देश की गोवंशीय पशुओं की आबादी संसार में सर्वाधिक है एवं दुग्ध उत्पादन में भी हम शीर्ष पर हैं, किन्तु प्रति पशु उत्पादकता की दृष्टि से हम काफी पिछड़े हुये हैं। उत्पादन क्षमता का सम्पूर्ण दोहन न कर सकने का एक प्रमुख कारण ग्रामीण स्तर पर पशुधन का अवैज्ञानिक रख-रखाव भी है। आर्थिक रूप से लाभकारी पशुपालन मादा पशुओं के उन्नत प्रजनन पर निर्भर करता है। यदि पशु समय से मद (गर्मी) में आकर गर्भित हो, गर्भावस्था पूर्ण कर लेता है तो संतान के साथ-साथ दुग्ध उत्पादन सुनिश्चित हो जाता है, तथा यदि हम इस प्राकृतिक चक्र हेतु आदर्श परिस्थितियाँ उपलब्ध करा सकें तो पशु से अधिकतम आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकता है। ऐसा ज्ञात है कि लगभग एक तिहाई मादा पशु जनन संबंधी रोगों के कारण निस्तारित किए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है कि मादा पशु की वैज्ञानिक ढंग से देखभाल की जाए ताकि पशुपालक स्वावलंबी बन सके। मादा पशु के जीवन काल को शैशवावस्था, वयस्कता, गर्भावस्था, प्रसावकाल एवं प्रसवोपरांत अवस्थायों में विभक्त किया जा सकता है।
शैशवावस्था
बछिया पशुपालक के लिए आशा की किरण लेकर आती है तथा भावी गाय में परिवर्तित हो आर्थिक लाभ प्रदान करती है। उस लाभ को अधिकतम स्तर तक पहुँचाने के लिए बच्चे की समुचित देखभाल अत्यंत आवश्यक हो जाती है। बहुधा पशुपालक उसके लालन-पालन की अनदेखी करते हैं क्योंकि वह उनकी आय में तत्काल कोई योगदान नहीं कर पाती। यह सही है कि तात्कालिक लाभ की दृष्टि से वह योगदान नहीं कर पाती, किन्तु यह भी सत्य है कि वही भविष्य की आय सुनिश्चित करती है।
एक सामान्य बछिया/कटड़ी पैदा होने के आधे घंटे के भीतर खड़ी होकर दुग्धपान प्रारम्भ कर देती है। कमज़ोर बच्चे अधिक समय लेते हैं। जन्म के पश्चात जितना जल्दी हो सके, नाल को एक इंच की दूरी से साफ ब्लेड या कैंची से काटकर टिंक्चर आयोडीन 4-5 दिन तक लगाते रहना चाहिए क्योंकि प्रारम्भिक मृत्यु दर काफी है जोकि नाल के रास्ते संक्रमण के कारण होती है। जन्म के पश्चात, शीघ्रातिशीघ्र बछिया या कटड़ी को खीस पिला देनी चाहिए। प्रथम तीन-चार दिन तक खीस देनी चाहिए। यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि बच्चे के लिए खीस अमृत समान है। खीस में विटामिन ए के अतिरिक्त प्रचुर मात्रा में एण्टीबॉडीज़ होती हैं जो बच्चे के प्रतिरक्षी तंत्र को रोगों के विरुद्ध लड़ने में सुदृढ़ता प्रदान करती है। खीस जन्म के प्रथम 2-4 घंटे के भीतर अवश्य पिला देनी चाहिए। इसके उपरांत आंतों से एण्टीबॉडीज़ के अवशोषण की प्रक्रिया क्रमश: धीमी पड़ती जाती है। 8 घंटे बाद यह 60% तक घट जाती है। पशुपालकों में एक भ्रांति आमतौर पर व्याप्त है कि जेर गिरने तक पशु का दूध न निकाला जाए। ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए, वरन् खीस निकालने से जेर गिरने की प्रक्रिया और सुगम हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि जो बच्चे कठिनाई से पैदा होते हैं, उनमें जन्म के प्रारम्भिक दिनों में मृत्युदर सामान्य बच्चों से अधिक होती है। जन्म के प्रथम 45 दिनों में ऐसे बच्चों में संक्रामक रोगों के होने की संभावना भी सामान्य बच्चों से ढाई गुना तक अधिक होती है। अत: ऐसे बच्चों की विशेष देखभाल और भी अनिवार्य हो जाती है।
