रेबीज (Rabies) एक जानलेवा रोग: कारण, लक्षण, बचाव एवं रोकथाम

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रेबीज़ (Rabies)
इसे जलांतक (Hydrophobia) जलभीति और हड़किया रोग के नाम से भी जानते हैं। यह एक ऐसा विषाणुजनित रोग है जिसमें मुख्यतः चमगादड़,  कुत्ते या बंदर के काटने से, उसकी लार के द्वारा विषाणु मानव/ काटे जाने वाले पशु के मष्तिष्क तंतु कुप्रभावित करते हैं और मष्तिष्कशोथ (Encephalitis) की स्थिति पैदा हो जाती है। एक अनुमानानुसार इस रोग के कारण प्रति वर्ष विश्व में लगभग 59000 व्यक्ति उचित उपचार के अभाव में जिनमें अधिकतम बच्चे होते हैं, काल के गाल में समा जाते है। एशिया में रेबीज का अधिकतम प्रकोप है जिसमें लगभग 33172 मनुष्यों की मृत्यु प्रति वर्ष हो जाती है। भारत में पूरी एशिया के लगभग 59.9% एवं पूरे विश्व के लगभग 35% व्यक्ति रेबीज के कारण असमय काल के गाल में समा जाते हैं।

रेबीज पशु जन्य अर्थात जूनोटिक रोगों (Zoonotic Diseases), मे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं जानलेवा, घातक रोग है, जो रोगी पशु द्वारा स्वस्थ पशु या मनुष्य को काटने या घाव को  चाटने  से फैलती है। यह मनुष्य सहित सभी तरह के पशुओं में हो सकती है। प्रत्येक वर्ष 28 सितंबर को वैज्ञानिक लुइस पाश्चर के निर्वाण दिवस पर “विश्व रेबीज दिवस” मनाया जाता है जिसके अंतर्गत इस बीमारी के कारण, लक्षण, बचाव एवं टीकाकरण तथा आवारा कुत्तों के बंध्याकरण इत्यादि द्वारा इस बीमारी के उन्मूलन हेतु जन जागरूकता अभियान चलाया जाता है।

पशुओं में रेबीज के लक्षण
भूख कम लगना, दूध में कमी, कान आगे तने हुए सचेत अवस्था में, तेज बुखार व पशुओं के मुंह से झाग दार लार गिरना, दांत पीसना इत्यादि मुंह के भाग के लकवा के कारण होता है। इसमें रोगी के व्यवहार में बदलाव अधिक उत्तेजना पागलपन लकवा व मौत हो जाती है यह एक पशुजन्य रोग होने के कारण पशु से मनुष्य व मनुष्य से पशुओं में फैलता है। मनुष्य में इसे हाइड्रोफोबिया या जलांतक कहते हैं क्योंकि इस रोग में गले की मांसपेशियों में ऐंठन के कारण रोगी पानी नहीं पी पाता है एवं अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाना। पशु का शीघ्र ही दुर्बल हो जाना। बिना आवाज रंभाने की कोशिश, वोकल कॉर्ड की पैरालिसिस के कारण मुंह से कर्कश आवाज निकालना। पैरों में लड़खड़ाहट के कारण पशु अन्य पशु या दीवार से टकरा जाता है। उपरोक्त में से किसी भी लक्षण के प्रकट होने पर रेबीज का ही शक किया जाना चाहिए जब तक कि कोई अन्य रोग का निदान न हो जाए।

