शुष्क काल व पारगर्भित अवधि ऐसी अवधि होती है, जिसमें दुग्ध दोहन बंद करना, शुष्क मादा की देखभाल व ब्याने के बाद दोबारा मादा का दुग्ध दोहन किया जाता है।
शुष्क मादा
दो दुग्ध काल के बीच गर्भित मादा को आराम की जरूरत होती है। इसलिए उसको आराम देने के लिए उसका दुग्ध दोहन बन्द कर दिया जाता है। ऐसी मादाओं को शुष्क मादा व इस अवधि को शुष्क काल कहा जाता है।
दूध सुखाना (ड्राईंग–ऑफ)
जब गर्भित मादा को दुग्ध दोहन से छोड़ते हैं तो इसे दूध सुखाना कहते हैं। दूध सुखाने में 18 घण्टे या इससे ज्यादा समय लगता है जिसके परिणाम स्वरूप दूध के दबाव से मादा की दुग्ध उत्पादन की प्रक्रिया में कमी होती है। अन्ततः जिससे लेवटी के आकार में कमी हो जाती है। मानक सलाह के अनुसार एक सप्ताह तक मादा का पुष्टिवर्धक आहार (कंसनट्रेट फीड) बन्द कर देना चाहिए व फिर दुग्ध दोहन अचानक ही बन्द कर देना चाहिए। इस दौरान ऐसी मादाओं को अन्य मादाओं से अलग कर उनका पानी भी कम कर देना चाहिए, इससे भी दुग्ध उत्पादन की प्रक्रिया में कमी आती है। जिन मादाओं का ज्यादा दुग्ध उत्पादन होता है उनको सुखाना बहुत मुश्किल होता है जिस कारण वे थनैला रोग के प्रति अतिसंवेदनशील होती हैं। ऐसी मादाओं को 7 से 14 दिन का समय दूध सुखाने का देना चाहिए।
शुष्क काल
शुष्क काल की अवधि लगभग 60 दिन की होनी चाहिए। शुष्क काल में इन मादाओं को अन्य मादाओं से अलग कर प्रारंभिक शुष्क काल (अर्ली ड्राई पीरियड) व करीबी खानपान काल (क्लोज-अप टू काविंग ड्राई पीरियड) के समूहों में अलग-अलग रखना चाहिए। इन समूहों के खानपान का प्रबन्धन भी अलग-अलग होना चाहिए। इनका व्यायाम शारीरिक प्रक्रियाओं के लिए महत्त्वपूर्ण है।
शुष्क काल यदि 40 दिन से कम होगा तो दुग्ध ग्रन्थि ऊत्तकों के पास पुनर्जीवित होने का पर्याप्त समय नहीं होगा जिस कारण दुग्ध ग्रन्थि का विकास पूरा नहीं होगा व अगले ब्यांत में उस दुधारू पशु का दुग्ध उत्पादन 20–40 प्रतिशत कम होगा। यदि शुष्क काल की अवधि 70 दिन से ज्यादा होगी तो इससे भी उस दुधारू पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता में वृद्धि नहीं होगी व ऐसे पशुओं में ब्याने के समय कठिनाइयाँ आ सकती हैं जिनका इलाज मंहगा होता है। 60 दिनों की शुष्क काल अवधि आदर्श होती है।
शुष्क मादाओं के प्रबन्धन का लक्ष्य
हर दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुपालक का लक्ष्य पशु द्वारा अधिक चारा खाना व दुग्ध उत्पादन बढ़ाकर अधिकतम लाभ बढ़ाना होता है। शुष्क मादा का उचित प्रबन्धन ही दुग्ध उत्पादन में सफलता की नीव है। शुष्क मादा के प्रबन्धन के निम्नलिखित लक्ष्य हैं:
- कॉफ की विकास वृद्धि के लिए पौष्टिक आहार खिलाना
- इस्टतम शारीरिक स्कोर बनाए रखना
- अगले ब्यांत के लिए दुग्ध ग्रन्थि को तैयार करना
- पाचन, चपापचय व संक्रामक रोगों को कम करना
जब शुष्क मादा के लिए लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं तो एक बात याद रखनी चाहिए कि एक ही तरह का कार्यक्रम सभी फार्मों और न ही उसी फार्म पर सभी मादाओं के लिए उपयुक्त नहीं होता है। डेरी संचालक को फार्म के ज्ञान और कौशल के अनुसार फार्म के कार्यक्रमों को समन्वित करना चाहिए। पूर्ववर्ती दुग्ध उत्पादन, पूर्ववर्ती ब्यांत में दूध दुहना बन्द करते समय शारीरिक हालात और पशुओं के स्वास्थ्य की पृष्ठभूमि आदि सभी को सफल दुग्ध-शुष्क मादाओं के प्रबन्धन में शामिल करना चाहिए।
पारगर्भित काल में प्रारंभिक शुष्क काल, व करीबी भोज्य काल होते हैं। इसमें करीबी भोज्य काल ऐसा समय होता है जब गर्भित पशु बच्चा जनने के बाद दुग्ध उत्पादन शुरू करता है। बच्चा जनने से एक सप्ताह पहले व दो सप्ताह बाद का काल बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है।
