गाभिन पशु का ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में पोषण एवं प्रबन्धन

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भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि एवं पशु पालन भारतीय अर्थव्यवस्था में विशेष महत्व रखते हैं, सकल धरेलु कृषि उत्पाद में पशुपालन का 30 प्रतिशत योगदान सराहनीय है, जिसमें दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसका योगदान सर्वाधिक है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार भारत आज दुग्ध उत्पादन में अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन कर प्रथम स्थान पर है। देशव्यापक महामारी (कोरोना) ने पशुपालन को निसंदेह प्रभावित किया है।

पशुपालन में मुख्य दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से गाय एवं भैंस पालन सर्वोत्तम है लेकिन पशुओं की उत्पादकता अपेक्षाकृत कम है। वैज्ञानिक पशु प्रजनन एवं नस्ल सुधार समुचित भरण पोषण, उचित प्रबन्धन एवं विभिन्न ऋतुओं में पशुओं की उचित देख रेख एवं उनमें होने वाली बीमारियों की रोकथाम कर पशुओं की उत्पादकता काफी हद तक बढ़ायी जा सकती है। अगर पशु की स्थिति एवं ऋतु के अनुसार उचित प्रबन्धन किया जाये तो निसन्देह पशुओं की उत्पादकता काफी बढ़ायी जा सकती है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत आलेख में ग्रीष्म एवं वर्षा  ऋतु में गाभिन पशु की देख-रेख कैसे की जाय, प्रकाश डाला गया है। सामान्यतः गाय/भैंस के गर्भ धारण करने से ब्याने तक के समय को गर्भकाल कहा जाता है। गर्भकाल में पशु की उचित देख-रेख एवं सन्तुलित आहार अपना विशेष महत्व रखते हैं। गाभिन पशु की उचित प्रबन्धन व्यवस्था हेतु पशु पालक को पशु के प्रसवोपूर्व एवं प्रसवोपरान्त दोनों ही अवधि में उचित देख रेख एवं सन्तुलित आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इसी क्रम में दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत आलेख में ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में गाभिन पशु की देख-रेख कैसे की जाय, प्रकाश डाला गया है। सामान्यतः मादा गाय/भैंस के गर्भ धारण करने से ब्याने तक के समय को गर्भ काल कहा जाता है। गर्भ काल में पशु की उचित देख-रेख एवं सन्तुलित आहार अपना विशेष महत्व रखते है। गाभिन पशु की उचित प्रबन्धन व्यवस्था हेतु पशु पालक को पशु को पशु के प्रसवोपूर्व एवं प्रसवोपरान्त दोनों ही अवधि में उचित देख-रेख एवं सन्तुलित आहार पर विशेष ध्यान चाहिए।

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ग्याभिन पशुओं की देख-रेख में मुख्य रुप से 3 बिन्दु प्रमुख है।

  1. प्रसव से पूर्व के लक्ष्ण
  2. आवास व्यवस्था
  3. आहार एवं पोषण व्यवस्था

1. प्रसव से पूर्व के लक्ष्ण

  • प्रसव के 2-3 दिन पहले पशु कुछ सुस्त हो जाता है और दूसरे पशुओं से अलग रहने लगता है।
  • पशु चारा खाना कम कर देता है।
  • प्रसव से पूर्व पशु के पेट की मांसपेशियों में संकुचन होने के कारण पशु को पीड़ा होने लगती है।
  • योनिद्वार में सूजन आ जाती है और योनि द्वार से लसलसा पदार्थ आने लगता है।
  • पशु बार-बार मूत्र त्यागने लगता है।
  • पशु का अयन सख्त हो जाता है और कूल्हे की हडडी वाले हिस्से के पास 2-3 इंच का गड्ढा पड़ जाता है।

2. पशु की आवास व्यवस्था

हमारे देश में पशुओं के आवास व्यवस्था पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। डेरी पशुओं की वैज्ञानिक विधि से आवास व्यवस्था करने पर कम से कम जगह में अधिक से अधिक पशु रखे जा सकते है। पशुओं को वातावरण के प्रकोप से बचाने के लिए उचित आवास व्यवस्था की आवश्यकता है। पशु आवास प्रणाली में दो प्रकार है।

  1. बन्द घर प्रणाली- इसमें पशु बाॅधकर रखे जाते है तथा सभी मकान बन्द होते है।
  2. खुले घर प्रणाली- इसमे पशु खुले रखे जाते है तथा सभी पशु स्वतन्त्र रुप से खुले बाडे़ में चारा खाते है, पानी पीते एवं घूमते है।