मनुष्य में रेबीज के लक्षण

  • कुत्ते के काटने के स्थान पर मनुष्य को अजीब सी झनझनाहट महसूस होती है।
  • हल्का बुखार, सिर दर्द, उबकाई आना।
  • अधिक संवेदनशीलता, बेचैनी, मांसपेशियों में अकड़न।
  • आंख के पुतली का फैलना, आंख से आंसू गिरना।
  • मुंह से लार गिरना तथा तेज पसीना आना।
  • अंतिम अवस्था में गले एवं स्वसन तंत्र की मांसपेशियों में जोरदार ऐठन से खाना पानी नहीं निगल पाना तथा साथ में अत्याधिक कष्ट होना।
  • विभिन्न अंगों में लकवा, कंपकपाहट, ऐंठन, मस्तिष्क शोथ, स्वसन तंत्र की मांसपेशियों के लकवा ग्रस्त होने से मनुष्य एवं पशु की मृत्यु हो जाती है।
  • मनुष्य में अधिकांशत: रेबीज की डंब प्रकार ही होती है। कुत्तों की तरह उग्रपन अर्थात फ्यूरियस फार्म नहीं दिखाई देती है।
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रोग के संक्रमण का कारण
यह बीमारी मुख्यत: पागल कुत्ते, सियार, नेवले, बिल्ली एवं बंदर के काटने से लार द्वारा फैलती है। इन पशुओं की लार से रेबडो वायरस/ लाइसा वायरस, नामक विषाणु से यह रोग फैलता है, यह एक न्यूरोट्रॉपिक विषाणु है जो नर्वस टिशु, लार ग्रंथियों  तथा लार में पाए जाते हैं। रेबीज  हमेशा  रेबीज ग्रस्त पशु से  ही फैलता है, पशुओं में अधिकतर कुत्ते के काटने से रोग फैलता है। रेबीज ग्रस्त पशु की लार त्वचा के घाव, खरोंच आदि पर लगने से संक्रमण शरीर में प्रवेश करता है कई बार यह विषाणु दूध व मूत्र में भी पाए जाते हैं परंतु यह विषाणु रक्त में नहीं पाए जाते हैं। यह एक  बड़े आकार का विषाणु है जो तेज धूप, गरम पानी, फॉर्मलीन, लाल दवा आदि से नष्ट हो जाते हैं।

यह विषाणु दो रूप में पाए जाते हैं। प्राकृतिक रूप से रेबीज होने पर रोगी को उसके शरीर से प्राप्त किए जाने वाले विषाणु को “स्ट्रीट वायरस” कहते हैं। जबकि स्ट्रीट वायरस को ब्रेन इनाकुलेशन द्वारा खरगोश जैसे प्रयोगशाला पशु में प्रवेश कराया जाता है तो खरगोश के ब्रेन में “फिक्स्ड वायरस” बनते हैं। रेबीज मनुष्य तथा सभी गर्म रक्त वाले जीवो में पाया जाता है लेकिन कुत्ते, लोमड़ी, भेड़िया, बिल्ली, चूहे तथा वैंपायर प्रजाति के चमगादड़ में अधिक पाया जाता है और इन्हीं के द्वारा  अन्य जीवो में  फैलता है । यह अत्यंत घातक एवं लाइलाज बीमारी है। मनुष्यों में यह रोग किसी गर्म खून वाले रेबीज प्रभावित पशु के काटने से हो सकता है। सन 1880 में लुइस पाश्चर ने इसका विस्तृत अध्ययन कर मनुष्य की जीवन रक्षा हेतु टीके के बारे में बताया। कुत्ता रेबीज का एक प्रमुख वाहक है। कुत्ते में रोग के लक्षण प्रकट होने से 5 दिन पहले ही लार में विषाणु मौजूद रहते हैं। रेबीज अधिकतर गर्मियों के दिनों में होता है क्योंकि इस दौरान पशुओं का प्रजनन काल होता है तथा आहार, पानी की तलाश में जंगली पशुओं की गतिविधियां बढ़ जाती हैं। यह जंगली जानवर कुत्तों के संपर्क में अधिक आते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि रेबीज रोग ग्रस्त कुत्ते के काटने से प्रत्येक पशु को रेबीज होती है क्योंकि कई बार लार स्वस्थ पशु के शरीर पर लगते ही साफ हो जाती है। कुछ मामलों में रोगी पशु का बिना गर्म किया हुआ दूध, मांस तथा रोगी स्त्री का शिशु द्वारा दूध पीने से रेबीज हो सकता है।

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उपचार
इस बीमारी का पूरे विश्व में कोई इलाज नहीं है। एक बार रोग के लक्षण प्रकट हो जाने पर पशु या मनुष्य की मृत्यु निश्चित होती है। इसलिए इसकी रोकथाम का एकमात्र उपाय है कि पागल पशु के काटने पर, एंटी रेबीज पोस्ट बाइट टीकाकरण का पूरा कोर्स लगवाएं।