प्रारंभिक शुष्क काल (अर्ली ड्राई पीरियड और फार ओफ ड्राई पीरियड)
दुग्ध दोहन बन्द करने के बाद 4–5 हफ्ते के काल को प्रारंभिक शुष्क काल कहा जाता है। इस दौरान थनैला रोग की रोकथाम, खुराक में भोज्य अनुपूरकों व शारीरिक हालात के ऊपर ध्यान देना चाहिए।
थनैला रोग की रोकथाम
प्रारंभिक शुष्क काल में लेवटी में नये जीवाणुओं के प्रवेश को रोकने के लिए रोगप्रतिरोधक दवाईयाँ डालना जरूरी है। यह पूर्व ब्यांत के अस्पष्ट थनैला रोग के जीवाणुओं को समाप्त करने में भी सहायक होता है। इन दवाईयों का इस्तेमाल योग्य पशु चिकित्सक की सलाहानुसार करना चाहिए। अन्तिम दुग्ध दोहन के बाद चारों थनों में दीर्घकालिक असर करने वाली दवाई डालनी चाहिए। पर्यावरणीय जीवाणुओं से बचाव के लिए दवाई डालने से पहले थन के छिद्र को निस्संक्रामक (disinfectant) से साफ कर लेना चाहिए।
आहारीय अनुपूरक (फीड स्पलीमेंट्स)
गर्भावस्था के आखिरी चरण में मादा को विटामिन ए, डी, ई एवं सेलेनियम की बहुत आवश्यकता होती है। विटामिन ‘ए’ असामयिक जन्म व कमजोर बच्चे के जन्म एवं जेर रूकने की संभावना को कम करने में सहायक होता है। विटामिन डी, कैल्शियम चपापचय में सहायता करता है। रक्त में कैल्शियम के सही धाराप्रवाह से दुग्ध ज्वर की संभावना की कमी रहती है। शरीर को रोगाणुओं से बचाने के लिए रोगरोधी क्षमता उत्पन्न करने के लिए विटामिन ई व सेलेनियम बहुत सहायक होते हैं।
शारीरिक स्वास्थ्य आंकलन
दुग्ध काल के प्रारंभिक चरण में मादा को दुग्ध उत्पादन व प्रजनन के लिए उच्च ऊर्जा की आवश्यकता है। ब्यांत के पहले 60–70 दिनों में उसकी शुष्क पदार्थ के खाने में भी कमी होती है। इस अवधि के दौरान शरीर में संग्रहित वसा को ऊर्जा के रूप में उपयोग करती हैं। शारीरिक हालात आंकलन मादा द्वारा वसा के रूप में संग्रहित की गई ऊर्जा को दर्शाता है। दुग्ध उत्पादन की प्रारंभिक अवस्था में शरीर में सात किलोग्राम दुग्ध उत्पादन के लिए एक किलोग्राम संग्रहित वसा की आवश्यकता होती है। एक दुधारू गाय को शारीरिक आवश्यकता को पूरी करने के लिए शरीर से एक किलोग्राम संग्रहित वसा की प्रतिदिन आवश्यकता होती है। ब्याने के बाद यदि मादा को प्रारंभिक 14 दिन में प्रतिदिन एक किलोग्राम से ज्यादा वसा दी जाती है, तो यकृत वसापजनन (फैटी लीवर डिजनरेशन) अत्यधिक होता है जिससे किटोसिस होने की संभावना ज्यादा होती है, अतएवं गर्भधारण की अवधि बढ़ जाएगी। दुग्ध उत्पादन छोड़ने के समय शारीरिक अवस्था आंकलन 3.5 से 5.0 होना चाहिए। शुष्क काल में मादा का भार न तो आवश्यकता से ज्यादा कम होना चाहिए और न ही बढ़ना चाहिए। शुष्क मादा के राशन का मूल्यांकन करना चाहिए व दैनिक प्रोटीन व सुपाच्य पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी करने के लिए संतुलित होना चाहिए। प्रति दिन 700 किलोग्राम भार वाली शुष्क गाय को 1.35 किलोग्राम प्रोटीन व 6.3 किलोग्राम सुपाच्य पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।
करीबी शुष्क काल
ब्याने से 2–3 सप्ताह पहले और बाद के समय को करीबी शुष्क काल कहा जाता है। यह वह अवधि जब एक गर्भित मादा प्रसव क्रिया पूरी होने के बाद दुग्धोत्पादन करती है। इस अवधि के दौरान दुग्ध ज्वर व दुग्ध ग्रन्थि शोथ की रोकथाम एवं मातृत्व सुविधाओं की तरफ ध्यान देना चाहिए।
दुग्ध ज्वर एवं इसकी रोकथाम