गाय एवं भैंस की आवास व्यवस्था में निम्नलिखित भवनों का होना आवश्यक है।

  1. दुहान बाड़ा
  2. दूध देने वाली एवं सूखी गायों के बाड़े
  3. ब्याने का कमरा
  4. बीमार पशु के लिए कमरा
  5. बछड़ा/बछिया गृह
  6. चारा एवं दाना गृह

इन सब में से मुख्य ब्याने का कमरा या प्रसूति गृह मुख्य है- गाभिन पशु को गर्भ के अंतिम दो माह में अन्य पशु से अलग कर प्रसूति गृह में रखना चाहिए। यह गृह (कमरा) ऐसी जगह होना चाहिए जहाॅ प्रत्येक गाय पर नजर रखी जा सके, एवं वातावरण की विपरीत परिस्थितियों जैसे- अत्याधिक गर्मी, सर्दी और बरसात से पशु सुरक्षित रह सके एवं गृह में फिसलन नहीं होनी चाहिए। गृह में फर्श कच्चा हो अथवा रेत डालनी चाहिए। गृह में शुद्ध हवा का आवागमन एवं स्वच्छ पीने के पानी का प्रबन्ध होना चाहिए।

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3. प्रसवोपूर्व एवं प्रसवोपरान्त आहार प्रबन्धन

पशुओं की आहार एवं पोषण व्यवस्था निम्न बातों पर निर्भर करती है। जैसे- पशु की नस्ल, उम्र, शारीरिक भार एवं शरीर की अवस्था। गर्भवती एवं दुधारु पशुओं को अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।

गर्भवती पशुओं (गाय व भैंस) में गर्भकाल के शुरुआत में अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 6 माॅह बाद भ्रूण का विकास तेजी से होने लगता है। अतः 400-500 कि.ग्रा. शरीर भार वाली मादा को गर्भकाल के अंतिम दिनोें में लगभग 10 से 14 प्रतिशत अधिक उर्जा की आवश्यकता पड़ती है। अतः पशुओं को उनके निर्वाह राशन का लगभग 50 प्रतिशत अधिक कैल्शियम, फास्फोरस, तथा प्रोटीन ज्यादा देनी चाहिए। गर्भावस्था के 6 माॅह के लगभग 500 ग्रा. से 1 कि.ग्रा. दाना प्रतिदिन देना शुरु करें तथा उसे धीरे -धीरे बढ़ाते हुए गर्भकाल के अतिम दिनों तक लगभग 1-2 कि.ग्रा. कर देना चाहिए। दाने में की गयी इस प्रकार की बढ़ोत्तरी पशु की उत्पादन क्षमता एवं प्रजनन क्षमता को सुचारु एवं सामान्य बनाए रखती है।

दुधारु पशुओं में आहार एवं पोषण व्यवस्था

प्रत्येक गाय एवं भैंस के दुग्ध उत्पादन में आहार की आवश्यकता उसके दुग्ध की मात्रा व दुग्ध में उपलब्ध वसा के प्रतिशत पर निर्भर करती है। सामान्यतः 2.5 कि.ग्रा. दुग्ध पर 1 कि.ग्रा. दाना मिश्रण प्रतिदिन खिलाना चाहिए। एवं भैंस को 2 कि.ग्रा. दुग्ध उत्पादन पर 1 कि.ग्रा. दाना मिश्रण देना चाहिए।

पशुओं के लिए संतुलित रातिब मिश्रण

आमतौर पर हमारे देश में पशुपालक पशुओं को भूसा अथवा पुआल जैसे सूखे चारे ज्यादा देते है। जिससे पशु का पेट तो भर जाता है। किन्तु उसमें आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होजाती है। परिणाम स्वरुप पशु की उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। इसलिए आवश्यक है कि पशुओं को नित्य प्रति आहार में कुछ ऐसे खाद्य मिश्रण का समावेश किया जाये जो पोषक तत्वों की मात्रा को संतुलित रखते हांे तथा जिसे चारे के अतिरिक्त खिलाया जाये। पशुपालकों को रातिब मिश्रण स्वंय बनाना चाहिए। तीन माॅह से अधिक के गो पशुओं के लिए रातिब मिश्रण बनाने के लिए निम्नलिखित खाद्य अवयवों को मिलाकर बनाया जा सकता है।

पशु को खनिज मिश्रण देना
क्र.सं. खाद्य अवयव मात्रा (कि.ग्रा./100 कि.ग्रा.)
1 2 3
1 मक्का, गेहॅू, ज्वार या बाजरा 30 20 25
2 चेकर या चूनी 38 32 35
3 खल (मॅूगफली, अलसी या सोयाबीन) 30 06 20
4 खली (सरसों, बिनोला या तिल) 40 18
5 खनिज मिश्रण 1.5 1.5 1.5
6 साधारण नमक 0.5 0.5 0.5
  कुल 100 100 100