खीस पिलाने का एक और लाभ यह है कि इससे बच्चा पहली बार मलत्याग करता है जिससे गर्भावस्था के दौरान आंतों में जमा हुये अपशिष्टों की सफाई हो जाती है। बछिया/कटड़ी को प्रारम्भ में शारीरिक भार का 10% दूध दिन में तीन बार पिलाना चाहिए। जिन बछड़ियों को सीमित मात्रा में दुग्धपान कराया जाता है, उनमें चारा-दाना शीघ्र प्रारम्भ किया जा सकता है, किन्तु आवश्यकता से अधिक नहीं खिलाया जाना चाहिए। दूध छुड़ाने की आयु न्यूनतम 30 दिन अवश्य होनी चाहिए जो अधिकतम 60 दिन हो सकती है। थोड़ा-थोड़ा हरा मुलायम चारा एक माह की आयु से प्रारम्भ किया जा सकता है। धीरे-धीरे दाने की थोड़ी-थोड़ी मात्रा प्रारम्भ कर क्रमश: दूध की मात्रा घटानी चाहिए। बछियों को ताज़ा साफ पानी पिलाना चाहिए। माँ से अलग करने के बाद यदि दूध बर्तन में दिया जाता है, तो बछिया दूसरे बच्चों को चाटने का प्रयास करती है जिससे कभी उसके पाचन तंत्र में बालों का गुच्छा निर्मित हो जाता है जो पाचन में गड़बड़ी पैदा कर सकता है। अत: दूध पीने के पश्चात मुंह पर सूत की जाली बांध देने से इसकी रोकथाम की जा सकती है। तीन माह की आयु से बछिया को पूर्ण रूप से सामान्य आहार अर्थात सूखा चारा, हरा चारा एवं दाना देना चाहिए।
बच्चों के रहने का स्थान सूखा एवं स्वश्च होना चाहिए तथा शीत ऋतु में बिछावन भी सूखी व स्वश्च होनी चाहिए। नियमित सफाई एवं चूने का छिड़काव भी आवश्यक है। खटमलों व मक्खियों के समापन हेतु बछियों के रहने के स्थान पर मेलाथियान (0.2%) अथवा कॉपर सल्फेट (0.2 से 0.3%) के घोल का छिड़काव करना चाहिए। प्रथम दो माह की आयु में बछिया को मौसम की प्रतिकूलतायों से बचाकर रखना चाहिए। 2-3 सप्ताह की आयु की बछिया/कटड़ी को सींगरहित करवा देना चाहिए ताकि पशु सुंदर दिखे तथा सींग की बीमारियों से मुक्त रहे। आपसी लड़ाई द्वारा चोट लगने का खतरा भी समाप्त हो जाता है। पशु को चराने हेतु ले जाना चाहिए ताकि उसे पर्याप्त व्यायाम व सूर्य का प्रकाश मिल सके। स्मरण रखना चाहिए कि दुधारू पशुओं की जननशीलता उत्तम बनाए रखने में संतुलित व पर्याप्त पोषण का अत्यधिक महत्व है। कुपोषण से ग्रसित पशुओं की शारीरिक वृद्धि दर कम होती है, परिणामस्वरूप वे देर से वयस्क हो पाते हैं एवं संतति तथा उत्पादन-काल का ह्रास होता है। कुपोषण के चलते पशु की जननशीलता सुधारने के तमाम प्रयास व उपचार व्यर्थ सिद्ध होते हैं। कुपोषण की तरह ही अधिक पोषण भी घातक हो सकता है। अत: संतुलित एवं पर्यप्त