रेबीज का बचाव एवं रोकथाम
रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सा अधिकारी या चिकित्सा अधिकारी से संपर्क करें। कुत्ता काटने पर 24 घंटे के अंदर रेबीज का टीकाकरण ही एकमात्र बचाव है। कुत्ते को रेबीज का टीका प्रतिवर्ष अवश्य लगवाएं। भारतीय समाज में लावारिस कुत्ते एक सबसे बड़ी समस्या है। इनकी अत्याधिक बढ़ती संख्या की रोकथाम के लिए, कुत्तों का नसबंदी ऑपरेशन बड़े पैमाने पर चलाया जाना चाहिए या मर्सी किलिंग करनी चाहिए। पालतू कुत्तों का भी हर वर्ष बड़े पैमाने पर टीकाकरण होना चाहिए।

देश प्रदेश या किसी क्षेत्र में बाहर से आए नए कुत्तों के प्रवेश के समय रेबीज हेतु जांच होनी चाहिए तथा 4 से 6 महीने तक निगरानी में रखना चाहिए। कुत्तों एवं बिल्लियों का रेबीज टीकाकरण अति आवश्यक है।

एक बार किसी रेबीज ग्रस्त पशु द्वारा, पशु या मनुष्य को काट लेने पर पोस्ट एक्स्पोज़र टीकाकरण कराना चाहिए। वर्तमान समय में काटने के बाद टिशू कल्चर वैक्सीन काम में लिया जाता है जो काटने से पहले भी हर वर्ष टीकाकरण के काम में लिया जाता है। यह इनएक्टिवेटेड सेल कल्चर वैक्सीन होता है जो काफी प्रभावशाली होता है और दर्द रहित होता है तथा कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होता है। इसकी मात्रा 1ml सबकुटेनियस या इंटरमस्कुलर विधि से सभी प्रजाति उम्र व वजन के पशुओं एवं मनुष्यों में दिया जाता है। यह वैक्सीन काटने से पूर्व एवं काटने के पश्चात दोनों स्थितियों में लगा सकते हैं। इस वैक्सीन को रेफ्रिजरेटर में 4 से 7 डिग्री फारेनहाइट तापमान पर रखा जाता है। वैक्सीन को रेफ्रिजरेटर के अंदर फ्रीजर वाले भाग में कभी नहीं रखें यदि फ्रीजर भाग में रख दिया तो वैक्सीन जम जाएगा तब  इसे उपयोग में नहीं लेना चाहिए।

रेबीज युक्त पशु के काटने के बाद वैक्सीन का कोर्स निम्न दिनों के अनुसार लगाएं:

0 दिन, 3 दिन, 7 दिन, 14 दिन, 30 दिन एवं 90 वें दिन।

कुत्ते का पिल्ला जब 2 महीने का हो तो पहला एंटी रेबीज वैक्सीन लगाएं। दूसरा इंजेक्शन तीसरे महीने पर लगाएं। इसके बाद हर वर्ष एक बार लगाएं। यदि पिल्ले को 3 माह की उम्र पर पहला वैक्सीन लगाया जाता है तो दूसरे वैक्सीन की जरूरत नहीं पड़ती है। बाद में प्रत्येक वर्ष में एक बार अवश्य लगाएं।

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पशु स्वास्थ्य के विश्व संगठन ओoआईoईo (OIE) द्वारा सन 2030 तक रेबीज के द्वारा होने वाली मृत्यु दर को शून्य करने अर्थात  इस बीमारी के उन्मूलन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कुत्तों एवं बिल्लियों का रेबीज वैक्सीनेशन करना अत्यंत आवश्यक है। सभी पालतू कुत्तों के टीकाकरण, आवारा कुत्तों के बंध्याकरण एवं टीकाकरण एवं इस बीमारी के लक्षण एवं बचाव के उपाय जन सामान्य मे प्रचार प्रसार से इस जानलेवा बीमारी के नकारात्मक प्रभाव को नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार पशु और मनुष्य में इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।
संदर्भ: टेक्स्ट बुक ऑफ वेटरनरी क्लिनिकल मेडिसिन द्वारा डॉ अमलेंदु चक्रवर्ती

इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए।

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