बकरी पालन एक लाभकारी व्यवसाय

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बकरी पालन व्यवसाय सबसे प्राचीनतम व्यवसायों में से एक है। महात्मा गांधी ने बकरी को गरीब की गाय कहा था इसमें कोई संशय नहीं है। इसे थोड़ी सी पूंजी लगाकर व्यवसाय प्रारंभ किया जा सकता है तथा यह आय का स्रोत अर्जित करने में अत्यंत सहायक है इस व्यवसाय को करने में अधिक संसाधनों तथा जमीन की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बकरी छोटे शारीरिक आकार, अधिक प्रजनन क्षमता तथा चरने में कुशल पशु होने के कारण इसे पालना सरल है। आज के आधुनिक परिवेश में इसे लाभप्रद व्यवसाय बनाने में अच्छी नस्लें, विभिन्न जलवायु के अनुरूप विकसित की गई है। आर्थिक दृष्टि से लाभदायक अन्य पशुओं की तुलना में बकरी पालन के अधिक प्रचलित होने के संदर्भ में उनकी निम्नलिखित विशेषताएं महत्वपूर्ण हैं।

  1. कम पूंजी की आवश्यकता।
  2. रखने के लिए कम स्थान की आवश्यकता।
  3. दाने चारे की कम मात्रा में आवश्यकता।
  4. कम आयु पर प्रजनन शुरू करने का गुण तथा हर बयांत में औसतन 1 से अधिक बच्चे देना।
  5. सभी प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक अनुकूलन की छमता है।

बकरी पालन

भारतवर्ष में बकरियों की निम्नलिखित मुख्य नस्लें पाई जाती हैं जैसे: गद्दी, बरबरी, जमुनापारी, सिरोही, बीटल, जखराना , मेहसाना, सुरती, कच्छी, मालाबारी, गंजम, उस्मानाबादी, संगमनेरी, ब्लैक बंगाल, झालावाडी, चेगू, मारवाड़ी

परंतु हमारे उत्तर प्रदेश में  बरबरी और जमुनापारी बकरी पाली जाती है जिससे अच्छी आमदनी प्राप्त होती है।

बकरी पालन से होने वाली आमदनी

बकरी पालन से आय के मुख्य साधन दूध तथा उनके बच्चों की एवं खाद की बिक्री आदि है। वास्तविकता में बकरी पालन रोजगार का बहुत ही उपयोगी विकल्प है। कम पूंजी से प्रारंभ होना, यह व्यवसाय डेयरी फार्म की तुलना में कम जोखिम वाला व अधिक लाभ देने वाला है। आज बढ़ती हुई महंगाई में जब गाय और भैंस की कीमत और उनके पालने का खर्च बहुत अधिक है बकरी पालन ग्रामीण बेरोजगारों के लिए रोजगार का उत्तम साधन है। बकरी का दूध सुपाच्य और ताकतवर होता है इसके दुग्ध में 4% प्रोटीन होती है तथा वसा का आकार छोटा होने के कारण यह आसानी से पच जाता है। इसका दूध बच्चे, वृद्ध व रोगी व्यक्ति के लिए बहुत ही लाभदायक है।

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अच्छी नस्ल का चयन:

इसमें जलवायु तथा आकार के अनुरूप बकरियों का चयन आवश्यक है।

बड़े आकार की नस्ल: सिरोही, जमुनापारी, बीटल नसलो की बकरियां पालने योग्य उपयुक्त है।

मध्यम आकार की नस्ल: सिरोही, मारवाड़ी, नसलो की बकरियां पालने योग्य उपयुक्त हैं।

छोटे आकार की नस्ल: इसमें बंगाल, आसाम, उत्तर प्रदेश की स्थानीय बरबरी नस्ल की बकरियां पालने योग्य उपयुक्त होती हैं।

मैदानी क्षेत्र के लिए जमुनापारी तथा बरबरी नस्ल की बकरियां अधिक उपयुक्त है। इन नस्लों का संवर्धन तथा वृद्धि एवं व्यवसाय हेतु अधिकांशतः उपयोग पशुपालकों द्वारा किया जाता है। व्यवसाय को प्रारंभ करते समय उपयुक्त प्रजनन क्षमता युक्त वयस्क नर एवं स्वस्थ बकरियों को ही क्रय करना चाहिए। बकरों को खरीदते समय  उनके वृषण को छूकर आवश्यक जांच करनी चाहिए की वृषण मुलायम तथा रोग रहित हो।

आहार

बकरी चरने वाला पशु है। स्थानीय रूप से विकसित चारागाह या पेड़ पौधे अथवा अच्छी कृषि जन्य फसलों की उपलब्धता अच्छे हरे चारे के रूप में नितांत आवश्यक है। यदि बकरी को 8 घंटे चराने पर पाला जाता है तो उसके शारीरिक भार का 1% पौष्टिक आहार के रूप में खाने हेतु दिया जाता है। उदाहरणार्थ 30 किलोग्राम शारीरिक भारत पर 300 ग्राम पोस्टिक आहार की आवश्यकता होती है।