दाने-चारे का मादा पशुओं की प्रजनन क्षमता बनाए रखने में सर्वाधिक महत्व है। हरे चारे की महत्ता सर्वविदित है। यह खनिज लवणों एवं विटामिनों का स्त्रोत है। यदि पशुपालक भाई पर्याप्त मात्रा में हरा चारा वर्ष पर्यंत सुनिश्चित न कर सकें तो मादा पशुओं के आहार में 50 ग्राम खनिज लवण का चूर्ण नियमित रूप से अवश्य मिश्रित करें ताकि हरे चारे की कमी की आंशिक क्षतिपूर्ति की जा सके तथा पशु की जनन क्षमता बनी रहे। पशुओं को प्रत्येक 3-4 माह पर परजीवी नाशक दवा भी दी जानी चाहिए, तथा तीन माह पर बाह्य परजीविनाशक स्प्रे या डिप भी ज़रूर देना है ताकि पशु अंत: व बाह्य परजीवियों से मुक्त रहे तथा परजीवियों के कारण पोषक तत्वों से वंचित न रहे।
वयस्कता
वयस्कता पूर्व मादा पशु, मद अथवा मदचक्र प्रदर्शित नहीं करता किन्तु वयस्क हो जाने पर मद के लक्षण प्रदर्शित करना प्रारम्भ कर देता है, तथा गर्भित कराये जाने पर गर्भधारण कर सकता है। यद्यपि पूर्ण परिपक्वता, वयस्कता के कुछ समय पश्चात ही आती है। वयस्कता पशु की आयु तथा भार पर निर्भर करती है। प्रत्येक पशु मदचक्र की एक आनुवांशिक संभावना के साथ पैदा होता है अर्थात पशु मद कब प्रदर्शित करेगा यह लगभग ज्ञात होता है किन्तु उक्त आयु हो जाने पर भी यदि वयस्कता हेतु अनिवार्य शारीरिक भार नहीं आ पाता तो पशु मदचक्र प्रदर्शित नहीं करता। अत: आयु एवं शारीरिक भार में, शारीरिक भार को वयस्कता प्रदर्शित करने हेतु अधिक उत्तरदायी माना गया है। अर्थात कुपोषण हानिकारक सिद्ध हो सकता है। आदर्श परिस्थितियों में गाय लगभग डेढ़ वर्ष एवं भैंस दो वर्ष की आयु में 200 से 250 किलोग्राम भार पर वयस्कता प्राप्त कर लेती है। गाय-भैंसों का मद चक्र 21 दिन का होता है यानि के प्रत्येक 20-21 दिन पर गाय-भैंस मद के लक्षण प्रदर्शित करती है जिसकी अवधि 18 से 21 घंटे होती है। मद के लक्षण प्रथम 6-8 घंटे पश्चात उग्र होते जाते हैं। गाय में मद के लक्षण भैंस की तुलना में अधिक प्रबल देखे गए हैं। प्राय: पशुपालक भाइयों में इन लक्षणों की पूर्ण जानकारी का अभाव होता है जिससे पशु के गर्भाधान हेतु उपयुक्त समय निकल जाता है व पशु अनुपयोगी रहकर एक बोझ बना रहता है। गाय से वर्ष में एक व भैंस से डेढ़ वर्ष में एक बच्चा प्राप्त करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, मद की सही पहचान अत्यंत आवश्यक है।
मदचक्र की औसत अवधि 20 से 21 दिन की होती है। विदेशी नस्लों जैसे जर्सी व होलस्टीन गायों में मद की अवधि 18 घंटे न होकर काफी ज़्यादा (24 से 36 घंटे तक) हो सकती है। ऐसा पाया गया है कि मद के लक्षण अधिकतर रात्रिकाल में परिलक्षित होते हैं, जब पशु लगभग तनाव रहित अवस्था में होता है। मद के लक्षणों की तीव्रता पशुओं में भिन्न-भिन्न पाई जाती है। बछियों में गायों की तुलना में अधिक तीव्र लक्षण देखे जाते हैं। मदमयी पशु बेचैनी, अधिक शारीरिक सक्रियता, आहार, जुगाली