गर्भावस्था में देख भाल

प्राकृतिक अथवा कृत्रिम गर्भाधान के पश्चात यदि गाय या भैंस में गर्भ रुक जाता है। और वह अपने गर्भाशय में भ्रूण पालती है। तब इस अवस्था को गर्भावस्था (Gestation) कहते है। गर्भधारण के उपरांत गाय या भैंस निम्नलिखित लक्षण प्रकट करती है।

  1. गर्भधारण के पश्चात मदचक्र बन्द हो जाता है और वह पुनः ऋतुमयी नहीं होती है। परन्तु कुछ पशु खासकर संकर नस्ल की गायें गर्भावस्था के प्रथम तिमाही में मदकाल के लक्षण दिखाती है।
  2. गाय का स्वभाव शांत हो जाता है तथा स्वभाव में गम्भीरता आ जाती है।
  3. गाय साँडों को अपने पास नहीं आने देती है और साँड़ो से दूर रहती है।
  4. गाय धीरे – धीरे चारा अधिक खाने लगती है। और मोटी दिखाई देने लगती है।
  5. 5 से 6 माॅह के बाद भ्रूण द्रव (Fetal Fluiod) बढ़ने से पेट मोटा होता दिखाई देता है।
  6. गर्भावस्था के 2 से 2.5 माॅह बाद कभी भी पशुचिकित्सक गाभिन पशु के मलाशय में हाथ डालकर गर्भाश्य में बढ़ते हुए शिशु की जाॅच करके यह पता लगा सकता है कि पशु गर्भित है अथवा नहीं।
  7. एक्स-रे अथवा अल्ट्रासाउन्ड से भी गर्भावस्था का पता लगाया जा सकता है।
  8. गर्भकाल के तीसरे तिमाही में असन (Udder) में होने वाली बढ़ोत्तरी साफ तौर पर दिखाई देती है।
  9. गर्भित गाय लगभग 285 दिन बाद बच्चा देती है। एवं गर्भित भैंस 310 दिन में बच्चा देती है।
पशु पर खुरैरा करना

अंतिम तिमाही में पशु की देख-भाल

  1. गर्भावस्था के तीसरी तिमाही में भ्रूण का विकास तेजी से होता है। अतः पशु को पौष्टिक आहार देना चाहिए। एवं निर्वाह आहार के अतिरिक्त 1.5 से 2.0 कि. ग्रा. दाना मिश्रण प्रतिदिन देना चाहिए।
  2. ऊँची-नीची जमीन पर पशु को नहीं चलाना चाहिए।
  3. गर्भित पशु को कीचड़ एवं फिसलन वाले स्थानों पर नहीं बाॅधना चाहिए।
  4. पशु बाड़े का ढलान आगे की ओर हो तो बेहतर है परन्तु ढलान पीछे की ओर नहीं होना चाहिए अन्यथा बेल (Porlapse) का खतरा बना रहता है।
  5. पशुशाला में समय -समय पर चूने का छिड़काव कर एवं माॅह में 2 वार फिनाइल से साफ करना चाहिए।
  6. यदि पशु दूध दे रहा है, तो ब्याने के 2 से 2.5 माॅह पूर्व उसका दुग्ध सुखा देना चाहिए।

प्रसव/ब्याना (Parturition)

प्रसव एक सामान्य शारीरिक जैविक क्रिया है जो भ्रूण के पूर्ण विकास के बाद प्रारम्भ होती है। शिशु तथा अपरा (Fetal Membrane) को गर्भाशय से बाहर निकालने की प्रक्रिया को प्रसव कहते है।

प्रसव के लक्षण

  1. प्रसव के करीब 10 दिन पूर्व गभिन गाय या भैंस के योनि द्वार से पीलापन लिए हुए मैले रंग का मोटा स्राव दिखाई देने लगता है। प्रसव के 2-3 दिन पूर्व सह स्राव इतना ज्यादा निकलता है कि पशु जहाँ बैठता है वहाँ काफी मात्रा में जमीन पर गिरी हुयी दिखाई देती है।
  2. प्रसव के 3-4 दिन पूर्व से ही भगोष्ठकों में सूजन तथा फैलाव नजर आने लगता है।
  3. प्रसव के 3-4 दिन पूर्व से ही थनोें में भी सूजन आना शुरु हो जाती है। और दूध की नली कड़ी एवं सीधी हो जाती है। कुछ पशुओं में ब्याने के पहले थनों में गाढ़े दूध की धार भी निकलती दिखाई देती है।
  4. प्रसव के कुछ घन्टे पूर्व पशु खाना पीना बन्द कर देता है। कई बार पशु दर्द के कारण उठता-बैठता है कुछ पशुओं में बार-बार मल-मूत्र त्याग करना तथा गोबर का पतला होना भी दिखाई देता है।