सामान्यतय: दुग्ध ज्वर शरीर रक्त में कैल्शियम की कमी के कारण होता है। यदि प्रसवपूर्व गाभिन पशु को ज्यादा मात्रा में फास्फोरस, सोडियम व पोटाशियम खिलाया जाए तो इससे भी प्रसवकालीन दुग्ध होता है। यदि गाभिन पशु को प्रसवपूर्व सल्फर व क्लोराइड खिलाया जाए तो इससे दुग्ध ज्वर की संभावना कम होती है।
कैल्शियम
शरीर में कैल्शियम की आवश्यकता बच्चा जनने के बाद दुग्ध उत्पादन के साथ अचानक ही बढ़ जाती है। यदि शरीर रक्त में कैल्शियम की कमी होगी तो ब्याने के बाद दुग्ध ज्वर होने की संभावना प्रबल रहती है। इसके अतिरिक्त, ब्याने के दो हफ्ते तक उनकी भूख व माँस-पेशियों में शक्तिप्रदता (टोनिसिटी) भी कम होगी। अच्छी माँसपेशीय शक्तिप्रदता पाचन तन्त्र की कार्यप्रणाली को ठीक रखती है व गर्भाशय की प्रत्यावर्तना (इनवोलूशन) में सहायता करती है। अच्छी भूख, शुष्क पदार्थों के सेवन व दुग्ध उत्पादन में वृद्धि करती है और मादा में कीटोसिस को रोकने में भी सहायता करती है।
लगभग 1225 मिलीग्राम कैल्शियम प्रति किलोग्राम दूध में उत्सर्जित (excreted) होता है जिसकी आपूर्ति उसको दी गई खुराक व अस्थि संग्रहित स्त्रोत से होती है। प्रारंभिक दुग्ध काल में पशु की शुष्क पदार्थ खाने की क्षमता सीमित होती है। इसलिए शारीरिक आवश्यकतानुसार कैल्शियम की मात्रा को पूरी करना, दुधारू पशु के लिए आसान नहीं होता है। इसलिए अनुकूल स्वास्थ्य व दुग्ध उत्पादन के लिए दुधारू पशु शरीर के अस्थि संग्रह से कैल्शियम को पूरा करता है। 10 से 15 ग्राम अस्थि आरक्षित कैल्शियम उपलब्ध होता है जो रक्त कैल्शियम की 20 से 25 प्रतिशत आवश्यकता की आपूर्ति करता है। इस परिस्थिति को सुधरने में 14 दिन लग जाते हैं। इस परिस्थिति में सुधार लाने के लिए करीबी भोज्य काल के अन्तिम दो सप्ताह में 100 ग्राम से कम कैल्शियम (लगभग 70 ग्राम छोटी नस्ल के पशुओं को) और 45 गाम फासफोरस प्रतिदिन आहार में देना आवश्यक है। इस प्रकार की योजना से आरक्षित कैल्शियम की आपूर्ति उत्तेजित होती है (Horst et al. 1997, Cote 2007)।
पुष्टिवर्धक खाने में ऋणात्मक लवण (anionic salts) जैसे कि अमोनियम क्लोराईड या मैग्नीशियम सल्फेट मिलाने से भी अस्थि आरक्षित कैल्शियम की आपूर्ति उत्तेजित होती है। हालांकि, ऋणात्मक लवणों का स्वाद अरूचिकर होता है इसलिए उनको पुष्टिवर्धक खाने (concentrate feed) के साथ अच्छी तरह से मिला लेना चाहिए। ऋणात्मक लवण 3–4 हफ्ते से ज्यादा नहीं खिलाने चाहिए।
फास्फोरस
अधिक मात्रा में खिलाया गया फास्फोरस विटामिन डी की चपापचय क्रिया के साथ हस्तक्षेप कर सकता है जिससे दुग्ध ज्वर हो जाता है।
मैग्निशियम
यदि शुष्क काल में गर्भित मादा को अपर्याप्त मात्रा में मैग्निशियम उपलब्ध होता है तो यह भी दुग्ध ज्वर कारण होता है। जिन मादाओं में मैग्निशियम की कमी होती है तो उन मादाओं में अस्थि कैल्शियम उत्तेजना की कमी भी पायी जाती है। दुग्ध ज्वर की रोकथाम के लिए कैल्शियम, फास्फोरस व मैग्निशियम का सही संतुलन होना चाहिए। दुग्ध ज्वर की रोकथाम के लिए पशु आहार में 0.39 प्रतिशत कैल्शियम, 0.24 प्रतिशत फास्फोरस व 0.23 प्रतिशत मैग्निशियम होना चाहिए। स्वतन्त्र रूप से खिलाये गये खनिज लवण से इनका असंतुलन हो सकता है। खनिजों को हर रोज सही मात्रा में पशुओं को खिलाना चाहिए।
दुग्ध ग्रन्थि शोफ (Mammary Gland Oedema) की रोकथाम
