के वर्ष 2010 में प्रकाशित कैंसर उत्पन्न करने वाले रसायनों कि सूची में 70 से अधिक कीटनाशकों को एक या अधिक संभावित कैसर करक के रूप में वर्गीकृत किया है।

वन्य जीवों में जन्मजात विकारों को डीडीटी और अन्य ऑर्गैनोक्लोरीन से जोड़ कर देखा जा रहा है। विभिन्न अनुसंधान, पुरुष तथा महिला प्रजनन तन्त्रों पर कीटनाशकों के प्रतिकूल प्रभाव की विस्तृत जानकारी प्रदान है। गर्भपात की ऊँची दर, असामान्य लिंग, और प्रजनन क्षमता में कमी इत्यादि समस्याओं के लिए कीटनाशकों को सबसे प्रमुख कारण माना जा रहा है। बहुत से कीटनाशकों जैसे एल्ड्रिन, क्लोरडेन, डीडीटी, और एंडोसल्फान को अंतःस्रावी तंत्र में विघटन कारक रसायन के रूप में जाना जाता है।

पशुओं में कीटनाशकों का प्रतिकूल प्रभाव

कीटनाशकों के उपयोग से न केवल मानव स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है बल्कि पशुओं में भी कीटनाशकों की विषाक्तता के कारण उनकी दिन-प्रतिदिन की गतिविधियां और प्रजनन क्षमता प्रभावित होती हैं। कीटनाशकों का उपयोग कृषि एवं पशुओं, दोनों में किया जाता है ताकि फसल में कीटों और बाह्य परजीवियों को नियंत्रित किया जा सके और पशुओं में बाह्य परजीवियों को नियंत्रित किया जा सके। कृषि में अधिकांश कीटनाशक ऑर्गनोफॉस्फोरस यौगिक हैं जो सबसे ज्यादा असरदार जहर हैं। ओर्गेनोफॉस्फोरस विषाक्तताहोने पर गाय एवं भैंस में निम्नलिखित सामान्य लक्षण पाए जाते हैं :

और देखें :  पशुओं में संक्रामक रोग: कारण, लक्षण एवं बचाव

अत्याधिक उदासी; मुँह से अत्यधिक लार बहना; बार-बार पेशाब करना; दस्त, पेट का दर्द एवं अपच; अनैच्छिक मांसपेशी संकुचन एवं शिथिलता इत्यादि लक्षण हो सकते हैं। इनके अतिरिक्त घबराहट, गतिभंग, आशंका एवं दौरे; आँखों की पुतलियां संकुचित होना आदि लक्षण भी दिखायी दे सकते हैं।

कीटनाशकों के हानिकारक प्रभाव को निम्नानुसार कम किया जा सकता है

  • कृषि कार्यो में कीटनाशकों के प्रयोग को कम कर, प्राकृतिक या जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अवश्यकता अनुसार कम हानिकारक कीटनाशकों का चयन कर तथा निर्माता के प्रयोग संबंधित निर्देशों का सही तरीके से पालन कर उपयोग किया जाना चाहिए।
  • फसलों में बीमारियों एवं रोगों की रोकथाम के लिये गहन कीट प्रबंधन – आई.पी.एम. का अनुसरण करना चाहिए। यथासंभव हर्बल एवं घरेलु कीटनाशकों का उपयोग कीट नियंत्रण में करना चाहिए।
  • जन समुदाय को कीटनाशकों के दुष्प्रभाव के प्रति शिक्षित कर तथा उन्हें खेती के नए वैज्ञानिक तरीकों के प्रयोग से अवगत करवाया जाना चाहिये।
  • ऐसे क्षेत्र जहाँ कीटनाशकों का दुरुपयोग किया जा रहा है या किया गया हो वहाँ मछली ना पकडें।
  • जैसा कि कीटनाशक पशुओं के वसीय ऊत्तकों में भण्डारित होते हैं। अतः माँस और पोल्ट्री उत्पादों से वसा को अलग कर उपयोग किया जाए।

रोकथाम एवं नियंत्रण

  • कीटनाशक के लेबल पर निर्देशित अनुमोदित मात्रा और समय पर ही उपयोग किया जाना चाहिए।
  • कृषि रसायनों का अनावश्यक एवं अतिप्रयोग से बचना चाहिए। इनके स्थान पर जैविक, घर तैयार किये जाने वाले प्राकृतिक/पादप जनित कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए।
  • पशुओं की चमड़ी पर मौजूद बाह्य परजीवीयों को मारने के लिए उनके शरीर पर परजीवीनाशक लगाने से पहले पशु को पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाना चाहिए।
  • खेत में कीटनाशक का छिड़काव किए गए चारे को पशुओं को खिलाने से पहले पानी से अच्छी तरह धोना चाहिए।
  • बीमार, कमजोर या बीमारी के उपरान्त स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर रहे पशुओं या गंभीर रूप से तनावग्रस्त पशुओं को परजीवीनाशक नहीं लगाना चाहिए।
  • आमतौर पर, 3 महीने से कम उम्र के पशुओं में बाह्य परजीवीनाशक उपयोग नहीं करना चाहिए।
  • पशुओं को कीटनाशक पात्रों (नए या प्रयुक्त) या कीटनाशक-दूषित फ़ीड से दूर रखें।
  • अन्य कीटनाशकों या पशु स्वास्थ्य उत्पादों के साथ संयोजन में उपयोग के संबंध में प्रतिबंध की जाँच अवश्य करें।
  • समय पर उपचार के लिए लक्षणों को देखने पर पशुचिकित्सक से संपर्क करें, ताकि पीढ़ित पशुओं को बचाया जा सके।

सारांश

इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक खेती से भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भता प्राप्त की है बल्कि अतिरिक्त अन्न उत्पादन कर राष्ट्र के भण्डारों को भरकर खाद्यान्न सुरक्षा को भी सुरक्षित किया है। लेकिन, रसायनों के अंधाधुंध अतिप्रयोग से न केवल पर्यावरण को हानि हो रही है बल्कि खाद्यान सुरक्षा भी खतरे पड़ रही है। इसी प्रकार खेती में उपयोग किये जाने वाले कीटनाशकों का उपयोग पशुओं में बाह्य परजीवी नाशक के रूप में किया जाता है जिन के उपयोग से कई बार पशु की मृत्यु भी हो जाती है। चारे की फसलों में भी इनका उपयोग किया जाता है जिससे पशुओं का चारा संदूषित हो जाता है और इनके अवशेष चारे के माध्यम से पशु उत्पादों खासतौर से दूध और मांस में आने से इनका सेवन करने वाले मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर मानवीय शरीर तंत्र को हानि पहुंचाते हैं। अतः आधुनिक खेती में उपयोग किये वाले कीटनाशकों एवं रसायनों का विवेकपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए। इसी के साथ बदलते परिवेश के साथ जैविक या प्राकृतिक साधनों का उपयोग भी करना चाहिए।

संदर्भ

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इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।
और देखें :  कोविड-19 महामारी के समय में डेरी पशुओं के सामान्य प्रबंधन हेतु महत्वपूर्ण सलाह

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