नीलर्सना (ब्लूटंग) रोग कारण और लक्षण

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पशुओं में कई प्रकार के रोग होते हैं जिन्हें दो प्रमुख वर्गाे में बाँटा जा सकता हैः संक्रामक रोग- जो जीवाणु, विषाणु, कवक, और परजीवी कारकों से होते हैः असंक्रामक रोग जो कि पशु की शारीरिक क्षमता, पोषक तत्वों की कमी, विषाक्तता तथा उत्पादन से जुड़ी समस्याओं के कारण होते है।

नीलर्सना (ब्लूटंग) एक गैर-संक्रामक, कीट जनित, मुख्यतः भेड़ का विषाणु रोग है, लेकिन कई पालतू पशु जैसे कि गाय, भैंस, बकरी एवं वन्य रोमन्थी भी इस रोग से प्रभावित होते है। स्वदेशी भेड़ नस्लों की अपेक्षाकृत कम संवेदनशील होती हैं। समशीतोष्ण क्षेत्रों की भेड़ की नस्लें उष्णकटिबंधीय से अधिक संवेदनशील होती हे। नीलर्सना मनुष्य को संक्रमित नहीं करता और फलस्वरूप इस रोग का कोई सार्वजनिक महत्त्व नहीं है। नीलर्सना सबसे पहले अठारहवीं सदी में, दक्षिण अफ्रिका में भेड़ की ‘‘एपिजोओटिक कैटेरह‘‘ ज्वर के रूप में वर्णित किया गया। उसके बाद यह रोग कई देशों के कटिबंध और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया गया। यह रोग लगभग सभी महाद्वीपों यानी अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और एशिया में अक्षांस 400o द० और 530o उ० के बीच के क्षेत्रों में पशुस्थानिक बीमारी है।

भारतीय उपमहाद्वीप में नीलर्सना पहली बार सन् 1959 में पश्चिमी पाकिस्तान से सूचित किया गया। भारत सन् 1964 में नीलर्सना का प्रकोप पहली बार महाराष्ट से सूचित किया गया। इसके बाद नियमित रूप से कई भागों से दर्ज किया द्वारा नीलर्सना का प्रकोप देश के कई भागों से दर्ज किया गया। भारत के विभिन्न भागों में, सीरो-महामारी विज्ञान के अध्ययन से भारतीय बकरी, गाय, भैंस और ऊंट में वायरस के व्यापक प्रसार का पता चलता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु सन् 2001 में, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा, भारतीय पशु चिकित्स अनुसंधान संस्थान के नेतृत्व में अखिल भारतीय नेटवर्क परियोजना शुरू की गई जिसका उदेश्य इस रोग की व्यापकता, संचरण निदान तकनीकों एवं टीकों का विकास, रोगी पशुओं से विषाणु का अलगाव, आण्विक गुण निरूपण, प्रसार और महामारी विज्ञान का अध्ययन करना है।

रोग का कारण और का फैलने का माध्यम

यह रोग ब्लूटंग विषाणु के कारण होता है, जो क्लूलीक्वाइडस वैक्टर द्वारा फैलता है। हालांकि गाय में नाल के रास्ते के माध्यम से बछडे़ में फैलने का मामला दर्ज किया गया है। कई स्तनधारी पशुओं में मुँह के मार्ग से और बड़े मांसाहारी जानवरों में सक्रमित मांस खाने से नीलर्सना रोग का मामला दर्ज किया गया है। असंक्रमित वैक्टर संक्रमित पशु से रक्त भोजन लेता है और एक नए असंक्रमित पशु को रोग संचारित करता है। इस विषाणु के विश्व में 26 सीरमीप्रकार है, और भारत में इसके 21 सीरमीप्रकार मौजूद है। दुनिया भर में 1400 से अधिक क्यूलीक्वाइडस की प्रजातियां है जिनमें से 20 से भी कम ब्लूटंग विषाणु के वास्तविक संभव वेक्टर हैं। रोग की गंभीरता, पशु की संवेदनशीलता, कीट क्षमता, विषाणु का विषैलापन, पर्यावरण की स्थिति और भोगोलिक स्थान की योग्यता जैसे कारको पर निर्भर करता है। नीलर्सना रोग साल भर सूचित किया गया है लेकिन गर्मियों ओर शरद ऋतु के महीनों में सबसे आम होता हैं जब खून चूसने वाले कीट सबसे प्रचुर मात्रा में होते हैं। अनुकूल पर्यावरण जैसे कि गर्म जलवायु और उच्च नमी क्यूलीक्वाइडीस मुख्य रूप से जुलाई और नवंबर के बीच काफी सक्रिय होते हैं।

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संक्रमण और रोग के लक्षण की उपस्थिति के बीच की अवधि

यह पशु की प्रजाति, आयु और विषाणु के प्रकार पर निर्भर करता है जो 4 से 20 दिनों तक हो सकती है। आर्थिक हानि नीलर्सना विषाणु संक्रमण से भारत तथा दूसरे कई देशों में भेड़ उत्पादन पर भारी असर पड़ता है, विषाणु संक्रमण से पशुओं की अस्वस्थता के कारण उत्पादकता में कमी हो जाती है, मृत्यु दर बढ़ जाती है तथा प्रजनन क्षमता कम हो जाती है जिससे पशुपालकों को आर्थिक हानि होती है। इसके साथ ही, संक्रमित पशुओं को अन्य क्षेत्रों या देशों में निर्यात करने के प्रतिबंध के कारण भी काफी आर्थिक हानि होती है।