दुग्ध ग्रन्थि शोफ उच्च दुधारू पशुओं में सामान्यतौर पर देखने को मिलता है। इसके आनुवंशिकी, पोषण प्रबन्धन, मोटापा, व्यायाम की कमी आदि पूर्वव्यवस्थित (Predisposing) कारण हैं। क्रियात्मक शोफ में आमतौर दर्द नहीं होता जब तक कि यह ज्यादा नहीं हो जाता है। जब यह काफी दिनों तक रहता है तो यह लगभग सारे ब्यांत में ही रहता है। यदि सूजन बहुत ज्यादा हो और यदि लेवटी को सहारा देने वाले तन्त्र को खतरा हो या दुग्ध उत्पादन में हस्तक्षेप करे तो इलाज तुरन्त शुरू कर देना चाहिए। पशु को ब्याने से पहले दुग्ध दोहन कर दुग्ध ग्रन्थि शोफ को ठीक करने में मदद मिलती है लेकिन प्रौढ़ पशुओं में आसन्नप्रसवा पक्षाघात होने का खतरा होता है। कई बार की गई मालिश से दुग्ध ग्रन्थि में रक्त संचार बढ़ने से शोफ में कमी आती है। मूत्रवर्धक शोफ को कम करने में ज्यादा मददगार होते हैं व कोर्टिकोस्टीरॉयड (corticosteroids) भी सहायक होते हैं।
दुग्ध ग्रन्थि शोफ को नियन्त्रित करने के लिए कोबाल्ट मिश्रित खनिज लवण दिये जा सकते हैं व नमक की मात्रा को कम किया जा सकता है।
मातृत्व सुविधाएं
संक्रामक रोग जैसे कि थनैला रोग, जेर का अटकना, गर्भाशय शोथ, पतली दस्त (काफ स्काउर्ज) को नियन्त्रित करने के लिए मातृत्व गृह साफ-सुथरा व आरामदायक होना चाहिए। तीसरे ब्यांत व प्रौढ़ पशुओं में दुग्ध ज्वर व प्रसव उपरान्त बीमारियों जैसे कि जेर का अटकना, गर्भाशय प्रत्यावर्तन, कम भूख, कीटोसिस इत्यादि समस्याओं से पीड़ित हो सकती हैं। ब्याने से दो हफ्ते पहले अलग बाड़े में रखकर उचित पोषण से इन चपापचयी समस्याओं को नियन्त्रित किया जा सकता है। यदि मातृत्व बाड़े में मादा को दुग्ध ज्वर होता भी है तो उसका ईलाज आराम से किया जा सकता है व इस बाड़े में उसको थनैला रोग व मांसपेशियों की क्षति होने की संभावना कम ही हो जाती है।
पारगर्भित (ट्रांजिशनिंग) मादा
पारगर्भित अवधि के दौरान मादा दुग्ध उत्पादन बन्द कर शुष्क अवस्था में व शुष्क अवस्था से दुग्ध उत्पादन में आती है। वह शारीरिक व चपापचयी तनाव में रहती है। पारगर्भित अवधि करीबी भोज्य काल व ब्याने के बाद कुल 21 दिन की अवधि होती है। पारगर्भित अवधि (खासतौर पर ब्याने के नजदीक) में अत्यधिक तनाव से मादा में निम्नलिखित समस्याएं देखने को मिलती हैं:
- स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं
- कम चारा खाना व कम दुग्ध उत्पादन
- प्रजनन क्षमता में कमी
- चपापचयी व पाचन संबंधित समस्याएं बढ़ना
- थनैला रोग की बढ़ती संभावना
दुग्ध दोहन छोड़ने के तुरन्त बाद व ब्याने की नजदीकी अवधि में थनैला रोग की संभावना प्रबल रहती है।
ब्याने के समय खानपान
ब्याने से 7–10 दिन पहले मादा का लगभग एक–तिहाई खानपान कम हो जाता है। ब्याने के बाद, यदि मादा को ठीक से खिलाया जाए और कोई स्वास्थ्य समस्या पैदा न हो तो खानपान की मात्रा तेजी से बढ़ती है। यदि ब्याने से पहले, मादा को न खिलाया जाए व उसकी उचित देखभाल न की जाए तो ब्याने के बाद उसके द्वारा खाए जाने वाले चारे की मात्रा में कम वृद्धि होगी। यदि मादा, पूरी मात्रा में आहार नहीं खा रही है तो उसके खानपान में उच्च पोषक तत्व मिलाने चाहिए, ताकि उसकी शारीरिक जरूरत पूरी हो सके।
शुष्क काल के पहले 50 दिनों के दौरान निम्न गुणवत्ता व उसके बाद उच्च गुणवत्ता का चारा खिलाने से ब्याने के बाद मादा पशु को रूमेन समन्वय करने में सहायता मिलती है जिससे ज्यादा से ज्यादा खुराक सेवन को बढ़ावा मिलता है। गर्भित मादा के करीबी भोज्य काल कार्यक्रम को शुष्क काल व दुग्ध उत्पादन के बीच का पारगमन काल समझना चाहिए। क्रुड प्रोटीन की मात्रा 14–15 प्रतिशत की जानी चाहिए और यह फीड शरीर भार का 0.5 से 1.0 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिए। फीड में मौजूद अनाज मादा के रूमेन को ब्याने के बाद दुग्ध उत्पादन काल में अनुकूल रखता है। यदि मादा ज्यादा मोटी (+4) होगी या फार्म पर कीटोसिस की पृष्ठभूमि है तो इन मादाओं को 6 से 12 ग्राम नियासिन (विटामिन बी6) खिलाना चाहिए। नियासिन कीटोसिस और फैटी लिवर की घटनाओं को कम करता है। पूरक आहार में वसा मिलाने की विधि से प्रसवोपरान्त भूख की समस्या को कम किया जा सकता है। शुष्क काल में भी गर्भित पशुओं के समूह (प्रारंभिक शुष्क काल व करीबी भोज्य काल) बनाकर अलग रखने से इस अवधि में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को नियन्त्रित किया जा सकता है।
