पशुपालन से ज्यादा से ज्यादा लाभ प्राप्त करने हेतु पशुओं का उचित समय पर गाभिन होना अत्यन्त आवश्यक है। पशुपालकों को इसी बात का सर्वाधिक ध्यान रखना चाहिए। जनी अथवा व्यायी हुई गाय/भैंस खरीदने की अपेक्षा घर में तैयार हुयी गाय/भैंस से ही बछड़ी या पड़िया तैयार करना ज्यादा लाभदायक रहता है क्योंकि खरीदी गयी गाय/भैंस के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हमें पता नही होती है जैसे कि दुग्ध उत्पादन क्षमता, पुनः गर्भित होने की क्षमता, थन की बीमारी तथा चारा हजम करने की ताकत इत्यादि।
यदि गाय/भैंस किसी भी कारण से अस्वस्थ्य होती है तो इसका असर उसके प्रजनन क्षमता या प्रजनन संस्था पर सबसे पहले पड़ता है। पशुओं को समय पर गर्भित करने हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान रखना आवश्यक है-
गाभिन रहने का प्रमाण
यह ध्यान रखना आवश्यक है के 10-15 प्रतिशत गाय/भैंस प्रथम रेतन में गर्भित नही होती है। यह सामान्य बात है किन्तु सारे पशु 1-3 रेतन में गर्भितत हो जाने चाहिए। अन्यथा की स्थिति में योग्य पशु चिकित्सक से सलाह लेकर अथवा चिकित्सा कराकर पशु को गर्भित किया जा सकता है।
पशुआहार: यद्यपि गाय/भैस की दुग्ध उत्पादन क्षमता उसका अनुवांशिक गुण होता है किन्तु यदि अच्छी दुग्ध उत्पादन क्षमता वाले गाय/भैंस को यदि उचित मात्रा में उत्तम गुणवत्तावाला आहार न मिले तो रखरखाव बढ़िया होने के बावजूद अच्छा दुग्ध उत्पादन प्राप्त नही किया जा सकता है। अच्छा गुग्ध उत्पादन प्राप्त करने हेतु गाय/भैंस अच्छी अनुवांशिक गुण के अतिरिक्त उनके लिए उचित आहार व्यवस्था, अयन/थन की देखभाल, बैठने की व्यवस्था, प्रसव के 1-2 माह पहले तथा बाद तक नियमित समय-पर स्वास्थ्य परीक्षण आवश्यक है।
दूध देने वाले गाय/भैंस का दुहान प्रसव के 1.5-2 माह पूर्व बंद कर देना चाहिए। उस दौरान उसका थन साफ सुथरा रखना चाहिए। उस्से अच्छी गुणवत्ता का खीस तैयार होता है तथा पशु की बच्चेदानी भी अच्छी रहती है। इससे गाय/भैंस प्रसव के 1-1.5 महीने में फिर ऋतुकाल में आती है और गाभिन होने के लिए प्रजनन अंग कार्यरत होती है। किन्तु प्रसव के 60 दिन पूर्व तक पशुओं को गर्भितनही कराना चाहिए। प्रसव से 1-2 महीने पहले अच्छी गुणवत्ता का दाना देना चाहिए। गाय/भैंस के बच्चा देने के बाद उसके दुग्ध उत्पादन का लगभग 25 प्रतिशत दाना देना चाहिए। इस समय भैंस/गाय को चारा कम दे ंतो भी चल सकता है किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि पशु का आहार संतुलित हो। सामान्यतः गाय/भैंस को प्रतिदिन 50-60 ग्राम खनिज मिश्रण/मिनरल मिक्चर की आवश्यकता होती है। यदि इस समय हरा चारा उपलब्ध नही हो तो विटामिन ए, डी-3 का टीका लगवाना चाहिए। सोयाबीन का उपयोग किया जा सकता है। सोयाबीन में उच्च गुणवत्ता के आमीनोएसिड उपलब्ध होते हैं।
गाय/भैंस को उचित मात्रा में आहार देने से एवं उचित देखभाल करने से प्रसव बाद होने वाले कई बीमारियों जैसे-मिल्क फिवर, एसिडोसिस, फिनोसिस, बच्चेदानी का बाहर आना, पेशाब में खून आना इत्यादि से बचा जा सकता है।
पशुआहार व्यवस्था में छोटे बछड़े की देखभाल बहुत महत्वपूर्ण होती है। क्योंकि आज भी बिछया ही कल की गाय है। बछड़े की आहार व्यवस्था में प्रथम तीन-छः महीने का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस समय उचित मात्रा में दूध पिलाना एवं धीरे-धीरे दूध कम करते-करते बछड़ों के लिए बनाया हुआ दाना दिया जाय तो उनकी बढ़ोत्तरी अच्छी होती है। यह ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि बाजार में उपलब्ध पशुआहार कभी-कभी बछड़ों को नही देना चाहिए क्योंकि इसमें यूरिया की मात्रा होती है जो छोटे बछड़ों (छः मास) के लिए विषैला होता है।
