Artificial Insemination (AI) कृत्रिम गर्भाधान के लाभ

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Artificial Insemination (AI) ‘कृत्रिम गर्भाधान’ का तात्पर्य मादा पशु को स्वाभाविक रूप से गर्भित करने के स्थान पर कृत्रिम विधि से गर्भित कराया जाना है। स्वच्छ और सुरक्षित रूप से कृत्रिम विधि से एकत्र नर पशु के वीर्य को इस प्रक्रिया में जननेंद्रिय अथवा प्रजनन मार्ग में प्रवेश कराकर मादा पशु को गर्भित किया जाता है। कृत्रिम गर्भाधान से जो बच्चे पैदा होते हैं वे प्राकृतिक ढंग से पैदा हुए बच्चों के समान ही बलवान्‌ और हृष्टपुष्ट होते हैं।

वीर्य उत्पादन हेतु सांडो का चुनाव सांड की माता के दुग्ध उत्पादन तथा उस सांड से उत्पन्न बछिया के दुग्ध उत्पादन को देखकर किया  जाता है। चुने हुए अच्छे नस्ल के सांड से कृत्रिम विधि द्वारा वीर्य एकत्रित किया जाता है।

कृत्रिम विधि से निकाले गए वीर्य को (dilute) कर सैकड़ों मादाओं को गाभिन किया जा सकता है। एकत्रित वीर्य को – 196 डिग्री सेंटीग्रेड पर तरल nitrogen में वर्षो तक सुरक्षित भी रखा जा सकता है। भारत में दुग्ध उत्पादन बड़ाने में कृत्रिम गर्भाधान का खासा योगदान रहा है।

इतिहास

  • छह सौ वर्ष पूर्व 1322 ई. में अरब के एक सरदार ने अपने शत्रु सरदार के घोड़े का वीर्य निकालकर अपनी एक बहुमूल्य घोड़ी को कृत्रिम रूप से गर्भित करने में सफलता प्राप्त की थी।
  • कृत्रिम वीर्य सेचन पर प्रथम वैज्ञानिक अन्वेषण 1780 ई. में इटली के शरीरक्रिया के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ऐबट स्पलान जानी ने एक कुतिया के ऊपर किया। इसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली।
  • यूरोप में प्लानिस ने 1876 ई. में कृत्रिम रूप से एक कुतिया को गर्भित किया था।
  • अश्वों का कृत्रिम प्रजनन पहले पहल 1890 ई. में आरंभ हुआ।
  • अमरीका में 1896 ई. में 19 कुतियों की योनि में वीर्यसेचन किया गया, जिनमें से 15 गर्भित हुई और बच्चे दिए।
  • रूस में आइबनहाफ से 1909 ई. में कृत्रिम प्रजनन की एक प्रयोगशाला स्थापित की और १९१२ ई. में ३९ घोड़ियों की योनि में कृत्रिम वीर्यसेचन किया।
  • भारत में कृत्रिम गर्भाधान 1942 ई. में भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्था (आइजटनगर) में आरंभ हुआ। तत्पश्चात्‌ इसके अनेक केंद्र बंगाल, बिहार, पंजाब, मद्रास, मध्यप्रदेश, बंबई और उत्तर प्रदेश में खुले। इस समय भारत में सहस्रों कृत्रिम वीर्यसेचन केंद्र हैं और इनकी संख्या प्रति वर्ष बढ़ती जा रहीं है। इस प्रयोग से अब हर साल लाखों पशु गर्भित किए जाते हैं।
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प्रकृति के अनुसार हर मादा पशु निश्चित समय पर गरम होती रहती है और यह समय हर पशु के लिए अलग-अलग होता है, जैसे गाय, भैंस और घोड़ी 21 वें दिन गरम होती हैं। गरम रहने का समय भी भिन्न-भिन्न पशुओं में भिन्न होता है। गाय और भैंस में यह केवल 12 से 18 घंटे तक रहता है। गरम अवस्था समाप्त हो जाने पर, स्वभाविक अथवा कृत्रिम रूप से वीर्य प्रवेश कराने पर गर्भ नहीं ठहरता। जब पशु में गर्भ ठहर जाता है तब 21 वें दिन गरम पड़ना बंद हो जाता है।

