बकरी पालन एवं पर्यावरण संरक्षण

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बकरीपालन के बारे में बहुत से लोगों में अनेक भ्रांतियां एवं पूर्वाग्रह रहे हैं कि बकरियां फसलों एवं पौधों को नष्ट करती है और उनके कारण वनस्पतियों का ह्रास होता है किन्तु यह तथ्यों से सर्वथा विपरीत है। वैज्ञानिक तरीकों तथा योजनावद्ध रीतियों को न अपनाने के कारण भूमि विकास, क्षरण के रोकथाम एवं भूमि प्रबंधन के असफल हो जाने पर अपनी असफलताओं को छिपाने के लिये बकरी पालन को जिम्मेदार बताया गया है। वस्तुतः हमारे देश में बकरियां आमतौर पर व्यर्थ बंजर भूमि, खेती अयोग्य परती भूमि तथा अन्य बेकार पडी चरनोई पर चरती एवं पनपती है। अधिकाँश क्षेत्रों में अन्धाधुंध वृक्षों की कटाई एवं वनोन्मूलन ही पर्याप्त असंतुलन का कारण है किन्तु इसके लिये बकरीपालन को बलि का बकरा बना दिया गया।

बकरीपालन के विभिन्न पहलू

भूमि संरक्षण एवं प्रबंधन में बकरियों की भूमिका में दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रखें जाते है।

  1. बकरीपालन के कारण चारागाह का प्रसार एवं फैलाव में कमी एवं विनाश, वनस्पतियों को बकरियों के द्वारा हानि और उसके कारण भूमिक्षरण तथा बकरियों के खिलाने के लिये वृक्षों की कटाई एवं उससे होने वाली हानि।
  2. दूसरी तरफ बकरी पालन में मानव के भोज्य पदार्थो में जैविक प्रोटीन की पूर्ति तथा इनके मलमूत्र से प्राप्त खाद से भूमि की उर्वरता वृद्धि में सहायता एवं चराई करते हुये बकरियों द्वारा वनस्पतियों के बीजों का परिक्षेपण कार्यिक प्रबंधन के द्वारा वनस्पतियों के उत्पादन के फैलाव एवं प्रसार में सहायता प्रदान करना। बकरी से जुडे हुये प्रथम दृष्टिकोण के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि बकरियों से जुडी अधिकाँश पर्यावरणीय समस्यायें मानव निर्मित है जिनका निराकरण मानव द्वारा उन्नति कृषि तकनीकियों के अपनाने से, योजनाबद्ध समन्वित पशुपालन एवं कृषि कार्य अपनाने से इन समस्याओं का अपने आप निराकरण हो जायेगा। पशु और पौधे आपस में एक दूसरे के सहायक हो कर देश के आर्थिक लाभ में महती भूमिका निभा सकेंगे।

वास्तव में भू-क्षरण तथा मरूस्थल फैलाव में बकरी पालन को उत्तरदायी ठहराने का मुख्य कारण यह है कि अनाच्छादित क्षेत्रों की चारा की अनुपलब्धता हो जाने के कारण जब बडे पशु जैसे गाय, भैंस इन क्षेत्रों में पलायन कर जाते है तब भी बकरयां उन क्षेत्रों में बनी रहकर जो कुछ चारा या झाडियां उपलब्ध होती है उन पर अपना जीवन-यापन कर लेती है और इस कारण बकरियों पर वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाकर भूमिक्षरण के लिये उत्तरदायी मान लिया जाता है जो कि न्यायसंगत एवं तर्क संगत नहीं है।

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किंतु दूसरे विपरीत इसका दूसरा पहलू भी है। बकरियां लवणीय क्षेत्रों में उपलब्ध छोटे-छोटे चारों को खाकर लवणीय भूमि का पुनरूद्धार ही करती है क्योंकि इन जगहों पर चरते समय वनस्पतियों के उगने के लिये अपने मलमूत्र के फैलाव के कारण धरती की उर्वराषक्ति बढाती है साथ में बीजों का परिक्षेपण कर उनके प्रस्फुटन में सहायता करती हैं। साथ में जो झाडियां या चारा गाय भैंस के लिये अनुपयोगी है या उनके द्वारा चराई कर छोड दिये जाते है उनको ही खाकर बकरिया अपना भोज्य पदार्थ प्राप्ति करती है।

इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि पशुओं की विभिन्न प्रजातियांॅ एवं नस्लों के लिये एक ही तरह की न तो जलवायु उपयुक्त है और न तो सभी भूगोलिक परिस्थितियां सभी प्रजातियों के संवर्धन एवं उन्नयन के लिये अनुकूल वातावरण निर्मित करती है। ऐसे में घटिया एवं अनुपजाउभूमि तथा कटीली झाडियांॅ एवं अन्य छोटे घास वाले परती भूमि एवं चारागाह बकरीपालन के लिए सर्वथा अनुकूल एवं उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त अन्य बडे पशुओं का पालन एवं पोषण दुष्कर कार्य है और इन परिस्थितियों में बकरीपालन ही आजीविका एवं आय का स्त्रोत माना जाता है।