शुष्क काल में पोषण तत्वों की आवश्यकता
पोषक तत्व |
प्रारंभिक शुष्क काल |
करीबी भोज्य काल |
अपक्व प्रोटीन (प्रतिशत) | 12–13 | 14–15 |
ऊर्जा (कैलोरी प्रति किलोग्राम सान्द्र मिश्रण) | 1300 | 1500 |
कैल्शियम (प्रतिशत) | 0.40 – 0.50 | 0.60 |
फास्फोरस (प्रतिशत) | 0.25 | 0.30 |
मैग्निशियम (प्रतिशत) | 0.16 | 0.20 |
पोटाशियम (प्रतिशत) | 0.65 | 0.65 |
सोडियम (प्रतिशत) | 0.10 | 0.10 |
क्लोरीन (प्रतिशत) | 0.20 | 0.20 |
सल्फर (प्रतिशत) | 0.16 | 0.16 |
कोबाल्ट (पीपीएम) | 0.2 | 0.2 |
कॉपर (पीपीएम) | 12–15 | 15–20 |
आयोडीन (पीपीएम) | 0.5 | 0.5 |
लोहा (पीपीएम) | 100 | 100 |
मैंगनिज (पीपीएम) | 45–60 | 45–60 |
सेलेनियम (पीपीएम) | 0.3 | 0.3 |
जिंक (पीपीएम) | 70–80 | 70–80 |
विटामिन ए (यूनिट प्रतिदिन) | 1 लाख | 1 लाख |
विटामिन डी (यूनिट प्रतिदिन) | 30000 | 30000 |
विटामिन ई (यूनिट प्रतिदिन) | 400 | 600–1000 |
प्रारंभिक शुष्क काल में खानपान
प्रारंभिक शुष्क काल में खानपान का लक्ष्य
- गर्भित मादा द्वारा अनुकूलतम रेशेदार आहार ग्रहण करना
- सीमित ऊर्जा का सेवन
- क्रुड प्रोटीन का सेवन कम करना
- खनिज–लवण व विटामिन की आवश्यकता पूरी करना
शुष्क काल में राशन में भरपूर व उचित मात्रा में पोषक तत्व होने चाहिए लेकिन अत्यधिक मात्रा में नहीं होने चाहिए। ज्यादा मात्रा में ऊर्जा या प्रोटीन नहीं खिलाने चाहिए। प्रारंभिक शुष्क काल में यदि ज्यादा मात्रा में ऊर्जा मादा को दी जाएगी तो वह ज्यादा भारी हो जाएगी जिससे ब्याने के समय चपापचयी रोग बढ़ने की संभावना ज्यादा होगी।
शुष्क काल में रेशेदार आहार की आवश्यकता
प्रारंभिक शुष्क काल में 1–2 प्रतिशत खुरदरा व सूखे के रूप में रेशेदार पदार्थ आहार में होना चाहिए। शुष्क काल के लिए सूखी घास (हे) या घास व दलहनी चारे का मिश्रण या अनुपूरकीय (स्पलीमेंटेड) मक्का या ज्वार की कड़बी आदर्श चारा है। मक्की का साइलेज शरीर भार का 2 प्रतिशत अधिकत्तम देना चाहिए जो ब्याने के बाद आहारीय सेवन व रूमेन की क्रिया को बढ़ाता है। सूक्ष्मता से कटा हुआ चारा नहीं खिलाना चाहिए। कटे हुए घास की लम्बाई आधा इंच होनी चाहिए। उचित लम्बाई की घास रूमेन उपकला व रूमेन की क्रियाओं को उचित रखता है।
दलहनी आहार पशु के शरीर भार का एक प्रतिशत से भी कम व कुल आहार (शुष्क पदार्थ आधारित) का 30 से 50 प्रतिशत होना चाहिए। ज्यादा मात्रा में खिलाया गया प्रोटीन, कैल्शियम व पोटाशियम दुग्ध ग्रन्थि शोफ, दुग्ध ज्वर, कीटोसिस व डाउनर काऊ सिंड्रोम (Downer cow syndrome) को बढ़ावा देने में सहायक होता है। उच्च गुणवत्ता का चारा भी प्रारंभिक शुष्क काल में मादा को न खिलाएं।
प्रारंभिक शुष्क काल में ऊर्जा की आवश्यकता