एवं दुग्ध उत्पादन में कमी, अन्य पशुओं पर चढ़ना एवं दूसरे पशुओं को अपने ऊपर चढ़ने देना, योनिद्वार से पारदर्शी श्लेष्म का स्त्राव, योनिद्वार में सूजन जैसे लक्षण प्रदर्शित करता है। दूसरे पशुओं के चढ़ते समय पशु शांत खड़ा रहता है। इस अवस्था को ‘स्टैंडिंग हीट’ कहा जाता है तथा पशुपालक भाइयों को इसी समय अपने पशु को गर्भित कराना चाहिए। गर्भधारण की अच्छी संभावना हेतु, यदि पशु प्रात: मद में आया है तो सायं, व यदि सायं आया है तो अगले दिन प्रात: गर्भित कराना श्रेष्ठ रहता है। यद्यपि गर्भधारण मद के प्रारम्भ तथा समाप्त होने के पश्चात भी हो सकता है किन्तु गर्भधारण दर में कमी आ जाती है। सामान्यत: पशु एक या दो बार गर्भित कराने पर गर्भधारण कर लेता है, किन्तु यदि पशु को तीन से अधिक बार गर्मी में आने पर गर्भित कराया जा चुका हो एवं गर्भधारण न हो पा रहा हो, तो पशु चिकित्सक से परामर्श आवश्यक हो जाता है। पशुपालकों को मद के लक्षणों की जांच दिन में कम से कम दो बार (प्रात: व सायं) अवश्य करनी चाहिए एवं यदि संभव हो तो रात्रि में भी एक बार करनी चाहिए। गर्मी की सही जांच आर्थिक रूप से लाभदायक पशुपालन की कुंजी है। त्रुटि होने पर ब्यान्त का अंतराल बढ़कर संतान व उत्पादन की हानि होती है। हमारे देश में कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रम को अपेक्षित सफलता न मिल पाने का सबसे महत्वपूर्ण अकेला कारण गर्मी की सही जांच न हो पाना है।
भैंसों में मद की जांच अर्ध बधिया (टीज़र) सांड द्वारा करवाना लाभप्रद रहता है क्योंकि भैंसों में मद के लक्षणों की तीव्रता गाय की अपेक्षा कम होती है। जहां गायों में मद में आए पशु का समलैंगिक व्यवहार (मादा पशु का मादा पशु पर चढ़ना) स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, वहीं भैंस में प्राय: यह अनुपस्थित रहता है। अत: पशुपालक द्वारा गाय में मद की जांच करना भैंस की तुलना में काफी आसान एवं सटीक होता है। गाय-भैंसों में कभी-कभी पशु मद में तो आता है, अण्ड क्षेपण भी होता है, किन्तु बाह्य लक्षण प्रदर्शित नहीं करता, जिसे ‘शांत गर्मी’ कहा जाता है। ऐसे पशुओं के मद की जांच भी सांड कर लेता है अन्यथा पशु चिकित्सक गुदा परीक्षण द्वारा जननागों की जांच कर ज्ञात कर लेता है। यह समस्या भी मद की त्रुटिपूर्ण जांच के परिणामस्वरूप ही अधिक होती है। ऐसा पाया गया है कि मद की जांच अधिक बार करने से ‘शांत गर्मी’ की दर में गिरावट आती है। गर्मी के मौसम में ‘शांत गर्मी’ अधिक पाई जाती है। आहार में विटामिन-ए, फॉस्फोरस, कॉपर व कोबाल्ट की कमी भी इसके लिए उत्तरदायी हो सकती है। मादा पशुओं को तापमान की तीव्रता से अवश्य बचाना चाहिए। गर्मियों में उन्हे पीने का ठंडा पानी तथा छायादार स्थान उपलब्ध करवाना चाहिए। अधिक वातावरणीय तापमान पशुओं की जननशीलता को कुप्रभावित करता है। भैंसों को वर्ष भर प्रजनन योग्य बनाये रखने के लिए अधिक तापमान से बचाना चाहिए। भैंसों को गर्मियों में प्रतिदिन दो-तीन बार नहलाना चाहिए। शीत ऋतु में पशुओं को बंद बाड़ों में रखना चाहिए किन्तु ताज़ी हवा मिलती रहे, इसका भी ध्यान रखना चाहिए।