बकरियों के आहार के मुख्यत, निम्न स्रोत हैं

  1. अनाज वाली फसलों से प्राप्त चारे
  2. फलदार हरे चारे
  3. पेड़ पौधों की फलियां एवं पत्तियां
  4. विभिन्न प्रकार की घास

संसाधनों की उपलब्धता के अनुसार आहार , चराने व बांधकर खिलाने से उपलब्ध कराया जा सकता है। चारागाह की कमी होने की वजह से आवास में रखकर पालने वाली पद्धति अधिक लाभप्रद होती जा रही है। उपयुक्त आवास हेतु 12 से 15 वर्ग फीट स्थान प्रति पशु के अनुरूप आवश्यक है। आवास में वेंटीलेशन तथा सुचारू रूप से प्रकाश की व्यवस्था होनी चाहिए। आवास स्थानीय उपलब्ध साधनों से सस्ता निर्मित होना चाहिए। फीडर वयस्क के लिए 40 से 50 सेंटीमीटर व बच्चे के लिए 30 से 35 सेंटीमीटर प्रति बकरी फीडर हेतु आवश्यक होता है। स्टाल फीडि़ग वाली आवासीय पालने वाली पद्धत में 1 से 2 किलोग्राम भूसा अथवा ढाई किलोग्राम हरा चारा, पत्तियां, है, साइलेज तथा 500 ग्राम से 1 किलोग्राम संकेंद्रित आहार शारीरिक आकार के अनुरूप आहार के रूप में दिया जाता है।

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प्रजनन

वयस्क मादा 10 से 15 माह की आयु में प्रजनन योग्य हो जाती है। गर्मी के लक्षणों में पूंछ को बार-बार हिलाती है तथा योनि से सफेद स्राव आता है। उस समय इसे नर बकरे के संपर्क में लाकर संसर्ग कराना चाहिए अथवा पशु चिकित्सालय पर यदि कृत्रिम गर्भाधान की सुविधा उपलब्ध है तो उसका उपयोग करना चाहिए। बकरी 150 से 155 दिन में बच्चा देती है तथा 60 से 90 दिन में गर्मी में आने पर पुनः गरभित कराना उचित होता है जिससे की दूसरा बच्चा 7 से 8 माह के अंतराल पर प्राप्त हो जाए।

नवजात बच्चों की देखभाल: प्रसव के तुरंत बाद बच्चों के मुंह तथा नाक के अंदर बाहर लगी म्यूकस की झिल्ली को हटा कर उन्हें सूखे मुलायम कपड़े से पोंछ देना चाहिए तथा बच्चे की नाभि पर टिंचर आयोडीन का घोल या बीटाडीन लगानी चाहिए। नवजात बच्चों को अपनी मां का प्रथम दूध आधा घंटा से 1 घंटा के भीतर अवश्य पिलाएं क्योंकि उसमें उपस्थित इम्यूनोग्लोबुलीन बच्चों में रोग से बचाव के लिए प्रतिरोधक शक्ति प्रदान करता है।

नवजात शिशु की उचित देखभाल करनी चाहिए जिससे वह रोग ग्रस्त ना हो तथा बच्चों को दुग्ध पान कोलोस्ट्रम मिल्क दिन में तीन से चार बार कराना उचित होता है तथा 6 से 8 सप्ताह तक दुग्ध सेवन कराना चाहिए। 3 से 9 माह की आयु तक वयस्कता प्राप्त करने हेतु अच्छी आहार व्यवस्था तथा रोग नियंत्रण का प्रबंध करना चाहिए।

बकरियों में पाई जाने वाली मुख्य बीमारियां

  1. पीपीआर
  2. खुर पका मुंह पका/एफ.एम.डी
  3. बकरी चेचक/गोट पाक्स
  4. मुहा रोग/कॉन्टेजियस इकथाइमा
  5. नीली जीभ/ब्लू टंग
  6. गला घोटू/एच.एस.
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इनमें एक नंबर से लेकर पांच नंबर तक की बीमारियां विषाणु से फैलती हैं एवं छठे नंबर की बीमारी जीवाणु जनित है।

रोग नियंत्रण

बच्चों में डायरिया न्यूमोनिया, आंत्रशोथ से बचाव हेतु उचित देखभाल तथा वयस्कों में परजीवी रोगों के विरुद्ध नियमित दवा पान पशु चिकित्सा अधिकारी की सलाह के अनुरूप करना चाहिए तथा संक्रामक रोगों के विरुद्ध समय समय पर टीकाकरण कराना आवश्यक होता है।

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