रेशेदार पदार्थ व ऊर्जा परस्पर संबंधित हैं जिसको शारीरिक परिस्थिति परिलक्षित करती है। पशु को पुनर्नवीयन (recondition) करने के लिए ब्यांत का आखिरी चरण बहुत अच्छा होता है। ब्यांत के आखिरी चरण में शरीर वसा परिवर्तन का 82 प्रतिशत होता है जबकि शुष्क काल में यह 59 प्रतिशत ही होता है। यदि दुधारू पशु को अच्छी शारीरिक अवस्था (3.5 से 4.0) में शुष्क किया जाता है तो शुष्क काल में ऊर्जा के सेवन को सीमित किया जा सकता है जिससे फैट काऊ सिंड्रोम की दर को कम किया जा सकता है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि शुष्क गाय को 1250 किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम खाये गये शुष्क आहार की ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसलिए स्पष्ट सी बात है कि शुष्क पशुओं को अन्य दुधारू पशुओं से अलग रखकर आहार खिलाना चाहिए। जिन फार्मों पर इकट्ठे ही दुधारू व शुष्क पशुओं को एक जैसा ही खिलाया जाता है तो उन फार्मों पर फैट काऊ सिंड्रोम, दुग्ध ज्वर व अन्य चपापचयी विकार अक्सर देखने को मिल जाते हैं।
अधिक शारीरिक अवस्था, दुग्ध दोहन के आखिरी 3-4 महीने में देखने को मिलती है जिसमें अनाज का सेवन कम नहीं किया जाता है। शुष्क काल में ज्यादा मात्रा में खिलाये गये अनाज, फैट काऊ सिंड्रोम रोग का कारक होते हैं। फैट काऊ सिंड्रोम रोग से संबंधित समस्याएं इस प्रकार हैं:
- चतुर्थ आमाशय विस्थापन (एबोमेजल डिस्प्लेस्मेंट)
- आहार न खाने की समस्या व आहार के सेवन में उतार-चढ़ाव
- 3. दुग्ध ज्वर
- कीटोसिस
- जेर का रूकना
- दुग्ध ग्रन्थि शोफ
- गर्भाशय शोथ
- थनैला रोग
- डाऊनर काऊ सिंड्रोम
स्पष्ट रूप से इन में से कोई भी अवस्था अधिकतम आहार सेवन व दुग्ध उत्पादन से संबंध नहीं रखती है। मादा को शुष्क करने का इष्टत्तम शारीरिक स्कोर 3.5 से 4.0 है, जो कि सारे शुष्क काल में ब्याने तक बरकरार होना चाहिए। शुष्क काल में ज्यादा मोटी मादाओं का भार यदि जल्दबाजी में किया जाता है तो फैटी लिवर की संभावना बढ़ जाती है। शुष्क काल के दौरान मादा का इष्टत्तम शारीरिक स्कोर 3.5–4.0, सही दुग्ध उत्पादन के लिए उपयुक्त होता है।
यदि भरपूर मात्रा में हरा चारा उपलब्ध है या शुष्क करने के दौरान मादा अच्छी शारीरिक अवस्था (शारीरिक अवस्था 4) में है तो अतिरिक्त अनाज खिलाने की आवश्यकता नहीं है। यदि हरा चारा भरपूर मात्रा में नहीं है या मादा की शारीरिक अवस्था अच्छी नहीं है या वातावरण ज्यादा ठण्डा है, तब 1.5 से 3.0 किलोग्राम अतिरिक्त अनाज खिलाएं लेकिन शारीरिक भार का 0.5 प्रतिशत से ज्यादा न खिलाएं। अनाज को चुनौतिपूर्ण खिलाने (चैलेंज फीडिंग) में भी शारीरिक भार का 1.0 प्रतिशत से ज्यादा न खिलाएं। ज्यादा खिलाने से चपापचयी, भूख कम लगना आदि समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
प्रारंभिक शुष्क काल में प्रोटीन की आवश्यकता
प्रारंभिक शुष्क काल में 12–13 प्रतिशत (शुष्क पदार्थ आधारित) प्रोटीन की आवश्यकता होती है। यदि दलहनी चारा कुल आहार का एक-तिहाई या इससे ज्यादा पशु को खिलाया जा रहा है तो अलग से पूरक प्रोटीन की आवश्यकता बहुत कम होती है। यदि आहार की गुणवत्ता कम है तो 14-15 प्रतिशत अनाज मिश्रित प्रोटीन दिया जा सकता है। यदि आहार में भरपूर मात्रा में प्रोटीन है और फिर भी 14-15 प्रतिशत प्रोटीन अतिरिक्त रूप में पशु को दिया जाता है तब डाऊनर सिंड्रोम, गर्भपात, दुग्ध ज्वर, चतुर्थ आमाशय विस्थापन (एबोमेजल डिस्प्लेस्मेंट) व अधिक मृत्युदर होने की संभावना होती है। प्रोटीन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उपयुक्त अनाज मिश्रण की गुणवत्ता की जाँच भी करवानी चाहिए। प्रोटीन की कमी से बचे जिससे पशु की खाने व पोष्क तत्वों में कमी हो जाती है।
प्रारंभिक शुष्क काल में खनिजों की आवश्यकता