वानस्पतिक पुरूत्पादन में बकरीपालन का योगदान

बकरियां घास, झाडियों एवं पौधों के बीज अधिक भूमि में फैलाने में प्रभावकारी मानी जाती है। जब बकरियां पेड पौधों और फलियां खाती है तो उनके साथ इनके बीज भी उनके पेट में चले जाते है। जो बाद उनके मेंगनी के साथ बाहर आते है और जगह जगह फैल जाते है जिससे उस धरती की उर्वराषक्ति भी बढती है और ये बीज अनुकूल परिस्थितियॉ मिलने में आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बकरियां झाडियां एवं पौधों के डालियों से बिना उनको नुकसान पहुचाये उनकी कोमल कोपलें कुतर लेती है जिससे पौधों के शाखाओं का और अधिक फैलाव और विकास हो जाता है। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर किसान प्रारंभिक अवस्था में चने के पौधों के तल-शाखन बढाने के लिये बकरियों के छोटे बच्चों को चरने हेतु छोड देते है जिससे उनकी शाखाओं में अधिक फैलाव एवं वृद्धि हो जाती है जिससे किसानों को आर्थिक लाभ अधिक होता है।

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यह वास्तविकता से कोसों दूर है कि बकरियां अन्य पशुओं की तुलना में झाडियों और पौधों को उनकी छोटी-छोटी कोमल कोपलों को खाकर अधिक नुकसान करती है किन्तु दूसरी ओर शोधों द्वारा यह पाया गया है कि विभिन्न परिस्थितिक परिवेषों को ध्यान दिया जाय तो बकरियों का निष्पादन भेडों से बेहतर था। बेर की झाडियों की बहुलता वाले चारागाहों में बकरियों के चरने के कारण इन झाड़ियों का पुनरूत्पादन 143 प्रतिशत अधिक हुआ।

जंगलों का विनाश एवं मरूस्थलीकरण एक पर्यावरणीय समस्या-

यो तो अधिक मात्रा में जंगलों की कटाई से मरूस्थली कारण का अधिक फैलाव और प्रसार हुआ है साथ में वर्षा पर भी इसका प्रभाव पडा है। मरूस्थलीकरण के फैलाव के पीछे मानव निर्मित पर्यावरणीय समस्यायें अधिक उत्तरदायी है। हमारे वनरोपण एवं भूमि विकास की अनेक समस्यायें है। स्थानीय लोगों के साथ इन परियोजनाओं को लागू करते समय उसका कोई तालमेल नहीं है। जंगलों से सटे हुये गाँवों में रहने वाले जनजातियां, गरीबी रेखा से नीचे रहवासी तथा उनके द्वारा पालतू जानवर विशेषकर बकरीपालन को लेकर कोई भी समन्वित एवं एकीकृत विकास परियोजनाएं नहीं कार्यान्वित होती है। इससे धरती, पशु, मानव एवं पौधें सभी का नुकसान हुआ है और पर्यावरणीय असंतुलन भी हो रहा है। अतएव पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के लिये सभी की समस्याओं को ध्यान में रखकर एकीकृत समन्वित पहल की आवश्यकता है। इस तरह किसी भी ग्रामीण विकास कार्यक्रम में चारावानिकी को एक अनिवार्य इकाई के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।

बकरी पालन एवं पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरण संरक्षण के लिये आवश्यक है कि बकरी पालन की नवीनतम वैज्ञानिक विधियों से बकरी पालकों को अवगत कराया जाये साथ में बकरी पालन से होने वाले लाभ हानि का भी उन्हें ब्यौरा दिया जाये। साथ में यह भी मानी बात है कि बकरियों द्वारा भूमि साधनों का उचित उपयोग और उनसे प्राप्त भोज्य पदार्थो की जानकारी तथा उनके उत्पादों से प्राप्त आर्थिक लाभों का लोगों को समुचित ज्ञान नहीं है। अतएव अब समय आ गया है कि ग्रामीण विकास से जुडे हर व्यक्ति को बकरीपालन के विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय पहलुओं की जानकारी दी जाये और उनसे उत्पन्न होने वाली समस्याओं के निदान और निराकरण की भी जानकारी हो, जिसके लाभ का स्त्रोत बने प्रत्युत इनके परिवार वालों को पौष्टिक आहार प्रदान करे साथ में पर्यावरणीय संरक्षण की एक नई दिशा प्रदान करें।

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