बछड़ों में मृत्युदर कम करने के लिए जन्म के 1-2 घंटें में ज्यादा से ज्यादा खीस पिलाना चाहिए। स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। बड़ों को पर्याप्त मात्रा में व्यायाम मिल जायें इसके लिए उनको 2 1/2 -2 1/2 घंटे तक खुला रखना चाहिए।
बछड़ों को तीन मास का हो जाने पर खनिज मिश्रण लगभग 5 ग्राम प्रतिदिन देना चाहिए। बच्चा जनने वाले गाय/भैंस में खनिज मिश्रण में से नियम बड़े महत्व का है क्योंकि इससे पशुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। थन/गर्भाशय की बीमारी नही होती है तथा गर्भाशय में जेर का अटकना कम होता है।
ऋतुकाल /ऋतुचक्र
गाय/भैंस को गाभिन रखने के लिए पशुपालकों को ऋतुकाल ठीक से समझना चाहिए एवं इसके लक्षण पहचानने चाहिए।
गाय एवं भैंस में ऋतुकाल के लक्षण
दिन में कम से कम तीन बार (सुबह, दोपहर एवं शाम) गाय एवं भैंस के पास एवं पीछे जाकर इन लक्षणों को देखना चाहिए। लगभग 90 प्रतिशत गाय/भैंस रात्रिकाल में ही गर्मी में आने का शुरूआत करती है। इसलिए सोने से (लगभग 10 बजे) तबेला/ शेड का आखिरी चक्कर लगाना चाहिए तथा गाय/भैंसों में उपराक्त लक्षणों का निरीक्षण करना चाहिए। रात्रि में गाय/भैंस में गर्मी के लक्षण दिखने पर अगले दिन सुबह 7-8 बजे कृत्रिम गर्भाधान कराना चाहिए। भैंसों में ऋतुकाल के लक्षण बहुत कम तीव्रता के मिलते हैं इसलिए उनमें विशेष ध्यान देना आवश्यक है अन्यथा अगले 19-21 दिन तक पुनः इंतजार करना पड़ेगा तथा इतने दिन इनके रखरखाव एवं खान पान का अतिरिक्त खर्च वहन करना पड़ेगा एवं 19-21 दिन दुग्ध उत्पादन की जो हानि होगी सो अलग तथा आपका कमाया हुआ मुनाफा ऋतुकाल के लिए एक चक्र में बेकार हो जायेगा। कृत्रिम गर्भधान के पश्चात पशु को अगले 19, 20 एवं 21वें दिन, 41, 42 एवं 43 वें दिन एवं 61, 62 एवं 63 वें दिन विशेष रूप से निरीक्षण करना चाहिए एवं देखना चाहिए कि पशु पुनः गर्मी में तो नही आया। यदि पशु पुनः गर्मी में आता है तो चिकित्सक से जांच कराकर गर्भाधन कराना चाहिए।
गर्भाशय का श्राव- यदि गाय/भैंस ऋतुकाल में आती हैं तो उसके शरीर से लसलसा पदार्थ निकलता है। वहीं श्राव योनि मार्ग से शरीर से बाहर निकलता है। पशु के ऋतुकाल को देखने का यह प्रमुख लक्षण है। श्राव को देखकर गभाग्शय के स्वास्थ्य के बारे में जाना जा सकता है। श्राव का रंग, गंध, चिकनापन, मात्रा, उसकी घनता एवं श्राव कितने दिनों से बाहर आ रहा है आदि बातों को ध्यान में रखना चाहिए। स्वास्थ्य पशु के ऋतुकाल में श्राव रंगहीन, चिकना, लम्बातार जैसा लटकना चाहिए तथा उसमें से किसी प्रकार की दुर्गंध नही आनी चाहिए। श्राव की मात्रा गाय एवं भैंस के नस्ल पर निर्भर करती है किन्तु सामान्यतया गाय में लगभग 4-5 चम्मच एवं भैंस में लगभग 1-2 चम्मच होता है।
श्राव के अतिरिक्त बाकी लक्षणों में बेचैन रहना, दुग्ध को रोकना, बार-बार पेशाब करना, योनि मार्ग का लालिमा बढ़नाख् एक दूसरे पर चढ़ना, खाना बंद कर देना, दूसरी गाय/भैंस को परेशान करना एवं रम्भाना इत्यादि प्रमुख है। श्राव का रंग लाल पीला बदबूदार इत्यादि होने पर पशुचिकित्सक से सलाह लेकर उसकी चिकित्सा करानी चाहिए।
गाय/भैंस का जेर
गाय/भैंस के बच्चा देने के बाद 8-12 घंटें में जेर बाहर आ जाना चाहिए। यदि गाय/भैंस का स्वास्थ्य ठीक ळे एवं उसकी संतुलित आहार पर रखा गया है तथा मिनरल मिक्चर खनिज लवण की उचित मात्रा दी गयी है तो जेर रूकने की सम्भावना बहुत ही कम होती है किन्तु यदि खनापान में गड़बड़ी है, प्रसव के समय बच्चा गर्भाशय में फंस गया है एवं उसको खींच कर बाहर निकाला गया है, गाय/भैंस किसी अन्य रोग से पीड़ित है एवं उसका गर्भाशय कमजारे हो गया है, बछड़ा सामान्य आकार से बढ़ा है, ऐसे कई कारणों से जेर गर्भाशय में अटक जाता है। यदि हल्का हुआ जेर ठीक तरह से नही निकला तो गर्भाशय का स्वास्थ्य प्रभावित होता है एवं पशु को आगे गर्भित होने में समस्या होता है। पशु का दुग्ध उत्पादन ओगे गर्भित होने में समस्या होती है व पशु दुग्ध उत्पादन 40-50 प्रतिशत तक कम हो जाता है। चिकित्सक की सलाह अनुसार ऐसे पशु का इलाज तत्काल करवाना चाहिए अन्यथा दूसरी अन्य बीमारियां भी पशु को लग जायेगी एवं आर्थिक हानि का सामना करना पड़ेबा। यदि प्रसव के 8-12 घंटे बाद इंतजार करने के काद भी जेर बाहर न आये तथी चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिए। अनावश्यक रूप से गर्भाशय से छेड़-छाड़ करने से इसका स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा।
संक्रामक या असंक्रमक रोग
किसी भी प्रकार की बीमारी से गर्भाशय के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडत्रता है। बच्चेदानी के कुछ प्रमुख रोग भी होते है जैसे ब्रुसेल्लोंसिस, लेप्टोस्पायरोसिस, वैरिओसिस, ट्राइकोमानियसिस इत्यादि। ब्रुसेल्लोसिस रोग की जांच करने के लिए पशु के दूध, खेन अथवा सीरम का उपयोग किया जाताहै एवं कुछ जांच प्रयोशाला में भी की जाती है। यदि पशुओं में बुसेल्लोसिस या ऐसे किसी अन्य रोग का होना पाया जाये तो ऐसे पशुओं को अन्य स्वस्थ्य पशु से अनग करना आवश्यक है एवं चिकित्सक से उसका यथोचित इलाज कराना चाहिए। ऐसे पशुओं का प्रकृतिक गर्भाधान नही कराना चाहिए अन्यथा रोग अन्य स्वस्थ्य पशु को लग सकता है।
गाय/भैंस का थन उसका सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है। दूसरे शब्दों में हम कहें तो गाय/भैंस का थन खराब होने पर उसकी कीमत एकदम घट जाती है। ऐसे पशु को काई भी खरीदना या पालना पसन्द नही करता क्यों कि गाय/भैंस के थन एक बहुत ही महत्वनूर्ण बीमारी जिसे थनैला/ थन का सूजन कहा जाता है, होने पर पशु का थन आंशिक या पूर्ण रूप से खराब हो सकता है एवं दुग्ध उत्पादन क्षमतापर बहुत ही कम होती है जिसे चिकित्सक की भाषा में Subselivical wartilis कहा जाता है। थनैला से बचाव हेतु पशु के दूध की जांच प्रत्येक 10 दिन में करना चाहिए। थनैला होने पर पशु की चिकित्सा योग्य चिकित्सक से कराना अति आवश्यक है अन्यथा पशु का थन खराब हो सकता है। थनैला से बचाव हेतु दुहान से पहले एवं बाद में पशु का थन एन्टीसेप्टिक मिश्रण से धोना चाहिए। एवं दुहान के बाद पशु को चारा इत्यादि दे देना चाहिए। जिससे के पशु 30-60 मिनट तक न बैठे एवं उसका टीट का मुख ठीक से बंद हो जाय। दुहान के बाद यदि पशु तुरन्त बैठ जाता है है तो संक्रमण ठीक कैनाल के रास्ते पशु के थन में पहुंच जाता है एवं थनैल रोग होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती है।
गर्भाधान की क्रिया
प्राकृतिक गर्भाधन की अपेक्षा कृत्रिम गर्भाधन का उपयोग करना चाहिए। कृत्रिम गर्भाधान हेतु साड़/भैंसा का फ्रोजेन सीमेन इस्तेमाल किया जाता है। तरल नत्रजन को रखने के लिए एक विश्चिष्ट प्रकार का कंटेनर होता है। तरल नत्रजन का ताप .1960ब् होता है। गर्भाधान करने के लिए फ्रोजेन सीमेन को द्रव स्थिति में लाना पडत्रता है। जमंे हुए वीर्य को द्रव स्थिति में लाने के लिए गर्म पानी का इस्तेमाल होना चाहिए। इसमें पानी का तापमान बहुत ही महत्वपूर्ण है। फ्रोजेन सीमेन को देव स्थिति में लाने के लिए 370ब् गर्म पानी के लगभग 30 सेकेंड तक पूर्ण रूप से डुबाकर रखना चाहिए। इसके बाद गर्भाधान की क्रिया पूर्ण करना चाहिए। सीमेन/वीर्य स्ट्रा कंटेनर से बाहर निकालने के उपरान्त 3-4 मिनट के अन्दर गर्भाशय में उचित स्थान पर जाना चाहिए अन्यथा गाय/भैंस के गाभिन होने की सम्भावना कीम हो जाती है।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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