प्रारंभिक शुष्क काल में खनिजों को खिलाने को प्राथमिक लक्ष्य अत्यधिक कैल्शियम स्तर से बचना है और कैल्शियम व फास्फोरस के अनुपात को 2.5 : 1.0 व 1.5 : 1.0 के बीच रखना होता है जिससे कि पशु को दुग्ध ज्वर से बचाया जा सके। एक दुधारू गाय के लिए 0.8 प्रतिशत कैल्शियम (शुष्क पदार्थ आधारित) जबकि शुष्क गाय के लिए यह 0.39 प्रतिशत ही होती है। यदि फार्म पर दुग्ध ज्वार की ज्यादा समस्या है तो शुष्क काल में कैल्शियम की मात्रा 0.20–0.30 प्रतिशत (शुष्क पदार्थ आधारित) होनी चाहिए। शरीर में कैल्शियम के स्तर को सही रखने के लिए आहार में कुल शुष्क पदार्थ का आधे से ज्यादा दलहनी आहार नहीं होना चाहिए। यदि ज्यादा मात्रा में दलहनी आहार दिया जाता है तो प्रभावी रूप से दुग्ध ज्वर को कम करने के लिए शुष्क मादाओं को 100–125 ग्राम मोनोसोडियम फास्फेट प्रतिदिन खिलाना चाहिए। यदि आहार में 2 किलोग्राम से कम सूखा दलहनी चारा है तो शुष्क मादा डाईकैल्शियम फास्फेट या ऐसा अनुपूरक खिलाया जाना चाहिए जिसमें कैल्शियम व फास्फोरस का अनुपात 2:1 हो। एक ऐसा मिश्रण पशु को खिलाया जा सकता हैं जिसमें एक–तिहाई सूक्ष्म खनिज व दो–तिहाई मोनोसोडियम फास्फेट हो। नमक पशु को लगातार 40 से 55 ग्राम प्रतिदिन खिलाना चाहिए। यदि दुग्ध ग्रन्थि शोफ एक समस्या है तो नमक के सेवन को सीमित (खासतौर पर ब्याने से 7–10 दिन पहले) कर देना चाहिए।
हालांकि दुग्ध ग्रन्थि शोफ का सही कारण अभी तक मालूम नहीं है फिर भी ज्यादा मात्रा में सोडियम, प्रोटीन की कमी, रक्त अल्पता, कम रक्त संचारक्ता आदि पूर्ववर्ती कारण हो सकते हैं। दुग्ध ग्रन्थि शोफ की सही रोकथाम के लिए नमक के सेवन से पशु को बचाएं एवं उसको कुछ हल्का-फुल्का व्यायाम करवाना चाहिए। यदि दुग्ध ग्रन्थि शोफ हो जाता है तो नमक को नियन्त्रित करें व उसको प्रोबायोटिक खिलाने से भी नियन्त्रित किया जा सकता है।
यदि गर्भित पशु के आहार में आयोडीन की मात्रा कम होगी तो बाल पशु को गॉयटर (Goiter) होने की संभावना होगी। यदि गर्भित गाय में कोबाल्ट की कमी होगी तो बच्चे को भूख कम लगेगी जिससे उसका विकास धीमा होगा। जिन गायों में सेलेनियम की कमी होगी तो मृत या कमजोर बच्चे (White muscle disease) होने की संभावना होगी व गायों में जेर अटकने की भी प्रबल संभावना रहेगी। जेर की समस्या को कम करने के लिए ब्याने से 21 दिन पहले सेलेनियम व विटामिन का इंजेक्शन लगाया जा सकता है।
ऋणात्मक (anionic) लवणों (अमोनियम क्लोराईड, अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट व मैग्निशियम सल्फेट( के उपयोग से दुग्ध ज्वर की संभावना को कम किया जा सकता है। ऋणात्मक लवण आहारीय धनात्मक-ऋणात्मक (cation-anion) संतुलन में प्रतिस्थापन करते हैं या अधिक नकारात्मकता प्रदान करते हैं। पोटाशियम व सोडियम, धनात्मक धनायन यौगिक हैं। जिस आहार में ऋणात्मक लवण होंगे तो
- रक्त व मूत्र की अम्लीयता घटती है।
- कैल्शियम अवशोषण व संघटन बढ़ाता है।
- रक्त में कैल्शियम का स्तर बढ़ता है।
- दुग्ध ज्वर की घटना कम होती है।
- माँसपेशियों में ताव बढ़ता है।
- ब्याने के बाद आहार खाने की मात्रा बढ़ती है।
- जेर अटकने की संभावना कम होती है।
- चतुर्थ आमाशय विस्थापन (एबोमेजल डिस्प्लेस्मेंट) की संभावना कम होती है।
- ब्याने में दिक्कत कम होती है।
- दुग्ध ग्रन्थि शोफ की संभावना कम होती है।
- बेहत्तर दुग्ध उत्पादन।
- ब्याने के बाद बेहत्तर गर्भाधान
ऋणात्मक लवणों का सबसे ज्यादा फायदा तब होता है जब पशु को दलहनी चारा/आहार खिलाया जाता है या जब बार-बार दुग्ध ज्वर की समस्या पशुओं को आती है। ध्यान रहे कि आहार में कम कैल्शियम व पोटाशियम के स्तर से दुग्ध ज्वर प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है। यदि फीड में ऋणात्मक लवणों का इस्तेमाल किया जा जाता है तो दुग्ध ज्वर से बचने के लिए आहारीय कैल्शियम की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ऋणात्मक लवणों का स्वाद कड़वा होता है इसलिए इनको अन्य आहारीय सामग्री के साथ मिलाना चाहिए। इनके अत्यधिक सेवन से आहार खाने की मात्रा कम होती है।