गर्भावस्था
आदर्श रूप से गाय से एक वर्ष में तथा भैंस से डेढ़ वर्ष में संतान प्राप्त होनी चाहिए, तभी पशुपालन आर्थिक रूप से उत्तम कहा जा सकता है। उत्पादन हेतु पशु का गर्भित होना अपरिहार्य है, जो गर्मी की समुचित जांच व तदुपरान्त सफल नैसर्गिक अथवा कृत्रिम प्रजनन पर निर्भर करता है। एक अच्छी दुधारू गाय ब्याहने के 90 दिनों के भीतर पुन: गर्भित हो जानी चाहिए।
मद में आए पशु का कृत्रिम गर्भाधान करवाना ही श्रेष्ठ है क्योंकि हमारे देश में प्राकृतिक संसर्ग हेतु उत्तम नस्ल के सांडों की बहुत कमी है। गर्भाधान के पश्चात यदि पशु अगले 21वें दिन मद में नहीं आता, तो संभावना होती है की गर्भ ठहर गया, किन्तु इसकी पुष्टि हेतु पशु के गर्भाधान के तीन माह पर गर्भ-जांच अवश्य करवा लेनी चाहिए ताकि यदि गर्भधारण नहीं हो सका है तो तदनुसार पुन: गर्भाधान अथवा उपचार करवाया जा सके। गर्भ जांच पशु चिकित्सक द्वारा पशु के गुदाद्वार में हाथ डालकर की जाती है जिसका परिणाम भी तुरंत प्राप्त हो जाता है। पशु के गर्भधारण न करने पर गर्भ जांच के अभाव में पशु को पालना अंतत: अलाभकारी ही सिद्ध होता है। लगभग 5% गाभिन पशु भी गर्मी प्रदर्शित करते हैं। किन्तु इनका पुन: गर्भाधान नहीं कराना चाहिए अन्यथा गर्भपात हो सकता है।
गर्भवती गाय-भैंस की उचित देखभाल अत्यंत आवश्यक है क्योंकि आगामी 300 दिन का दुग्ध उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। गाय की गर्भावस्था लगभग 280 दिन व भैंस की 310 दिन होती है। कृत्रिम गर्भाधान की तिथि को लिखकर रखना चाहिए, ताकि पशु के प्रसव की संभावित तिथि का अनुमान लग सके। गर्भवती पशु को स्वच्छ, हवादार व प्रकाशयुक्त स्थान पर शांत वातावरण में रखना चाहिए। उसे साधारण व्यायाम की आवश्यकता होती है। अत: इसे साफ सुथरे समतल खुले मैदान पर घूमने-फिरने देना चाहिए। गर्भवती पशु के आहार पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। गर्भवती गाय को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट, वसा एवं खनिज लवणों की आवश्यकता होती है। उसे गर्भ में पलते बच्चे की वृद्धि तथा प्रसवोपरांत दुग्ध उत्पादन हेतु उत्तम पोषण की आवश्यकता होती है। यदि पशु बछिया है (पहली बार गाभिन), तो उसे स्वयं की शारीरिक वृद्धि हेतु भी पर्याप्त एवं संतुलित आहार की आवश्यकता होती है। बच्चे की दो तिहाई वृद्धि अंतिम तीन माह में होती है तथा अयनों में भी वृद्धि हो रही होती है। अत: पशु को अतिरिक्त पोषण चाहिए। इस समय पशु के दाने में वृद्धि कर देनी चाहिए। गर्भवती गाय-भैंस को सामान्यत: 30-40 किलो हरा चारा, 2.5 से 5 किलो सूखा चारा, 2 किलो दाना, 50 ग्राम