कृत्रिम गर्भाधान की विधि  हेतु गहन हिम्कृत वीर्य (Frozen Semen) का प्रयोग किया जाता है।  कृत्रिम गर्भाधान हेतु प्रशिक्षित व्यक्ति हिम्कृत वीर्य को पुन: द्रव अवथा में लाकर कृत्रिम गर्भाधान गन की सहायता से गर्मायी हुई मादा की प्रजनन नली में डालता है।

कृत्रिम गर्भाधान के लाभ

प्राकृतिक गर्भाधान की तुलना में कृत्रिम गर्भाधान के अनेक लाभ हैं जिनमें प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

  • कृत्रिम गर्भाधान तकनीक द्वारा श्रेष्ठ गुणों वाले साँड़ को अधिक से अधिक प्रयोग किया जा सकता है। प्राकृतिक विधि में एक साँड़ द्वारा एक वर्ष में 50-60 गाय या भैंसों को गर्भित किया जा सकता है जबकि कृत्रिम गर्भाधान विधि द्वारा एक साँड़ के वीर्य से एक वर्ष में हजारों की संख्या में गायों या भैंसों को गर्भित किया जा सकता है।
  • इस विधि में धन एवं श्रम की बचत होती है क्योंकि पशु पालक को साँड़ पालने की आवश्यकता नहीं होती।
  • कृत्रिम गर्भाधान में बहुत दूर यहाँ तक कि विदेशों में रखे उत्तम नस्ल व गुणों वाले साँड़ के वीर्य को भी गाय व भैंसों में प्रयोग करके लाभ उठाया जासकता है।
  • अत्योत्तम साँड़ के वीर्य को उसकी मृत्यु के बाद भी प्रयोग किया जा सकता है।
  • इस विधि में उत्तम गुणों वाले बूढ़े या घायल साँड़ का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है।
  • कृत्रिम गर्भाधान में साँड़ के आकार या भार का मादा के गर्भाधान के समय कोई फर्क नहीं पड़ता।
  • इस विधि में विकलांग गायों/भैसों का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है।
  • कृत्रिम गर्भाधान विधि में नर से मादा तथा मादा से नर में फैलने वाले संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है।
  • इस विधि में सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है जिससे मादा की प्रजनन की बीमारियों में काफी हद तक कमी आजाती है तथा गर्भ धारण करने की दर भी बढ़ जाती है।
  • इस विधि में पशु का प्रजनन रिकार्ड रखने में भी आसानी होती है।
  • कृत्रिम गर्भाधान हेतु लिंग वर्गीकृत वीर्य (Sex Sorted Semen) का उपयोग कर उसको गाय व भैंसों में कृत्रिम गर्भाधान हेतु  उपयोग कर अधिक से अधिक मादा पशुओं को पैदा किया जा सकता है, और नर पशुओं की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है व दुग्ध उत्पादन में वृद्धि से किसानो की आय में वृद्धि की जा सकती है।
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कृत्रिम गर्भाधान विधि की सीमायें

कृत्रिम गर्भाधान के अनेक लाभ होने के बावजूद इस विधि की अपनी कुछ सीमायें हैं जो मुख्यतः निम्न प्रकार हैं।

  • कृत्रिम गर्भाधान के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति अथवा पशु चिकित्सक की आवश्यकता होती है तथा कृत्रिम गर्भाधान तक्नीशियन को मादा पशु प्रजनन अंगों की जानकारी होना आवश्यक है।
  • इस विधि में विशेष यन्त्रों की आवश्यकता होती है।
  • इस विधि में असावधानी वरतने तथा सफाई का विशेष ध्यान न रखने से गर्भ धारण की दर में कमी आ जाती है।
  • इस विधि में यदि पूर्ण सावधानी न वरती जाये तो दूरवर्ती क्षेत्रों अथवा विदेशों से वीर्य के साथ कई संक्रामक बीमारियों के आने का भी भय रहता है।
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