चपापचयी समस्याओं संबंधित खनिज लवण | |
समस्या | संबंधित खनिज लवण |
कीटोसिस | कोबाल्ट |
दुग्ध ज्वर | कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्निशियम, सोडियम, पोटाशियम, क्लोरीन, सल्फर |
जेर का अटकना | कैल्शियम, सेलेनियम |
चतुर्थ आमाशय विस्थापन | कैल्शियम, मैग्निशियम |
शुष्क काल में विटामिनों की आवश्यकता
शुष्क काल में गर्भित मादा के लिए विटामिन ए डी व ई बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यदि भरपूर मात्रा में हरा उपलब्ध है तो पूरक विटामिन ए की कम जरूरत होती है। यदि चारा मौसम के कारण खराब हो जाता है या भण्डारण के दौरान गर्म हो जाता है तब पूरक विटामिन ए की आवश्यकता होती है। मक्का व ज्वार की कड़बी व पराली में विटामिन ए की मात्रा न के बराबर होती है। विटामिन ए की कमी से गर्भित मादा का गर्भपात हो सकता है या पैदा बच्चे कमजोर व बीमार होते हैं। ताजी कटी हुई चारे की फसल में विटामिन डी कम होता है। गर्भित एवं शुष्क गाय को इस प्रकार विटामिन दिये जा सकते हैं (NRC 2001)।
विटामिन ए: 110 आई.यू. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार प्रतिदिन।
विटामिन डी: 30 आई.यू. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार प्रतिदिन।
विटामिन ई: 1 आई.यू. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार प्रतिदिन।
शुष्क काल प्रबन्धन का प्रसवोप्रान्त विकारों पर प्रभाव
शुष्क काल प्रबन्धन |
ब्याने के बाद प्रभाव |
कम आहारीय कैल्शियम | जेर अटकने, गर्भाशय शोथ, चतुर्थ आमाशय विस्थापन, दुग्ध ज्वर की संभावना में कमी |
अतिरिक्त विटामिन डी | कठिन प्रसव, गर्भाशय शोथ, चतुर्थ आमाशय विस्थापन में कमी। |
दुधारू मादा के साथ बांधना | दुग्ध ज्वर व चतुर्थ आमाशय विस्थापन में बढ़ोतरी। |
मादा का शारीरिक भार बढ़ाना | कीटोसिस की संभावना का बढ़ना |
स्त्रोत: Roche 2006 |
प्रसवकालीन व प्रसवोप्रान्त विकारों का आपस में तालमेल
दुग्ध ज्वर |
कठिन प्रसव | जेर अटकना | गर्भाशय शोथ | चतुर्थ आमाशय विस्थापन |
कीटोसिस |
|
✓ | कठिन प्रसव | |||||
✓ | ✓ | जेर अटकना | ||||
✓ | ✓ | ✓ | ✓ | ✓ | गर्भाशय शोथ | |
✓ | ✓ | ✓ | ✓ | चतुर्थ आमाशय विस्थापन | ||
✓ | ✓ | ✓ | ✓ | ✓ | थनैला रोग | |
✓ | ✓ | ✓ | ✓ | ✓ | ✓ | कम गर्भाधारण दर |
(Source: Correa et al. 1993) |
किसी गर्भवती मादा के जीवनकाल में दुग्धोत्पादन से शुष्क काल में प्रवेश के बाद का समय बहुत नाजुक होता है। इसी दौरान उसे कई प्रकार की व्याधियों का सामना करना पड़ता है जिस कारण पशुपालकों को नुकसान भी झेलना पड़ता है। अत: पशुपालकों को लाभकारी रूप से अपनी शुष्क गर्भित मादा पशुओं का प्रबंधन करने के लिए, खास रणनीति, आवास, आहार, व्यवहार, और खासतौर से ओसर गर्भित मादाओं के उचित प्रबंधन पर विचार करना चाहिए क्योंकि वे पहली बार दुग्धोत्पादन अवस्था में प्रवेश करती हैं। यदि पशुपालक इस पशुओं की शुष्क एवं पारगर्भित अवधि में पोषण एवं प्रबंधन संबंधी दिशानिर्देशों का पालन करते हैं, और अपनी शुष्क मादाओं को ठीक से रखते हैं, तो वे अपने आगामी दुग्धोत्पादन में इष्टतम उत्पादन लेकर लाभान्वित होते हैं। याद रखें, शुष्क अवधि पहले दुग्धकाल का अंत और अगले की शुरुआत, दोनों ही है।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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