नमक एवं 50 ग्राम खनिज लवण प्रतिदिन देना चाहिए। पेयजल स्वच्छ तथा ताज़ा होना चाहिए। यदि उत्तम एवं पर्याप्त पोषण सुनिश्चित नहीं किया जाता तो पशु में कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे पशु कमज़ोर रहकर प्रसवोपरांत थोड़ा दूध ही दे पाता है, कमज़ोर बच्चे को जन्म दे सकता है, समय से पूर्व प्रसवित हो सकता है, मिल्क फ़ीवर (दुग्ध ज्वर), कीटोसिस अथवा बच्चादानी के बाहर आने की समस्या से ग्रसित हो सकता है या आगामी जननशीलता कुप्रभावित हो सकती है।
स्वस्थ बच्चे एवं अधिक उत्पादन हेतु गर्भवती पशु पर विशेष ध्यान देने के लिए प्रसव के लगभग दो माह पूर्व से पशु को अलग बांधना चाहिए। यदि पशु दुधारू है तो अंतिम दो माह में पशु का दूध सुखा दिया जाता है ताकि अयनों में वृद्धि हो सके तथा पशु का शारीरिक भार बढ़ सके। ध्यान रखना चाहिए कि शुष्क काल में पशु का शारीरिक भार 60-80 किलो तक बढ़ जाना चाहिए। ऐसा होने पर पशु की कोई भी पसली दिखाई नहीं देती। दुग्ध सुखाने हेतु सर्वप्रथम एक समय का दोहन बंद करना चाहिए। तत्पश्चात एक दिन छोड़कर दोहन करना चाहिए। ऐसा पाया गया है कि डेढ़ से दो माह से कम अवधि का शुष्क काल आगामी ब्यान्त के कुल दुग्ध उत्पादन में 20-30% की कमी हेतु उत्तरदायी हो सकता है। थनैला रोग से बचाव हेतु दूध दुहना पूर्णत: बंद करते समय थनों में जीवाणुरोधी औषधि की ट्यूब चढ़वा लेनी चाहिए।
प्रसवकाल एवं प्रसवोपरांत
प्रसव के पंद्रह दिन पूर्व से पशु को अलग कर एकांत में रखना चाहिए तथा निगरानी करनी चाहिए। यदि पशु चरने जाता है तो अंतिम माह में चरागाह भेजना बंद कर देना चाहिए। पशु के प्रसव से पूर्व भी कुछ लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं जैसे थन का फूलना व बढ़ना, पशु का एकांत पसंद करना, झुंड से अलग रहना, योनिद्वार से श्लेष्मा का स्त्राव, योनिद्वार के दोनों ओर पुट्ठे ढीले पड़ना, आहार में कमी आदि। अधिकतर प्रसव रात्रिकाल में होते हैं। प्रसव के समय पशु को दूर खड़े होकर देखना चाहिए। पहले पशु को प्रसव पीड़ा होती है, फिर पानी की थैली फटती है तथा बच्चा बाहर आता है, तत्पश्चात जेर निकलती है। प्रसव प्रक्रिया जेर बाहर आने के साथ पूर्ण हो जाती है। प्रसव स्थान स्वच्छ, शांत, हवादार व प्रकाशयुक्त होना चाहिए। पानी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। जंगली जानवर व कुत्ते आक्रमण न कर सकें, इसका भी प्रबंध होना चाहिए। फर्श पर चूना छिड़क कर सूखी बिछावन डालना चाहिए।