प्रसव के दौरान पशु की देख भाल-गाय व भैंस के प्रसव के दौरान निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।

  1. ब्याने वाली गाय/भैंस को अन्य पशुओं से अलग एवं शांत, हवादार, साफ एवं आरामदायक स्थान पर रखना चाहिए।
  2. पशु को बाधा पहुचाये बिना पशु का प्रत्येक घण्टे के अन्तराल से अवलोकन करना चाहिए। सर्वप्रथम जननांगों से एक पानी की थैली आती हुई दिखाई देती है। जो बाद में बड़ी होती जाती है। इस थैली के फटने पर बच्चे के पैर का खुर दिखाई देता है। इसके पश्चात घुटने और सिर दिखाई देते है। यदि प्रसव पश्च गर्भ स्थित में हो रहा है तो शिशु के केवल पिछले दोनों पैर ही दिखाई पड़ते है। धीरे-धीरे बच्चा अपने आप बाहर आ जाता है।
  3. एक बार बच्चे के खुर दिखने पर बच्चा लगभग 30 मिनट से 4 घण्टें के भीतर पूर्ण रुप से बाहर आ जाता है। परंतु कई बार अधिक वक्त लगता है अतः जब अधिक समय लगे तो तुरन्त पशु चिकित्सक से परामर्श लेकर बच्चे को बाहर निकालना चाहिए।
और देखें :  दुधारू पशुओं की उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु आहार व्यवस्था एवं खनिज मिश्रण का महत्व

प्रसवोपान्त पशु की देखभाल

  1. ब्याने के तुरन्त बाद प्रायः सभी पशु अपने बच्चे को चाटते हैं। यदि पशु बंधा हुआ है और बच्चे तक चाटने के लिए नहीं पहुंच पा रहा है तो बच्चे को पशु के आगे रख देना चाहिए। साथ ही यह ध्याान रखना चाहिए कि बच्चा अपनी माँ के पैरों से घायल न हो जाये।
  2. ब्याने के पश्चात जितना जल्दी हो सके, थनों को साफ करके नवजात बच्चे को खीस पिलाना चाहिए। कभी भी जेर गिरने का इन्तजार नहीं करना चाहिए। खीस निकालने के पश्चात जेर और शीघ्रता से निकल जाती है।
  3. ब्याने के लगभग 10 से 12 घण्टे के भीतर गाय/भैंस जेर गिरा ही देती है परन्तु यदि पशु 24 घण्टे तक जेर नहीं गिराता है। तो जेर को कभी भी हाॅथ से न खीचें। गर्भाशय में हाॅथ डालकर जेर निकालने पर पशु के गर्भाशय में संक्रमण होने का खतरा रहता है और आगे चलकर पशु प्रजननहीनता का शिकार हो सकता है। यदि पशु 24 घण्टे तक जेर नहीं गिराता है। तो पशुचिकित्सक की सलाह लें।
  4. पशु को जेर नहीं खाने देना चाहिए क्योंकि यह कुपच उत्पन्न करता है।
  5. बच्चा देने के बाद पशु को बहुत थकान होती है अतः आसानी से पचने वाला भोजन जैसे उबले हुए गेहँॅू का दलिया, बाजरा, गुड़, अजवाइन, अदरक एवं मैथी आदि देना चाहिए। यह जेर निकालने में भी सहायक है।
  6. वर्षा ऋतु में संक्रमण का खतरा अधिक होता है। इसलिए ब्याने के पश्चात पशु बाड़ा/पशु शाला की फिनाइल से सफाई करके चूने का छिड़काव करें।
  7. उचित प्रवन्धन हेतु पशु को प्रसवपूर्व एवं प्रसवोपरान्त निम्न तालिका में दर्शायें गये फीड फार्मूले के अनुसार आहार प्रबन्धन करें।
क्र.सं. आहार प्रसवोपूर्व प्रसवोपरान्त
1 हरा चारा 25-30 कि.ग्रा 25-30 कि.ग्रा
2 सूखा चारा 5 कि.ग्रा 5 कि.ग्रा
3 सन्तुलित आहार 3 कि.ग्रा 4-5 कि.ग्रा
4 खनिज मिश्रण 50 ग्राम 70-80 ग्राम
5 नमक 30 ग्राम 30-40 ग्राम
6 खली 1 कि.ग्राम 1.5-2 कि.ग्राम
7 पानी 70-80 ली. 75-85 ली.

अतः उपरोक्त आलेख में दर्शाये गये मुख्य बिन्दुओं को पशु पालक ध्याान में रख कर ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में गाभिन पशु की देख रेख एवं पोषण व्यवस्था करता है तो काफी हद तक अपने पशु को स्वस्थ रख कर उनसे अच्छा उत्पादन ले सकता है।

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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