नैदानिक लक्षण

भेड़ में, नीलर्सना के लक्षण, तीव्र बुखार (105 -1060 फारेनहाइट), अवसाद, भूख न लगना, अत्यधिक लार निकलना, मुँह के श्लेष्म झिल्ली का लाल होना, चेहरा एवं जीभ का सूजन, जीभ का नीला होना, नाक का बहना, मूँह के श्लेष्म झिल्ली पर अल्सर, नेत्रश्लेमलाशोध सांस में तकलीफ एवं घडघडाहट की आवाज, पाँव में छाले पड़ना, मांसपेशियों में कमजोरी, लंगडापन, शरीर को धनुषाकार बनाकर रखना, गर्भपात, जन्मजात असामान्यताएं, पशु का कमजोर होना और अततः मृत्यु होना आदि हैं। मवेशी और बकरियों में सक्रमण आमतौर पर लक्षण रहित होता है और बकरियों में संक्रमण आमतौर पर लक्षण रहित होता है और इन्हें विषाणु संग्रह समुदाय कई महीनों के लिए किसी भी नैदानिक लक्षण दिखाए बिना रह सकती हैं। हालांकिम ब्लूटंग विषाणु – 8, जो हाल ही में यूरोप भर में फैला है, मवेशियों में नैदानिक लक्षण और मृत्यु कारण बना। गंभीर नैदानिक लक्षण और मृत्यु का कारण बना। गंभीर नैदानिक लक्षण और मृत्यु का कारण बना गंभीर नैदानिक लक्षण और मृत्यु कभी-कभी बकरी और ऊँट में भी होता है। लेकिन अफ्रीका के कुछ मवेशियों में भेड़ो जैसे लक्षण देखे गए। उत्तरी अमेरिका के सफेद पुंछ हिरण में ब्लूटंग विषाणु एक घातक रक्तस्त्रावी रोग का कारण है।

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शवपरीक्षा में, फेफड़े की धमनी और ह्दय की महाधमनी पर रक्तस्त्राव देखा जाता है। रक्तस्त्राव ज्यादातर ऊपरी जठरांत्र संबंधी मार्ग मुख्य, ग्रासनली गुहा, और रूमुन में पाए जाते है। ब्लूटंग विषाणु, रक्त कोशिकाओं में प्रतिकृति करता है और तपेदिक रक्त के जमने में कुछ भी गड़बडी जैसे जमावट असामान्यताओं का उत्पादन करता है। भेड़ और मवेशी में, संक्रामक ब्लूटंग विषाणु 35 से 60 दिनों के लिए रक्त में पाया जा सकता है।

निदान

केवल प्रदर्शित लक्षणों के आधार पर रोग का निदान कठिन है। इस रोग के नैदानिक लक्षण विषाणु संक्रामण के संकेत हैं, लेकिन प्रयोगशाला परीक्षण और पोस्टमार्टम परीक्षण एक निश्चत निदान के लिए आवश्यक हैं। प्रयोगशाला में नीलर्सना रोग का निदान, विषाणु अलगाव, रक्त एवं उतक में एलिजा द्वारा विषाणु प्रतिजन एवं सीरम में प्रतिकाय का पता लगाकर किया जात है।

नियत्रंण

नीलर्सना विषाणु के कई सीरम प्रकार और बड़ी संख्या में प्रभावित जानवर के कारण रोग का नियंत्रण बहुत मुश्किल हैं अतिसंवेदनशीज पशुओं को क्यूलीक्वाइडस कीट से दूर रखें और कीटनाशक डालकर कीट को नियंत्रण करने का प्रयास किया जा सकता है। प्रायः सूर्याेदय और सायं सूर्यास्त के समय कीटों की सक्रियता सबसे अधिक होती है, अतः इस समय पर पशुओं को चराई पर न ले जाने से रोग संक्रमण कम किया जा सकता है। रोगी पशुओं को स्वस्थ्य पशुओं से अलग रखना चाहिए, और स्वच्छता का विशेष ध्याान रखना चाहिए। इस रोग का कोई निर्धारित उपचार नहीं है लेकिन घावों पर एंटीसेप्टिक मलहम आदि का प्रयोग किया जा सकता है। टीके दुनिया भर में बड़े पैमाने पर उपयोग किए जाते हैं। भारत में टीका विकसित किया गया है परन्तु उपयोग में नहीं है।

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अगर आपको नीलर्सना (ब्लूटंग) रोग का संदेह हो, तो क्या करना चाहिए ?

नीलर्सना रोग का कोई भी संदेह हो तो तुरंत स्थानीय पशु चिकित्सा कार्यालय से संर्पक करना चाहिए। किसानों को इस रोग के नैदानिक लक्षण (उपर दिए गए ) से परिचित होना चाहिए । पशुपालकों को चाहिए कि ऊपर दिये गये रोग लक्षणों में से किसी का आभास होते ही तत्काल उसकी सूचना पशुचिकित्सक को देकर और सावधानी बरतकर रोग को क्षेत्र के अन्य पशुओं में फैलने से रोकें। संदेह की स्थिति में पशुओं को परिसर से तब तक स्थानांतरित नहीं करना चाहिए जब तक खून के नमूनों के जांच का परिणाम इस रोग के लिए नकारात्मक न हो।

The content of the articles are accurate and true to the best of the author’s knowledge. It is not meant to substitute for diagnosis, prognosis, treatment, prescription, or formal and individualized advice from a veterinary medical professional. Animals exhibiting signs and symptoms of distress should be seen by a veterinarian immediately.

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