अधिकतर पशु सामान्य रूप से प्रसवित हो जाते हैं किन्तु 3-5% पशुओं में कठिनाई हो सकती है। बछड़ियों में पहली बार हो रही प्रसव प्रक्रिया में 4-12 घंटे लग सकते हैं जबकि गायों में सामान्य प्रसव 1-2 घंटे में हो जाता है। जहां तक संभव हो प्रसव की प्राकृतिक प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि पशु की बेचैनी के 12 घंटे बीत जाने के बाद भी पशु ज़ोर न लगा पा रहा हो अथवा ज़ोर लगाने के एक घंटा बीत जाने के बाद भी बच्चा बाहर न आ पा रहा हो तो बिना समय गँवाए पशु चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए। झोलाछाप इलाज नहीं करवाना चाहिए अन्यथा माँ एवं बच्चे दोनों की जान को ख़तरा हो सकता है। ब्याहने के कुछ दिन पूर्व से ही दूध अयन में उतर आता है किन्तु ब्याहने से पूर्व उसे नहीं निकालना चाहिए। इससे पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि उसे खीस नहीं मिल पाती। प्रसवोपरांत माँ द्वारा बच्चे को चाटने का अवसर दिया जाना चाहिए। किसी प्रकार का व्यवधान, शोर आदि नहीं होने देना चाहिए। ब्याहने के पश्चात पशु के बाह्य जननांगों को पोटाश मिले गुनगुने पानी से साफ कर देना चाहिए। पशु को ठंड से बचाने के लिए गुड़ का गरम शर्बत देना चाहिए। प्राय: ब्याहने के पश्चात जेर 3-8 घंटे में स्वत: ही गिर जाती है किन्तु यदि यह 12 घंटे तक भी नहीं गिरती, तो इसे जेर का रुकना माना जाता है। यद्यपि पशुपालक भाइयों को 24-36 घंटे तक भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, तत्पश्चात किसी पशु चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए। जेर गिरते ही हटाकर गड्ढे में दबा देनी चाहिए अथवा जला देनी चाहिए। यदि पशु इसे खा लेता है तो पशु में पाचन संबंधी विकार हो सकता है एवं दुग्ध उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। अधिकतर पशुओं में दाने की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए। प्रसव के लगभग 10-15 दिनों में पशु अपना सामान्य आहार ग्रहण करने लगता है। प्रसव के उपरांत दो माह तक पशु के वज़न में गिरावट आना सामान्य है, किन्तु यदि लगे कि इसके उपरांत भी शारीरिक भार में लगातार कमी हो रही है, तो पशु चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए। प्रसव के उपरांत पशु को हल्के व्यायाम की आवश्यकता होती है। कई बार पशुपालक पशु के प्रसव के बाद योनिद्वार से आ रहे स्त्राव को संक्रमण समझ उपचार हेतु चिंतित हो जाते हैं। प्रसवोपरांत पशु के योनिद्वार से भूरे-पीले रंग का स्त्राव आना सामान्य बात है, जिसकी मात्रा पशुओं में भिन्न-भिन्न हो सकती है। औसतन यह मात्रा 1-2 लीटर होती है। प्रथम 2-3 दिन में अधिक, एक सप्ताह पर कम व 15-20 दिनों पर समाप्त हो जाती है। सामान्य स्त्राव में कोई दुर्गंध नहीं होती। यदि जननागों से प्रसव के 15-20 दिनों बाद भी कोई मवाद या दुर्गंधयुक्त स्त्राव आ रहा हो, तो गर्भाशय में संक्रमण की आशंका रहती है तथा पशु की जांच करवा लेनी चाहिए।
आदर्श परिस्थितियों में प्रसव के 45-60 दिनों में पशु के जननांग पूर्व अवस्था में लौट आते हैं एवं पशु पुन: मद में आकर गर्भाधान के लिए तैयार हो जाता है। सामान्यत: प्रसव के 60 दिन पश्चात ही पशु को पुन: गर्भित कराना चाहिए किन्तु यदि गाय ने 2 माह तक एवं भैंस ने 4-5 माह तक मद के लक्षण प्रदर्शित न किए हों अथवा पशु गाभिन न हो पा रहा हो, तो पशु के जननांगों का परीक्षण आवश्यक हो जाता है। अन्यथा गाय से वर्ष में व भैंस से डेढ़ वर्ष में बच्चा प्राप्त करने का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाता एवं संतति तथा उत्पादन के ह्रास के साथ पशुपालन अलाभकारी हो जाता है। प्रसवोपरांत कुपोषण पुन: गर्भधारण में देरी का प्रमुख कारण होता है। इसके अतिरिक्त थन से दूध पिलाने वाले तथा अधिक दुग्ध उत्पादन वाले पशुओं में सामान्यत: गर्भधारण कुछ देर से ही होता है।
मादा पशुओं के उत्तम प्रबंधन में सूचनायों का सही अंकन भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पशु की जन्म तिथि, वयस्कता आयु, मद तथा गर्भाधान तिथि, प्रसव, जेर गिरना, दुग्ध उत्पादन, आहार, टीकाकरण, कृमिनाशक तथा उपचार संबंधी सूचनायों का समुचित रख-रखाव होना चाहिए। इनका अंकन पशुपालक के लिए सहज है एवं इनसे उपयोगी निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। मादा पशुओं के समय-समय पर चिकित्सीय परीक्षण की आवश्यकता पड़ती है, जैसे मदमयी होने पर, मद में न आने पर, बार-बार गर्भाधान कराने पर भी गर्भित न हो सकने पर, गर्भ निदान हेतु, गर्भपात होने पर, प्रसव में कठिनाई पर, अंडाशय एवं गर्भाशय की बीमारियों के निदान तथा उपचार हेतु, जेर रुकने पर इत्यादि। जनन अंगों के अतिरिक्त अन्य रोगों की रोकथाम व उपचार हेतु भी पशु चिकित्सक से परामर्श लेना आवश्यक हो जाता है। परीक्षण अथवा उपचार में विलंब अथवा लापरवाही पशुपालक के लिए हानिकारक होती है। बछड़ी/कटड़ी में वयस्कतापूर्व व वयस्कता उपरांत समय-समय पर विभिन्न रोगों जैसे मुंहपका-खुरपका, लंगड़ा बुखार, गलघोंटू, संक्रामक गर्भपात आदि हेतु टीकाकरण भी अवश्य करवाना चाहिए क्योंकि बचाव सदैव उपचार से श्रेष्ठ होता है।
अपने पशुओं की सम्पूर्ण उत्पादन क्षमता का दोहन करने हेतु हमें वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन करना होगा। मादा पशुओं की उत्तम जननशीलता ही अधिक उत्पादन की कुंजी है, जिसे बनाए रखने के सभी संभव उपाय अपनाने होंगे, तभी बढ़ती मानव आबादी की पोषण आवश्यकतायों की पूर्ति हो सकेगी।
इस लेख में दी गयी जानकारी लेखक के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सही, सटीक तथा सत्य है, परन्तु जानकारीयाँ विधि समय-काल परिस्थिति के अनुसार हर जगह भिन्न हो सकती है, तथा यह समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। यह जानकारी पेशेवर पशुचिकित्सक से रोग का निदान, उपचार, पर्चे, या औपचारिक और व्यक्तिगत सलाह के विकल्प के लिए नहीं है। यदि किसी भी पशु में किसी भी तरह की परेशानी या बीमारी के लक्षण प्रदर्शित हो रहे हों, तो पशु को तुरंत एक पेशेवर पशु चिकित्सक द्वारा देखा जाना चाहिए। |
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